यह एक कठोर सत्य है कि जब भी समाज में धर्म और भौतिकता का असंतुलन हुआ है, तब समाज अपने विनाश की ओर बढ़ गया है !
इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि कोई भी समाज न तो अति भौतिकता से चल सकता है और न ही विशुद्ध धर्म के परायण से ! संसार में जीने के लिए दोनों के मध्य संतुलन होना परम आवश्यक है !
यह संतुलन प्राचीन काल में ऋषि, मुनि, मनीषी, चिंतक, विचारक आदि समाज में बनाए रखते थे ! जिनका पोषण समाज करता था !
किंतु महाभारत युद्ध के बाद समाज का यह पोषण बंद हो जाने के कारण अब समाज की यह विचारशील प्रजाति विलुप्त हो गई है ! अब धर्म के नाम पर बस सिर्फ चांदी की खड़ाऊ लेकर घूमने वाले, भगवाधारी हिंदुत्व को ठगने वाले लोग ही बचे हैं !
इसी कारण आज भारतीय समाज में संतुलन की जगह भ्रम की स्थिति बढ़ गयी है ! किस स्थान पर भौतिकता के सिद्धांत का अनुपालन किया जाये और कहाँ धर्म का ! यह समाज को बतलाने वाला अब कोई विचारशील व्यक्ति नहीं बचा है ! यह एक बहुत ही भयावह स्थिति है !
इसीलिए युवा पीढ़ी में एक बहुत बड़ा वर्ग धर्म को अस्वीकार में लगा है, जबकि पुरातन पीढ़ी तो पहले से ही भौतिकता को अस्वीकारा रही थी !
यही दोनों अस्वीकार ही आज भारत के गरीबी, लाचारी और बेबसी का कारण है !
और आज भारत के परंपरागत चिंतकों के लिए भी यह एक बहुत बड़ी चुनौती है कि किस तरह भारतीय समाज में धर्म और भौतिकता को संतुलित करने वाले व्यवहारिक मानकों का निर्धारित किया जाये !
मेरा ऐसा मानना है कि यह कार्य परंपरागत चिंतन से अलग हटकर आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत कोई दिव्य शक्ति ही कर सकती है क्योंकि इतने बड़े कार्य के लिए ईश्वर का सहयोग परम आवश्यक है !!