श्री दुर्गासप्तशती के अनुष्ठान की पूर्ण विधि बहुत ही विस्तार से समझें । Yogesh Mishra

(नोट) मित्रो  श्री दुर्गासप्तशती शापित और कीलित है इसलिए सर्वप्रथम
इसके  उत्कीलन एवं शाप विमोचन की विधि को पढ़ें उसके पश्चात ही इसका अनुष्ठान करें

 

श्री दुर्गासप्तशती अनुष्ठान पूर्ण विधि ।

भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ”वेद” अनादि है, उसी प्रकार ”सप्तशती” भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ”मार्कण्डेय पुराण” के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ”दुर्गा सप्तशती” शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है

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‘दुर्गा सप्तशती’के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र मेंलक्ष्मी,  ललिता,  काली, दुर्गा,  गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी,वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल 21 देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है।

सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ ‘एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप ‘हृी’ तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप ‘क्लीं’ है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में ‘ऐं’ मंत्र सरस्वती का, ‘हृीं’ महालक्ष्मी का तथा ‘क्लीं’ महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।

भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में360 शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है। 

‘दुर्गा सप्तशती’ के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है।

‘प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु।

उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥

मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के।

विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥

एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥

तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥

अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल 700 श्लोक 700 प्रयोगों के समान माने गये हैं।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि
दुर्गा सप्तशती को सिद्ध कैसे करें-

सामान्य विधि : 
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष,कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।

वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।

संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।

सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ”देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै”से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र ‘सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,’ कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ”सार्धनवचण्डी” प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।

शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ”मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।” इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।

इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि,सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
श्री दुर्गासप्तशती अनुष्ठान विधि

भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है।

श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में360 शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।

[ 1.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का 108 बार जप। 

[ 2.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में 1-1 पाठ।

[ 3.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है। 
दुर्गा सप्तशती की सही पूजन प्रक्रिया

 

दुर्गा सप्तशती मार्कण्डेय पुराण का अंश है। इसमें ७०० श्लोक होने के कारण इसे ‘दुर्गा सप्तशती’ भी कहते हैं। इसमें सृष्टि की प्रतीकात्मक व्याख्या की गई है। जगत की सम्पूर्ण शक्तियों के दो रूप माने गये है – संचित और क्रियात्मक। नवरात्रि के दिनों में इसका पाठ किया जाता है।यदि इसका सही तरह उपयोग किया जाय तो समस्त सांसरिक और परालौकिक उपलब्धियाँ प्राप्त की जा सकती है दुर्गा सप्तशती से कामनापूर्ति हेतु निम्नलिखित पूजन प्रक्रिया  अपनाइये 

– लक्ष्मी, ऐश्वर्य, धन संबंधी प्रयोगों के लिए पीले रंग के आसन का प्रयोग करें।

– वशीकरण, उच्चाटन आदि प्रयोगों के लिए काले रंग के आसन का प्रयोग करें।
बल, शक्ति आदि प्रयोगों के लिए लाल रंग का आसन प्रयोग करें।

– सात्विक साधनाओं, प्रयोगों के लिए कुश के बने आसन का प्रयोग करें।

वस्त्र- लक्ष्मी संबंधी प्रयोगों में आप पीले वस्त्रों का ही प्रयोग करें। यदि पीले वस्त्र न हो तो मात्र धोती पहन लें एवं ऊपर शाल लपेट लें। आप चाहे तो धोती को केशर के पानी में भिगोंकर पीला भी रंग सकते हैं।
हवन करने से

जायफल से कीर्ति और किशमिश से कार्य की सिद्धि होती है।

आंवले से सुख और केले से आभूषण की प्राप्ति होती है। इस प्रकार फलों से अर्ध्य देकर यथाविधि हवन करें।

खांड, घी, गेंहू, शहद, जौ, तिल, बिल्वपत्र, नारियल, किशमिश और कदंब से हवन करें।

गेंहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।

खीर से परिवार, वृद्धि, चम्पा के पुष्पों से धन और सुख की प्राप्ति होती है।

आवंले से कीर्ति और केले से पुत्र प्राप्ति होती है।

कमल से राज सम्मान और किशमिश से सुख और संपत्ति की प्राप्ति होती है।

खांड, घी, नारियल, शहद, जौं और तिल इनसे तथा फलों से होम करने से मनवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है।

व्रत करने वाला मनुष्य इस विधान से होम कर आचार्य को अत्यंत नम्रता के साथ प्रमाण करें और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दें। इस महाव्रत को पहले बताई हुई विधि के

अनुसार जो कोई करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। नवरात्र व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।
नवार्ण मंत्र को मंत्रराज कहा गया है।

‘ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’

शीघ्र विवाह के लिए।
क्लीं ऐं ह्रीं चामुण्डायै विच्चे।

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए स्फटिक की माला पर।
ओंम ऐं हृी क्लीं चामुण्डायै विच्चे।

परेशानियों के अन्त के लिए।
क्लीं हृीं ऐं चामुण्डायै विच्चे।

दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति-
1- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
3- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा हटाने के लिये।
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।

 

वैदिक आहुति की सामग्री—
प्रथम अध्याय-एक पान पर देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना।

द्वितीय अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष

तृतीय अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद

चतुर्थ अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,

चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से देह नाश होता है। इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै
स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है।

पंचम अध्ययाय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है।

षष्टम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र।

सप्तम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं।

अष्टम अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन।

नवम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना।

दशम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था।

एकादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 मे अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मे फूल चावल और सामग्री।

द्वादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मे नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41पर इत्र, फूल और चावल
त्रयोदश अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल।
साधक जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारता रहता है
साधक जानकारी के अभाव में मन मर्जी के अनुसार आरती उतारता रहता है जबकि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारने का विधान है- चार बार चरणों पर से दो बार नाभिे पर से, एक बार मुख पर से, सात बार पूरे शरीर पर से। इस प्रकार चौदह बार आरती की जाती है। जहां तक हो सके विषम संख्या अर्थात 1, 5, 7 बत्तियॉं बनाकर ही आरती की जानी चाहिये।
शैलपुत्री साधना- भौतिक एवं आध्यात्मिक इच्छा पूर्ति।

ब्रहा्रचारिणी साधना- विजय एवं आरोग्य की प्राप्ति।

चंद्रघण्टा साधना- पाप-ताप व बाधाओं से मुक्ति हेतु।

कूष्माण्डा साधना- आयु, यश, बल व ऐश्वर्य की प्राप्ति।

स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।

कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।

कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।

महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।

सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।

विभिनन मनोकामनाओं के लिए दुर्गा सप्तशती के अलग-अलग श्लोक मंत्र रूप में प्रयुक्त होते हैं जिनका ज्ञान किसी योग्य विद्वान से पूछकर किया जा सकता है।
स्कंद साधना- कुंठा, कलह एवं द्वेष से मुक्ति।
कात्यायनी साधना- धर्म, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा भय नाशक।
कालरात्रि साधना- व्यापार/रोजगार/सर्विस संबधी इच्छा पूर्ति।
महागौरी साधना- मनपसंद जीवन साथी व शीघ्र विवाह के लिए।
सिद्धिदात्री साधना- समस्त साधनाओं में सिद्ध व मनोरथ पूर्ति।

 

 

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

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