देव और दानव कौन थे, आदि सभ्यता के विकास का संक्षिप्त इतिहास ! Yogesh Mishra

‘असुर’ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग 105 बार हुआ है ! उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग ‘शोभन’ अर्थ में किया गया है और केवल 15 स्थलों पर ही इन्हें ‘देवताओं का शत्रु’ बतलाया गया है ! अर्थात असुर शुरुआत में देवताओं के शत्रु नहीं थे कालांतर में जब साम्राज्य विस्तर के कारण देव असुर संग्राम हुये तब असुरों को देवताओं का शत्रु घोषित किया गया !

‘असुर’ का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न (‘असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति 3.8) और इस प्रकार ‘असुर’ का वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है ! विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है ! इंद्र के तो असुर वैयक्तिक बल का सूचक हैं, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का संकेत स्पष्टत: करते हैं !

‘असुर’ शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता ‘अहुरमज़्द’ अर्थात ‘मेधावी असुर’ के नाम से विद्यमान है ! यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर विकसित हुये और एक ही देवता की उपासना में निरत थे ! कालनंतर में आर्यों की इन दोनों शाखाओं के मध्य साम्राज्य विस्तर की इच्छा के लेकर आपसी विरोध के कारण फूट पड़ी गई !

फलत: वैदिक आर्यों ने ‘न सुर: असुर:’ यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ कर दिया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का (‘द एव’ के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू कर दिया ! फलत: वैदिक साहित्य में ‘वृत्रघ्न’ अर्थात देव राज “इंद्र” को अवस्ता में ‘वेर्थ्रोघ्न’ के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बताया गया तथा ईरानियों का ‘असुर’ शब्द पिप्रु आदि देव विरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था ! (ऋक्. 10 !138 !3-4) !

असुरों ने भगवान शिव के सहयोग से भारत में हजारों वर्ष तक शासन किया था ! इसके बाद उन्होंने ईरान के निकटवर्ती राज्यों पर विजय प्राप्त की और वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित किया ! असुरों के गुरु महर्षि भृगु के पुत्र “शुक्राचार्य” थे ! यह वही महर्षि भृगु थे जिन्होंने छली भगवान विष्णु के सीने पर लात मरी थी !

वेदों में असुरों को दैत्य भी कहा जाता है ! दानव और राक्षस अलग होते हैं ! “दानव” कश्यप ऋषी की पत्नी ‘दनु’ की श्रीमद् भागवत के अनुसार 61 पुत्रों के वंशज हैं ! उन्हें दानव कहा गया ! यह मूलत: वास्तुकार और शैव परम्परा के अस्त्र-शास्त्र के अविष्कारक व निर्माता थे ! इन्हीं में त्रिपुराधिपति दानवराज “मय” हुये । जो मय विषयों के परम गुरु अर्थात मायावी ज्ञान के जनक थे ।

इन्हीं की की पत्नी हेमे का हरण देव राज इन्द्र ने किया जो कि रावण की पत्नी मंदोदरी की माँ थी ! जिसे इन्द्र के कब्जे से छुड़ाने के लिये रावण ने अपने पुत्र मेघनाथ की भेजा था जिसने युद्ध में इन्द्र को हरा कर अपनी नानी को आजाद करवाया इसीलिये उसे “इन्द्रजीत” की उपाधि दी गई ! मिश्र के परामिड का निर्माण इन्ही दानव वास्तुशास्त्रीयों ने किया ! क्योंकि निर्माण आदि शाररिक कार्य करने के कारण यह लोग देवताओं के मुकाबले अधिक लम्बे चौड़े व सशक्त थे, अतः देवताओं ने इन्हें दानव कहा !

इसी तरह “यक्ष संस्कृति” अर्थात जिसके जनक व पोषक रावण के भाई देवताओं के खजांची “कुबेर” थे ! जिस संस्कृति के लोग भोग विलास में विश्वास रखते थे ! उसके विपरीत रावण ने “रक्ष संस्कृति” अर्थात “तप और सयंम” की संस्कृति विकसित की और उसमें विश्वास करने वाले “राक्षस” कहलाये अर्थात सभी की “रक्षा” करने वाले !

