विकास का तात्पर्य ही परिवर्तन है ! अर्थात हम जब भी विकास की बात करेंगे तो हमें अपनी पुरानी विकास विरोधी अवधारणाओं को त्यागना होगा ! जो अवधारणायें जीवन के अंतिम पड़ाव में हमारे मन, बुद्धि, चित्त के साथ-साथ संस्कारों का भी हिस्सा बन चुकी हैं !
अब प्रश्न यह है कि यदि कोई अवधारणा व्यक्ति के इतना अंदर तक समाहित हो गई है ! क्या वह उस व्यक्ति के मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और संस्कार को अपने प्रभाव में लिये हुये है ! तो क्या इस प्रवृत्ति का व्यक्ति राष्ट्र के विकास में सहायक हो सकता है !
इसका सीधा सा उत्तर है नहीं ! क्योंकि विकास के लिये निरंतर जिस तरह की पुरानी अवधारणाओं को त्यागने की जरूरत होती है ! उसके लिये सर्वप्रथम व्यक्ति को अपने मन, बुद्धि, चित्त और संस्कारों की गति को समझने की भी आवश्यकता होती है ! जिसके लिये उसे सर्वप्रथम अपने ज्ञानी और जीवन में सफल होने के अहंकार त्यागना होगा !
क्योंकि हमारे देश में व्यक्ति की सफलता और असफलता का मानक उसके पास कितना धन है ! इस बात पर निर्भर करता है ! अतः जिस व्यक्ति ने पूरे जीवन परिश्रम करके या अन्य किसी भी पद्धति से जो धन संग्रहित कर लिया है ! उसके परिणाम स्वरूप उसने जो बड़ी कोठी बना रखी है या सोना-चांदी, रुपये-पैसे संग्रह कर रखे हैं ! वह अहंकार ही उस व्यक्ति को नये परिवेश के अनुसार अपने अंदर परिवर्तन करने की आज्ञा नहीं देते हैं !
ऐसी स्थिति में हमारे सनातन जीवन शैली की आश्रम व्यवस्था में ब्रम्हचर्य और गृहस्थ के उपरांत वानप्रस्थ और सन्यास की जो अवधारणा थी ! वह ही समाज के विकास के लिये सर्वश्रेष्ठ थी !
क्योंकि जब व्यक्ति गृहस्थ जीवन के उपरांत वानप्रस्थ और फिर सन्यास के लिये जाता है ! तो वह अपने जीवन में संग्रहित किये हुये समस्त चल-अचल संपत्ति को अपनी अगली पीढ़ी को दे देता है और उस स्थिति में जब व्यक्ति अपनी समस्त चल-अचल संपत्ति त्याग देता है ! तब उसका अपने अहंकार बुद्धि, लोभ और ईर्ष्यालु प्रवृत्ति आदि से पीछा छूट जाता है !
ऐसा ही सर्वस्व त्यागी व्यक्ति ही समाज को कुछ नया दे पाता है ! वरना व्यक्ति अपने जीवन में जो संग्रहित करता है ! उसी के पोषण में उलझा रह जाता है !
इसलिये हमारे देश के वर्तमान बुजुर्ग जब तक अपने जीवन के निर्वाह की आवश्यकता से अधिक सुख, वैभव और संसाधन आदि के अहंकार को त्याग कर समाज हित में चिंतन नहीं करेंगे ! तब तक वह समाज को बहुत कुछ सकारात्मक नहीं दे सकेंगे !
इसलिये सुनने में भले ही बुरा लगे ! लेकिन सच यह है कि ज्ञान और अहंकार में डूबा हुआ व्यक्ति वह चाहे किसी भी उम्र का क्यों न हो ! वह कभी भी समाज को कुछ नहीं दे सकता है ! इसीलिये आज हमारे समाज के बुजुर्ग समाज के विकास में सहायक नहीं बन पा रहे हैं !
जिसके लिये उनको स्वयं अपने समाज में अपनी सकारात्मकता बढ़ाने के लिये स्वयं ही विचार करना होगा ! क्योंकि जब तक वह इस समाज को अपने परिवार की तरह अपना समाज नहीं समझेंगे ! तब तक वह किसी भी दृष्टिकोण से समाज के विकास में सहायक नहीं हो सकते हैं !!