क्या हम वनस्पति जल के डकैत हैं ! : Yogesh Mishra

विश्व के महासागर पृथ्वी का लगभग तीन चौथाई भाग घेरे हुये हैं ! संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक पृथ्वी पर पानी की कुल मात्रा लगभग 1400 मिलियन घन किलोमीटर है ! जिससे पृथ्वी पर पानी की 3000 मीटर मोटी परत बिछ सकती है ! लेकिन इस बडी मात्रा में मीठे जल का अनुपात बहुत थोड़ा सा है !

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी में से मीठा जल मात्र 2.7 प्रतिशत है ! इसमें लगभग 75.2 प्रतिशत धुव्रीय प्रदेशों में हिम के रूप में विद्यमान है और 22.6 प्रतिशत भूजल के रूप में विद्यमान है ! शेष जल झीलों, नदियों, वायुमंडल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है ! जो उपयोग और अन्य इस्तेमाल के लिये प्रभावी रूप से उपलब्ध जल की मात्रा बहुत थोडी है जो नदियों, झीलों और भूजल के रूप में उपलब्ध है ! इस तरह हमारे लिये उपयोगी जल पृथ्वी के सतही जल की कुल मात्रा का केवल 0.5 प्रतिशत है ! जो आठ सौ करोड़ व्यक्तियों के लिये पर्याप्त नहीं है !

अत: हमें अपने प्रयोग के लिये जमीन के नीचे से जल को निकलना पड़ता है ! जिस पर वास्तव में मनुष्य का अधिकार नहीं है ! क्योंकि प्रकृति की यह सामान्य व्यवस्था है कि जीव प्रकृति के जिस भाग में रहता है ! उसके निर्वाह के लिये प्रकृति संसाधन उसी स्थल पर उपलब्ध करवाता है ! अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य क्योंकि पृथ्वी के ऊपर रहता है ! इसलिये पृथ्वी के ऊपर जो भी पीने योग्य जल है ! उसे ही प्रयोग करने का मनुष्य को अधिकार है ! शेष को नहीं !

जैसे समुद्र के अंदर रहने वाले जीव जंतुओं का मात्र समुद्री पानी पर अधिकार है ! यदि उन जीव जंतुओं को समुद्र के नमकीन पानी से निकालकर सामान्य पानी में रख दिया जाये तो वह धीरे-धीरे बीमार होकर मर जायेंगे और इसी तरह यदि मनुष्य को समुद्री पानी में डाल दिया जाये तो वह भी धीरे-धीरे सड़ गल कर कुछ समय बाद वहीँ समुद्री पानी में मर जायेगा !

क्योंकि दोनों ही पानी का गुणधर्म अलग अलग है और प्रकृति ने अलग-अलग तरह के प्राणियों के लिये इन अलग-अलग तरह के जल स्रोतों का निर्माण किया है ! जो जल पृथ्वी के ऊपर है मात्र वही जल पृथ्वी के ऊपर के प्राणियों को उपयोग करना चाहिये !

और जो पानी पृथ्वी की सतह के नीचे है ! वह पानी पृथ्वी पर उत्पन्न वनस्पतियों के लिये है ! जिनकी जड़ें पृथ्वी के नीचे जाती हैं ! जहां से वह अपने पोषण के लिये जल का संग्रहण और प्रयोग करती हैं ! क्योंकि सामान्यतया मनुष्य पृथ्वी के सतह के नीचे जाकर जीवन यापन नहीं कर सकता है ! इसलिये पृथ्वी की सतह के नीचे का पानी भी ईश्वर ने मनुष्य के प्रयोग के लिये नहीं बनाया है !

लेकिन हम अपने को अति विकसित करने के चक्कर में अनेक तरह के यंत्रों का प्रयोग करके पृथ्वी के नीचे का पानी जो वास्तव में प्रकृति वनस्पतियों के लिये संरक्षित कर रखा है ! उसको भी बल पूर्वक निकाल कर प्रयोग करते हैं ! पीते हैं ! इसीलिये हमारे अंदर जीवनी शक्ति की उर्जा का क्षय होता है !

