जैसा कि मैंने अपनी पूर्व के अनेक लेखों में लिखा है कि वर्तमान में प्रचालन में श्रीमद्भगवद्गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये गये उपदेश से अलग है ! आज प्रचालन में यह ईसाइयों द्वारा लिखवाई गई गीता है !
इसी गीता के प्रचार प्रसार के लिये अंग्रेजों द्वारा नियंत्रित मूल्य पर कागज उपलब्ध करवा कर एक विशेष प्रेस की स्थापना भी करवाई गयी थी ! जिसके द्वारा प्रकाशित दर्जनों दूषित ग्रन्थ आज समाज में चलन में हैं ! जो विधर्मियों को उपहास का मौका देते हैं ! इस श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य सनातन साधकों के चेतना स्तर को गिराना है !
इसका हम वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं ! आध्यात्मिक धर्म ग्रंथों के अनुसार इस संसार में अलग-अलग योनियों में जीव की चेतना के अलग-अलग स्तर हैं और चेतना के स्तर का यह अंतर ही जीव के श्रेष्ठ होने की सूचना देता है !
अर्थात जिस व्यक्ति का चेतना स्तर जितना विकसित होता है ! वह उतना ही श्रेष्ठ होता है !
धर्म शास्त्रों में चेतना के 5 स्तर बतलाये गये हैं !
आच्छादित, संकुचित, मुकुल, विकसित, पूर्ण विकसित चेतना अर्थात ब्रह्म चेतना !
आच्छादित चेतना अर्थात सांसारिक प्रपंचों में उलझे व्यक्ति की चेतना !
संकुचित चेतना अर्थात सांसारिक प्रपंचों से उन्नत किन्तु स्व में स्थिर होने का प्रयास करने वाली चेतना ! जिसे ध्यान मार्गी चेतना भी कहा जा सकता है ! व्रत, जप, चालीसा, भजन कीर्तन आदि इसी स्तर की चेतना में आते हैं !
मुकुल चेतना अर्थात जब आप किसी देव शक्ति या दिव्य व्यक्ति को इष्ट अर्थात लक्ष्य मानकर उसकी आराधना पूजा करते हैं ! तो वह मुकुल साधना कहलाती है ! जिसे आध्यात्मिक ग्रंथों में द्वैध साधना भी कहा गया है !
विकसित चेतना अर्थात जब व्यक्ति साधना में अपने को इतना विकसित कर लेता है कि वह अपने इष्ट के गुणधर्म में ही समाहित हो जाता है और स्वत: को भूल जाता है ! तब उसे अद्वैध समाधि कहते हैं !
पूर्ण विकसित चेतना अर्थात ब्रह्म चेतना ! यह समाधि के ऊपर की अवस्था है ! यहां पर पहुंचकर व्यक्ति के लिये न कोई भगवान होता है और न ही कोई प्रकृति ! व्यक्ति सीधे ब्रह्मांडीय ऊर्जाओं से जुड़ जाता है ! ऐसे व्यक्ति की मानसिक तरंगें इतनी अधिक विकसित हो जाती हैं कि उसके सोचने मात्र से ब्रह्मांडीय ऊर्जायें उसके लिए कार्य करना आरंभ कर देती हैं ! ऐसे व्यक्ति की यह स्थिति शास्त्रों में ब्रह्म चेतन अवस्था कही गई है !
यही ब्रह्म चेतन अवस्था ही व्यक्ति के मुक्ति का मार्ग है ! इसके पूर्व की सभी चेतना का स्तर व्यक्ति को बार-बार जन्म मरण के चक्कर में उलझाये रखते हैं !
कर्म फल जिस चेतना के स्तर पर कर्म करके संगृहीत किये गये हैं ! उससे उच्च स्तर की चेतन से ही उसे जलाया जा सकता है ! यह प्रकृति की सामान्य व्यवस्था है !
इसके पीछे ईश्वर का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति निरंतर अपने चेतना के स्तर में विकास करता रहे !
वर्तमान कपोल कल्पित गीता के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को विषाद में जाता देख वह यह समझ गये थे कि वह इस समय काल के प्रगट होने के कारण अपने अति विकसित चेतना के स्तर पर चिंतन कर रहा है अर्थात इस चेतना के स्तर पर किये गये कर्म फल को काटना मुश्किल भविष्य में असंभव है !
वह युद्ध से वैराग्य को श्रेष्ठ बतला रहा है ! यह अति विकसित चेतना के लक्षण हैं ! इस कर्म पर तो बस ब्राह्मणों का अधिकार है ! यह क्षत्रीय कर्म से श्रेष्ठ चेतना स्तर है !
इसीलिए उन्होंने अर्जुन को अपने उपदेश के द्वारा चेतना के निचले स्तर पर जाकर कर्म करने के लिए प्रेरित किया ! जिससे भविष्य में उसके द्वारा महाभारत युद्ध के दौरान स्वजनों के हत्या के कर्म फल के भोग्य प्रभाव को आसानी से काटा जा सके !
अर्थात कहने का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति जिस स्तर की चेतना पर किसी कर्म को करके उसके परिणाम से प्रभावित होकर अर्थात फल को संग्रहित करता है ! उस कर्म के फल को नष्ट करने के लिए उसे उससे उच्च स्तर की चेतना पर जा कर व्यक्ति को स्वत: को विकसित करना पड़ता है ! तभी वह पूर्व के संचित कर्म फल को नष्ट कर सकता है !
इसीलिए मैं यह मानता हूं कि उच्च स्तर के साधकों को श्रीमद भगवत गीता के सिद्धांतों में प्रवेश नहीं करना चाहिये क्योंकि श्रीमद्भागवत गीता सांसारिक व्यक्तियों के आच्छादित चेतना के स्तर को तो जरूर विकसित करती है, लेकिन उच्च स्तर के साधकों के विकसित या पूर्ण विकसित चेतना के स्तर को निम्न स्तर पर ले आती है !!