अस्पृश्यता का षडयंत्रकारी इतिहास : Yogesh Mishra

संस्कृत में “अछूत” को “अस्पृश्य” कहते हैं ! किसी भी वैदिक ग्रन्थ में “अस्पृश्य” शब्द का उल्लेख तक नहीं है ! “वैदिक ग्रन्थ” से तात्पर्य है वैदिक संहिताएं ! ब्राह्मण-ग्रन्थ ! आरण्यक ! उपनिषद ! समस्त वेदाङ्ग साहित्य जिसमें गृह्य-सूत्र जैसे धर्मशास्त्र के सारे आर्ष मौलिक ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं ! आदि (कुछ लेखकों ने आधुनिक काल में प्रचार किया है कि किसी-किसी गृह्यसूत्र में अस्पृश्यता का उल्लेख है ! किन्तु किसी भी गृह्यसूत्र में मुझे अभी तक “अस्पृश्य” शब्द नहीं मिला !

किन्तु हिन्दुओं का दुर्भाग्य है कि आधुनिक युग का आरम्भ होते ही भारत अंग्रेजों का गुलाम बन गया ! अतः लार्ड मैकॉले ने लाखों गुरुकुलों को बन्द करा दिया जिसके बाद सभी शिक्षा-संस्थानों में हिन्दुत्व-विरोधी तथ्यहीन बातें ही पढ़ाई गयीं ! ज्योतिराव फुले ! अम्बेदकर ! टैगोर ! गाँधी ! नेहरू जैसे महानुभाव भी इन्हीं शिक्षा-संस्थानों से निकले थे ! मौलिक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन व्याकरण पर आधारित परम्परागत विधि द्वारा किया नहीं ! अतः अंग्रेजों की बकवासों को ही सत्य समझने की भूल करते रहे !

यह सत्य है कि हिन्दू समाज में जातिप्रथा एवं अस्पृश्यता का अस्तित्व था ! किन्तु इसका कारण हज़ार सालों की गुलामी के परिणामस्वरूप उत्पन्न सामाजिक जड़ता और आत्म-रक्षण को न बतलाकर हिन्दुधर्म को ही दोषी बतलाया गया ! छान्दोग्य-उपनिषद में शूद्र (रैक्व) द्वारा द्विज को ब्रह्मज्ञान की दीक्षा देने की कहानी है ! महाभारत में उच्चकोटि के वैदिक विद्वान द्वारा आपातकाल में चाण्डाल का जूठा खाने और प्रायश्चित नहीं करने की कहानी है !

किन्तु ऐसे तथ्यों को आधुनिक “सेक्युलर” विद्वानों ने अनदेखा किया और हिन्दू-धर्म को ही असमानता एवं अन्याय वाला धर्म बताया ! सोवियत काल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता रूसी लेखकों द्वारा लिखित मार्क्सवादी दर्शन की जो किताबें पढ़ते और पढ़ाते थे उनमें हिन्दू-धर्म को साम्यवाद-विरोधी शोषणकारी धर्म बतलाया जाता था !

ऋग्वेद के उन सूक्तों की चर्चा भी नहीं की जाती थी जिनमें सभी मनुष्यों को साम्यवाद का अनुसरण करने की सीख दी गयी ! पुराणों और महाकाव्यों में वर्णित सतयुग के आदिम-साम्यवाद की चर्चा ये लोग नहीं करते थे ! श्रीपाद अमृत डांगे और भोगेन्द्र झा अपवाद थे जो भारतीय ग्रन्थों में साम्यवाद के साक्ष्यों को उद्धृत करते थे ! किन्तु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके मत को नहीं मानती थी ! हिन्दुत्व-विरोधी बकवास ही प्रचारित करती है !

इस परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है “जाति” और “वर्ण” की गलत अवधारणाओं का जानबूझकर प्रचार ! जाति जन्म पर आधारित है और वर्ण कर्म पर ! कर्म के सिद्धान्त पर आधारित वर्ण-व्यवस्था की नींव पर समस्त हिन्दू-धर्म खड़ा है ! किन्तु वर्ण-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था बताने की धूर्तता अंग्रेजों ने की ! कर्म के अनुरूप फल मिलना चाहिए यह तो कार्ल मार्क्स भी मानते थे और यह न्यायसंगत भी है !

किन्तु कार्ल मार्क्स का विश्वास था कि एशियाई समाजों में विकास करने की कोई क्षमता ही नहीं है और यूरोप के नास्तिक कम्युनिस्ट ही भविष्य के पथ-प्रदर्शक बन सकते हैं ! अतः कार्ल मार्क्स ने हिन्दुओं के मौलिक ग्रन्थों का अध्ययन करने की आवश्यकता नहीं समझी ! लन्दन के प्रेस्टीट्यूट द्वारा लिखित भारत-सम्बन्धी बकवास तक ही उनकी भारतविद्या सीमित थी ! यद्यपि उनके काल में संस्कृत साहित्य और दर्शन के महानता की धूम उनके देश जर्मनी में मची थी ! शोपनहोवर जैसे दार्शनिक तो वेद-उपनिषद-गीता पढ़कर ख़ुशी से झूमने लगते थे !

यही कारण है कि भारत-विरोधी नव-उपनिवेशवादियों और मार्क्सवादियों में अछूत शब्द पर परस्पर मतभेद होने के बावजूद हिन्दुत्व-विरोध के मुद्दे पर वह एकजुट हैं ! इन लोगों के मतानुसार हिन्दू-धर्म मानवता पर कलंक है और इसे जड़ से मिटा देना चाहिए ! जिसके लिये ब्राह्मणों का समूल नाश आवश्यक है !

अतः हिन्दू मन्दिरों पर सरकारी कब्जा और उनकी सम्पत्ति का गैर-हिन्दू कार्यों में निवेश ! ब्राह्मण गरीबों के भी विरोध में आरक्षण ! आदि को प्रगतिवाद और सेक्युलरवाद माना गया ! आज़ाद हिन्दुस्तान में हिन्दू मन्दिरों की जितनी सम्पत्ति सरकार ने लूटी है उतना महमूद ग़ज़नवी से लेकर अहमदशाह अब्दाली तक सारे लुटेरों ने मिलकर भी नहीं लूटी !

हिन्दुओं द्वारा अर्जित धन से मुसलमानों को हज कराने पर जितना पैसा आज़ादी के बाद खर्च हुआ है वह फिरोजशाह तुग़लक़ और औरंगज़ेब द्वारा जिज़िया की उगाही से भी बहुत अधिक है ! लेकिन मानवाधिकार-वादियों को यह सब नहीं दिखता क्योंकि उनकी दृष्टि में हिन्दू तो मानव ही नहीं हैं और उसमें भी ब्राह्मण तो हम किस अधिकार बात करें ?

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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