वैदिक ज्ञान के वैज्ञानिक सम्बन्ध का एक उदाहरण ऋग्वेद के आठवें मण्डल के उपरोक्त मन्त्रा में मिलता है जिसका अर्थ है पर्वतों के समीप एवम् झरनों तथा नदियों के संगम के पास का प्राकृतिक वातारण मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में सहायक है तथा ज्ञानवर्धन करता है ! यह एक काफी प्रसिद्ध मंत्रा है जिसे अक्सर योग और ध्यान के संदर्भ में उद्धरित किया जाता है !
इस वेद मंत्रा के द्वारा बताया गया है कि ध्यान एवम् प्रार्थना के लिए उपरोक्त प्राकृतिक वातावरण अधिक वांछनीय है ! विज्ञान के सन्दर्भ में इस प्रकार के वातावरण का प्रभाव हमारे षारीरिक रसायन से सम्बन्धित है ! आधुनिक षोधकर्ताओं ने विकसित तकनीक द्वारा यह सिद्ध किया कि घरों, अस्पतालों तथा कार्यस्थलों पर ऐसा वातावरण उत्पन्न करने से घर में अधिक प्रसन्न स्वभाव, अस्पताल में श्षीघ्र उपचार तथा कार्यस्थलों पर कम मानसिक थकावट का अनुभव होता है !
इस प्रकार का हमारा अनुभव प्राकृतिक वातावरण में उपस्थित ऋणायनों के महत्वपूर्ण गुणों के कारण होता है ! स्वीडन के एक रसायन शास्त्री डॉ. एस. आर्रहीनियस ने इलेक्ट्रोलाइट्स का आयनीकरण अर्थात धनात्मक एवंम् ऋणात्मक आयन का सिद्धान्त दिया जिस पर उन्हें सन् 1903 ई0 में नोबेल पुरस्कार मिला ! उन्होंने यह भी बताया कि झरनों के पास एवं वनों में ऋणायनों की प्रचुर मात्रा पाई जाती है ! इसी प्रकार हार्वर्ड यूनीवर्सिटी के फिजियोलोजी के प्रोफेसर जैकब ने ऋणायनों को ‘‘वायु की विटामिन‘‘ की संज्ञा दी है ! वातावरण में ऋणायनों की संख्या अधिक होने से निम्न लाभ होते हैं –
1. ऋणायन रक्त में आक्सीजन की मात्रा का स्तर बढ़ाते हैं, इससे षारिरिक थकावट दूर होती हैं !
2. आक्सीजन की मात्रा बढ़ने से इसका मस्तिष्क की ओर अधिक प्रवाह होता है जो अधिक मानसिक षक्ति प्रदान करती हैं जिससे मस्तिष्क अधिक सचेत होता है और नींद तथा थकावट दूर होती है !
3. ऋणायन ग्लोबूलिन (रक्त के प्लाज्मा में पाई जाने वाली प्रोटीन) के उत्पादन को प्रोत्साहित करता है ! इससे बीमारी का प्रतिरोध ढृढ़ता से होती है !
4. ऋणायन पाचन करने वाले ऐंजाइम्स के उत्पादन को प्रोत्साहित करते हैं ! इससे पाचन क्रिया सुचारू रूप से चलती है !
5. ऋणायन सैरोटोनिन की मात्रा को नियंन्त्रिात करके उपयुक्त स्तर पर लाकर लाभदायक प्रभाव देते हैं ! सैरोटोनिन की आवष्यकता से अधिक मात्रा से उदासी पैदा होती है ! जब कोई ऐसा व्यक्ति ऋणायनों की अधिकता वाले वातावरण में रहता है तो लगभग आधा घण्टे में अनावष्यक सैरोटोनिन मूत्रा के साथ षरीर से बाहर चली जाती है और मनुष्य षान्ति एवम् प्रसन्नता का अनुभव करता है !
इसी तरह का वेदों में भी निर्देश है ! “उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनाम् ! धियो विप्रो अजायत !!“ ( यजुर्वेद : 26.15)
अतः वेद ने जो ध्यान एवम् मनन के लिए पर्वतों तथा झरनों एवम् नदियों के संगम् के पास के प्राकृतिक वातावरण के लाभकारी होने की बात कही है, वह आधुनिक विज्ञान द्वारा भी प्रमाणित होती है ! इससे यह भी स्पष्ट होता है कि भले ही वेदों की अनेक बातें हमें समझ न आती हों, परंतु उनका वैज्ञानिक आधार है !