क्योंकि वह जल जो वनस्पति की सुषुप्त जीवनी शक्ति के पोषण के लिये प्रकृति द्वारा निर्मित है ! न की अति गतिशील ऊर्जावान मनुष्य के लिये निर्मित है ! इसीलिये दोनों जलों के गुण धर्म अलग अलग हैं ! पृथ्वी के नीचे का जल जब हम निरंतर लंबे समय तक प्रयोग करते हैं तो हमारे शरीर में तरह-तरह के विकार पैदा होने लगते हैं ! शरीर के विभिन्न ऑर्गन बीमार पड़ने लगते हैं और हम उनके पोषण के लिये लंबे समय तक स्थाई रूप से तरह तरह की दवाइयों का सेवन करते हैं !

मेरा यह निजी अनुभव है कि मैं जिन दिनों में हिमालय पर्वत की यात्रा में रहता हूं और वहां के झरनों से प्राप्त जल का सेवन करता हूं ! उस दौरान मेरे ध्यान साधना की अवधि बढ़ जाती है ! मेरे शरीर में एक अलग ही ऊर्जा का संचार होता है ! मेरे शरीर के ऑर्गन स्वत: ही व्यवस्थित रूप में कार्य करने लगते हैं और उस समय मुझे अपने शरीर पर अपनी आयु का प्रभाव नहीं दिखाई देता है !

ठीक इसके विपरीत जब मैं शहर में निवास करता हूं और जमीन के अंदर के जल को समर सेविल आदि से निकालकर नियमित प्रयोग करता हूं ! तो उस दौरान मेरी जीवनी शक्ति का ह्रास होता है और मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी चेतना उस स्तर की नहीं रह जाती है ! जैसा मैं हिमालय के जल को पीकर महसूस करता हूं !

एक बहुत सामान्य सी बात है कि जल को यदि किसी एयर टाइट बोतल में बंद करके रख दिया जाये तो वह कुछ समय बाद खराब होकर पीने योग्य नहीं बचता है और कल्पना कीजिये कि जो जल आज हजारों साल से जमीन के अंदर दबा हुआ है ! वहां के जीव-जन्तु और वनस्पतियों के लिये है ! वह जल आपके पीने योग्य कैसे हो सकता है !

वास्तव में हम लोगों ने अपने भोग विलास के कारण अपने जल का बहुत ज्यादा दुरुपयोग किया है ! ढाई सौ मिली लीटर पेशाब करने के बाद 7 लीटर पानी उसको बहाने के लिये सिस्टर्न में चला देते हैं ! अपनी गाड़ी पीने के लगभग 200 लीटर पानी से रोज साफ करते हैं ! कपड़े धोने, नहाने और मंजन आदि करने में हम लोग न जाने कितने लीटर पानी व्यर्थ ही शहरी जीवन शैली के कारण मात्र सफाई के नाम पर बहा देते हैं ! जिस कारण हमें बहुत से अतिरिक्त जल की आवश्यकता होती है ! और हम एक विवेकहीन पशु की तरह वनस्पतियों के हिस्से का भी जल धरती का सीना फाड़ कर मशीनों से निकाल कर उसका दुरुपयोग कर लेते हैं !

विचार कीजिये कि यदि ईश्वर ने हमें बुद्धि और शक्ति का समर्थ दिया है तो क्या आप इस पृथ्वी पर ईश्वर द्वारा निर्मित दूसरे जीवो को रहने नहीं देंगे और यदि आप यह सोचते हैं कि दूसरे रहे या न रहे लेकिन हमारे सुख में कमी नहीं आनी चाहिये ! तो यह मान लीजिये कि वह दिन दूर नहीं, कि उनके बिना आप भी इस पृथ्वी पर जीवित नहीं रहेंगे ! इसलिये भूजल जो वनस्पति के अंश का जल है ! उस पर डकैती डालना तत्काल बंद कजिये ! वरना वनस्पति के साथ-साथ आप भी नष्ट हो जायेंगे !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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