महोपनिषद् में वर्णित “अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ! उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् !! ( अध्याय 4, श्लोक 71) अर्थात यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं ! उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है !
इसी को देखते हुये आज वैज्ञानिक प्रगति तथा तकनीकी विकास के कारण दुनिया बहुत छोटी हो गई है ! विश्व एकता की चेतना का भी तेजी से विकास हुआ है ! व्यक्ति यह समझने तथा पहचानने लगा है कि विश्व के एक भाग की घटना का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है ! सम्पूर्ण पृथ्वीलोक को एक इकाई मानकर चिन्तन होना आरम्भ हो गया है ! इस चिन्तन के प्रेरणा-स्रोत आज दर्शन, धर्म, काव्य, कला आदि ही नहीं हैं अपितु विज्ञान, तकनीकी विकास, यातायात, सूचना-क्रान्ति आदि अनेक कारक हैं !
अब हम यह अनुभव करने लगे हैं कि हमारे पृथ्वी लोक के मनुष्य-जगत एवं प्रकृति-जगत की अनेक ऐसी समस्याएँ हैं जिनका समाधान एकदेशीय धरातल पर सम्भव नहीं है ! समस्याएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, परस्पर गुँथी हुई हैं ! इनके समाधान के लिए विश्वजनीन दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है ! इनका समाधान सार्वदेशिक धरातल पर ही सम्भव है !
विश्व के देशों में इस बात पर आम सहमति विकसित होनी चाहिए कि विकास का अर्थ केवल मशीनों द्वारा अधिक उत्पादन करना नहीं है ! विकास अपने में साध्य नहीं है ! विकास केवल साधन है ! विकास का लक्ष्य मनुष्य है ! विकास साधन है और साध्य है – मनुष्य जाति का हित-सम्पादन !
विकास का उद्देश्य है – मनुष्य की समग्र उन्नति ! विश्व में विकास की ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जिससे मनुष्य के अन्तर्जात गुणों का पूर्ण विकास सम्भव हो सके ! उसकी सृजनशीलता की विविध रूपों में पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव हो सके, मनुष्य की भौतिक सन्तुष्टि के साथ-साथ उसकी आत्मिक सन्तुष्टि भी हो सके ! मनुष्य अपना जीवन सुखी बनाने के साथ-साथ उसे सार्थक भी बना सके !
कुछ व्यवस्थाओं ने व्यक्तिगत स्वातंत्र्य को तथा कुछ ने आर्थिक समानता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना ! मिखाइल गोर्बाचोव की ‘परेस्त्रोइका’ या पुनर्रचना की नीति के प्रभाव के कारण पूर्वी यूरोप के देशों में तथाकथित साम्यवादी शासन-व्यवस्था के दुर्ग ढह चुके हैं तथा वहाँ जनक्रान्तियों की सफलता के कारण लोकतंत्र स्थापित हो गया है ! पूँजीवादी देशों की सरकारें भी समाज के निर्धन, विपन्न, कमजोर, बेसहारा, बेरोजगार वर्गों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं ! ‘पूँजी’ को विपन्न वर्गों के लिए समायोजित किया जा रहा है ! अब धीरे-धीरे विश्व के अधिकांश देशों ने नए जीवन-मूल्यों को मान्यता देना आरम्भ कर दिया है !
इनमें निम्नलिखित मूल्यों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा :- (1) स्वतन्त्रता (2) व्यक्ति की प्रतिष्ठा (3) जनशक्ति एवं जन-आकांक्षाओं का आदर (4) समता (5) समाज के सुविधाविहीन वर्गों के प्रति दायित्व-बोध (6) पुरुष एवं स्त्री की समानता (7) विश्व-बन्धुत्व एवं विश्व-मैत्री (8) अन्तरराष्ट्रीय सद्भावना (9) एक-दूसरे की संस्कृति, परम्परा, धर्म, रीति-रिवाजों के प्रति आदर (10) लोकतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था !
विश्व के सामने बहुत-सी समस्याएँ एवं चुनौतियाँ हैं, अनेक संकट हैं ! इनमें से अधिकांश समस्याएँ एवं चुनौतियाँ एकदेशी नहीं हैं ! सार्वभौमिक चिन्ता के प्रश्नों एवं समस्याओं का उत्तर एवं समाधान परस्पर सहयोग से ही संभव है :
(क) विकसित देशों ने अपने निवासियों की भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा आदि मूलभूत आवश्यकताओं को लगभग पूरा कर लिया है लेकिन विकासशील देशों के निवासियों की मूलभूत आवश्यकताएँ अभी पूरी नहीं हो सकी हैं ! विकसित एवं विकासशील देशों में असमानताएँ बहुत अधिक हैं ! विकसित देशों को अपेक्षित नीतिगत परिवर्तन करने होंगे तथा समता सम्बन्धी प्रतिबद्धताओं को कार्यरूप में परिणत करना होगा !