इसी तरह दैत्यों की उत्पत्ति भी कश्यप ऋषी की पत्नी “दिति” से हुई थी ! कश्यप ऋषि की पत्नी “दिति” के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका (होलिका) नामक एक पुत्री को जन्म दिया ! श्रीमद्भागवत् के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ था, जो कि निसंतान होने के कारण “मरुन्दण” कहलाए ! जबकि कश्यप ऋषि के एक पुत्र “हिरण्यकश्यप” के चार पुत्र हुये अनुहल्लाद, हल्लाद, प्रह्लाद और संहल्लाद ! इन्हीं से दैत्य के कुल का साम्राज्य का विस्तार हुआ !

प्रह्लाद विष्णु के मित्र हुये और प्रह्लाद के पुत्र “विरोचन” और उनके पुत्र “राजा बलि” हुये ! जिन्होंने देवताओं से युद्ध कर के सारी पृथ्वी जीत ली तब छल से विष्णु ने देवताओं के रहने के लिये राजा बलि से प्रत्येक देवता के लिये मात्र 3 पग जमीन मांगी जिसे राजा बलि ने दिया ! कालांतर में देवताओं ने इसी का लाभ उठा कर राजा बलि के विरुद्ध विद्रोह खड़ा करवा दिया और राजा बलि को अपना साम्राज्य छोड़ कर जाने के लिये बाध्य कर दिया !

प्राचीन काल में हिमालय से इतर जो भी भाग था उसे धरती और हिमालय के भाग को देव स्थल अर्थात “स्वर्ग” माना जाता था ! हिमालय से तात्पर्य हिम अर्थात “बर्फ का आलय” ! मतलब कि प्रथ्वी में जहाँ कहीं भी बर्फ थी वहां देवता रहते थे इसका मूल कारण उस समय पृथ्वी के वायुमंडल का अत्यंत गर्म होना था !

यूरोप के उत्तरी ध्रुव के निकट जिसे वर्तमान में नार्वे कहते हैं उस क्षेत्र में देवराज इंद्र का निवास स्थान था ! बर्फ क्षेत्र में निवास के कारण बर्फ से पिघले हुये जल को इन्द्र अपनी संपत्ति बतलाता था ! तभी उसे जल का देवता कहा गया है ! इसीलये उसने विश्व के सभी जल स्रोतों पर नियंत्रण कर उन पर बांध बनवा कर उस जल के प्रयोग पर कर (टैक्स) लेने लगा ! किन्तु वैवातास्य मनु जो एक कृषि क्षेत्र के राजा थे, उनसे बवाल तब हुआ जब इन्द्र ने वर्षा के जल को भी अपनी सम्पत्ति बतलाते हुये उस पर भी कर अर्थात टैक्स माँगा ! तब मनु इन्द्र के सभी बांधों को तोड़ कर अपनी किसान प्रजा के साथ भारत में सरयू नदी के तट पर वर्तमान अयोध्या आकर बस गये और अपने को सूर्यवंशी क्षत्री घोषित किया ! क्षत्री का तात्पर्य था क्षेत्र का रक्षक !

कैलाश मानसरोवर जो वर्तमान में चीन के अधिकार क्षेत्र में है उस क्षेत्र में भगवान शिव का निवास स्थान था !

वर्तमान बद्रीनाथ क्षेत्र अर्थात बैकुंठ धाम भगवान विष्णु का क्षेत्र था ! पंजाब में सिरमूरराज्य के पर्वतीय भाग से वर्तमान अफगानिस्तान अर्थात शारदा पीठ का समस्त क्षेत्र ब्रह्मावर्त कहलाता था ! मनुसंहिता से स्पष्ट है कि सरस्वती और दृषद्वती के बीच का समस्त भूभाग ही ब्रह्मा का निवास स्थल “ब्रह्मावर्त” था !

