भगवान कोई वी.आई.पी. नहीं जिसे मंदिरों में सुरक्षित बैठा दिया जाये ! बल्कि वह प्रकृति का एक सार्वजनिक सेवक है ! जिसका काम ईश्वर द्वारा जो जीव आत्मायें पृथ्वी पर निवास कर रही हैं ! उनके सभी का दुख दर्द को सुने और उनका समाधान करे !
जैसे कोई सामान्य व्यक्ति जब मंत्री बना दिया जाता है तो सरकारी लाव लश्कर के तहत उसे बड़ा सा बंगला, बड़ी सी गाड़ी, बड़ा सा ऑफिस और सुरक्षा आदि मिल जाती है ! तब उस स्थिति में आम जनमानस जो उस व्यक्ति को वोट देकर मंत्री बनाते हैं ! उनका उस व्यक्ति से संबंध समाप्त हो जाता है ! क्योंकि सरकारी सुरक्षा कारणों से समाज और उस मंत्री बने हुये व्यक्ति के बीच में बहुत से ऐसे बेरियर स्वत: बन जाते हैं ! जो उस व्यक्ति को समाज से अलग कर देता है ! और कुछ समय तक उन सुविधाओं में रहते-रहते वह व्यक्ति भी पुन: समाज में जाने योग्य नहीं बचता है ! क्योंकि जब गर्मियों में शरीर में ए.सी. की ठंडी हवा लगती है ! तब व्यक्ति कड़े धूप में निकल कर जन सामान्य का दुख-दर्द सुनने में रुचि नहीं लेता है !
कमोबेश यही स्थिति भगवान की भी है ! जब तक संपूर्ण विश्व में शिवलिंग की स्थापना और आराधना दोनों ही खुले आसमान के नीचे हुआ करती थी ! तब तक भगवान शिव सभी के लिये सहज थे ! कोई भी व्यक्ति किसी भी समय कभी भी जाकर उनके दर्शन कर सकता था और अपने दुख दर्द को उन्हें बतला सकता था ! इसीलिये उस समय वह भोले भण्डारी थे !
लेकिन जब से वैष्णव जीवन शैली के प्रभाव के बढ़ने के साथ-साथ जब नगरों के निर्माण की व्यवस्था शुरू हुई तो उनमें ईश्वर के लिये भी देवालय बनाने का विधान किया जाने लगा ! खासतौर से गौतम बुद्ध के बौद्ध धर्म के बाद बहुत तेजी से मंदिरों के निर्माण का कार्य शुरू हुआ !
जब मंदिर होगा तो उसकी अपनी एक व्यवस्था भी होगी ही ! उसके खुलने और बंद करने का समय होगा ! उस मंदिर की देखभाल के लिये बहुत से सेवक होंगे ! उस मंदिर की साफ सफाई का निर्धारित समय होगा और एक दूरी होगी जो भगवान और भक्तों के बीच में मर्यादा को निर्धारित करती होगी !
यह सभी कुछ धर्म के व्यवस्था के तहत होगा अर्थात जिस तरह जनप्रतिनिधि और जनता के मध्य सरकारी व्यवस्था आ जाती है ! जिससे उन दोनों के मध्य दूरियां बढ़ जाती हैं ! ठीक उसी तरह ईश्वर जब मंदिर में बिठा दिया जाता है तो धर्म की व्यवस्था के तहत भगवान और भक्त के मध्य दूरी बढ़ जाती हैं !
फिर भगवान भक्तों को सहज उपलब्ध नहीं होते हैं ! भगवान की उपलब्धता मंदिर के पंडा और पुजारी की कृपा पर निर्भर हो जाती है ! यदि मंदिर में भीड़ ज्यादा होती है तो वहां भगवान की कृपा कम गाली और लाठियां ज्यादा मिलती हैं ! और यह सब कुछ उस भगवान के नाम पर दुकान चलाने वाले ठग, धूर्त, पंडे, पुजारी किया करते हैं ! जिन्हें न तो भगवान से कोई लेना-देना है और न ही भक्तों से !
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जितना भक्तों को भगवान की जरूरत है ! उतना ही भगवान को भी अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिये भक्तों की जरूरत है और इतिहास गवाह है कि वेदों में वर्णित दर्जनों ऐसे भगवान हैं ! जिन्होंने भक्तों से दूरी बना ली और आज उनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं है ! लोग जानते ही नहीं कि वेदों में इस तरह की किसी भगवान का वर्णन भी है !
इसलिये पंडित और पुजारियों से क्या बात करें ! मैं सीधी बात अपनी भगवान से ही कहता हूं कि अगर तुम्हें अपने अस्तित्व को बचाये रखना है तो तुम मंदिरों के बाहर निकलो ! सुविधा को त्यागो और घमंड को छोड़ो क्योंकि मंदिरों के अंदर बैठकर तुम्हें जो घमंड आ गया है ! वह सत्य सनातन हिंदू धर्म के विनाश का कारण बन रहा है ! इसलिये अगर सनातन हिन्दू धर्म को बचाना है तो तुम्हें मंदिरों के बाहर निकल कर भक्तों के बीच में आना ही पड़ेगा वर्ना अगर सनातन धर्म ही नहीं रहेगा तो तुम्हें पूंछेगा कौन !
तुम वह गलती मत करो जो तुम्हारे तथाकथित प्रतिनिधि शंकराचार्यों, पण्डित, पुरोहित और कथावाचकों ने समाज से दूरी बना कर की है !