(ख) विकसित देशों में भी आर्थिक समृद्धि के लाभों के असमान वितरण से समाज के निर्धन वर्गों में व्याकुलता तथा गहरे असन्तोष के लक्षण विद्यमान हैं !
(ग) विकास को पूर्णतः मानवीय दृष्टि से देखना होगा ! विश्व की अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक समस्याओं का हल ढूँढते समय तथा नीतियों को क्रियान्वित करते समय नीति-निर्माताओं को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि नीति का लक्ष्य विकसित एवं विकासशील देशों के समाजों में विद्यमान आर्थिक असमानताओं को दूर करना है ! विकासशील देशों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कुछ व्यापक उपायों पर अमल होना जरूरी है ! विकास के मार्ग में जिन नीतियों को बाधक माना जाता है उनको विकासशील देशों की सरकारों को अपनाए रखने का दुराग्रह छोड़ना होगा !
विकसित देशों को विकासशील देशों के साथ व्यापार की अपनी शर्तों में सुधार करना होगा, संरक्षणवाद को तिलांजलि देनी होगी, विकासशील देशों के ऊपर कमरतोड़ ऋण के बोझ की समस्या को सुविचारित ढंग से हल करना होगा, विकासशील देशों को मिलने वाली आधिकारिक विकास सहायता में पर्याप्त वृद्धि करनी होगी, बहुपक्षीय विकास संस्थाओं के संसाधनों की स्थिति को सुदृढ़ करना होगा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में सभी देशों के पारस्परिक हित के लिए अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की एक नई व्यवस्था स्थापित करनी होगी तथा अस्त्र-शस्त्रों पर व्यय होने वाली धनराशि को विकासशील देशों की समस्याओं के निराकरण के लिए विनियोजित करना होगा !
(घ) विकास मात्र आर्थिक उन्नति पर ही केन्द्रित नहीं रह सकता ! जन-जन की निर्धनता समाप्त करने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, पुरुष एवं स्त्री वर्गों की असमानताओं को दूर करने तथा संसार के सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी देशों से यह अपेक्षित है कि वे एकीकृत तथा सार्वदेशिक दृष्टि से विचार करें, नीतियाँ बनाएँ तथा कार्यक्रमों को क्रियान्वित करें ! गरीबी और सामाजिक कुव्यवस्था ये दोनों ही आर्थिक विकास और जीवन-स्तर-उन्नयन के मार्ग की मुख्य रुकावटें हैं !
इस कारण विकास की दिशा में आर्थिक उपायों के साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से भी संगठित प्रयास किए जाने जरूरी हैं ! सामाजिक एवं प्रशासनिक दृष्टियों से आतंकवाद, बढ़ते अपराध, नशीले तथा मादक द्रव्यों का सेवन, कैंसर एवं एड्स जैसे रोगों का प्रसार किसी देश विशेष की समस्याएँ नहीं हैं ! आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में सम्यक् सुधारों के द्वारा ही इन समस्याओं के स्थायी समाधान का मार्ग खोजा जा सकता है !
(ड) जनसंख्या-पर्यावरण-प्राकृतिक संसाधन का विकास से गहरा सम्बन्ध है ! जनसंख्या-वृद्धि की कम दर और आर्थिक विकास के उन्नत स्तर में सीधा सम्बन्ध है ! किसी देश की जन्मदर का वहाँ के सामाजिक-आर्थिक विकास से सहसम्बन्ध है ! सामाजिक और आर्थिक विकास ही उच्च जन्मदर को रोकने का सही उपाय है ! विश्व की बढ़ती आबादी के भयावह परिणामों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट होना चाहिए ! विकासशील देशों में शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या का बढ़ता बोझ भारी आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ ही पैदा नहीं कर रहा है अपितु पर्यावरण के लिए भी संकट उत्पन्न कर रहा है !
शहरी जनसंख्या के विस्तार के कारण शहरों में अंधाधुंध भवनों का निर्माण हो रहा है ! अव्यावहारिक भवन-निर्माण-परियोजनाओं के कारण शहरों के मकान ‘घर’ न होकर ‘माचिस की बन्द डिब्बियों’ के रूप में बदलते जा रहे हैं ! प्रत्येक शहर अपनी पहचान खोता जा रहा है तथा इस्पात और कांक्रीट आदि भौतिक पदार्थों से निर्मित बहुमंजिली इमारतों के जंगल में बदलता जा रहा है !
कहने का तात्पर्य यह है कि “वसुधैव कुटुम्बकम्” की जो अवधारणा सनातन धर्मी संतों की थी और आज के विश्व सत्ता के नुमाइंदों की है ! इन दोनों में जमीन आसमान का अंतर है ! हम पूरे विश्व को परिवार एक दूसरे के सहयोग के लिये मानते थे लेकिन विश्व सत्ता के नुमाइंदे पूरे विश्व को एक परिवार मात्र शोषण के लिये मानते हैं ! इसी दृष्टिकोण के अंतर को कहते हैं अपना अपना “वसुधैव कुटुम्बकम्” !!