जिसकी मुख्य नदी सरस्वती थी ! ऋग्वेद मे सरस्वती को “नदीतमा” अर्थात “नदियों की माँ” की उपाधि दी गयी है। ऋग्वेद एक शाखा 2.41.16 में इसे “सर्वश्रेष्ठ माँ,सर्वश्रेष्ठ नदी,सर्वश्रेष्ठ देवी” कहकर सम्बोधित किया गया है। यही प्रशंसा ऋग्वेद के अन्य छंदों 6.61,8.81,7.96 और 10.17 मे भी इसका महत्व बतलाया गया है ! ऋग्वेद के श्लोक 7.9.52 तथा 8.21.18 मे सरस्वती नदी को “दूध और घी” से परिपूर्ण बतलाया गया है ! ऋग्वेद के श्लोक 3.33.1 मे इस क्षेत्र में मुख्य व्यवसाय “गाय पालन” बतलाया गया है ! इसीलिये इस क्षेत्र में गाय की अधिकता के कारण सरस्वती नदी को “दूध और घी” से परिपूर्ण नदी बतलाया गया है ! ऋग्वेद के श्लोक 7.36.6 मे सरस्वती को सप्तसिंधु नदियों की जननी भी बतलाया गया है !

कुछ जगह यह भी वर्णन आता है कि ब्रह्मा और उनके कुल के लोग धरती के नहीं थे ! यह दूसरे ग्रह से आये थे इनका विज्ञान प्रथ्वी वासियों से ज्यादा विकसित था ! अत: उन्होंने धरती पर आक्रमण करके मधु और कैटभ नाम के दैत्यों का वध कर धरती पर अपने कुल का विस्तार किया था ! इसीलिये यह लोग ज्ञान, विज्ञान आदि सभी क्षेत्र में पृथ्वी वासियों से आगे थे !

इंद्र का युद्ध सबसे पहले वृत्तासुर से हुआ था ! जो पारस्य (फ़ारस) देश का राजा था ! शास्त्रों के अनुसार वर्तमान ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ क्षे‍त्रों में उस समय असुरों का ही राज था ! इंद्र का अंतिम युद्द शम्बासुर के साथ हुआ था ! महाबली बलि का राज्य दक्षिण भारत में था उसकी राजधानी महाबलीपुरम तमिलनाडु में चेन्नई के निकट थी ! जिसको भगवान विष्णु ने छल द्वारा हड़प लिया तब उसने दक्षिण अमेरिका अर्थात “पाताल लोक” पर नियंत्रण कर वह वहां का राजा बन गया था और उसने अपने अपमान का बदला लेने के लिये भगवान विष्णु का अपरहण करवा लिया और अर्दली द्वारपाल की नौकरी पर रखा !

तब अपने पति भगवान विष्णु को छुड़वाने के लिये लक्ष्मी राजा बलि को अपना भाई माना और प्रथ्वी पर पहली राखी माता लक्ष्मी ने राजा बली को बंधी और भेंट में भगवान विष्णु की आजादी मांगी ! जिस पर राजा बली ने विष्णु को आजाद कर दिया ! तभी से रक्षाबंधन का त्यौहार शुरू हुआ ! आज भी कथा पूजा आदि के बाद कलावा बांधते समय पंडित मंत्र पढ़ते हैं !

“येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:! तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल: !!” अर्थात इसका अर्थ है कि “जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबंधन से मैं तुम्हें बांधता हूं, जो तुम्हारी रक्षा करेगा ! हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो !

असुरों के राजा बलि की चर्चा पुराणों में बहुत होती है ! वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था ! प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बलि का जन्म हुआ ! इस बलि ने ही अमृत मंथन के दौरान सभी असुरों को इकठ्ठा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और देवताओं के साथ मिल कर समुद्र के गर्भ से 14 रत्न निकले थे ! किन्तु देवताओं ने इसको पुनः छल कर इनसे अमृत छीन लिया था !

हालांकि दैत्यों और देवताओं के बीच लड़ाई के कई कारण रहे हैं ! ये दोनों ही एक की कुल एवं वंश के लोग हैं ! दोनों ही ने ब्रह्मा के पास शिक्षा ग्रहण की थी ! लेकिन उस शिक्षा का असर दोनों में भिन्न भिन्न हुआ ! शास्त्रों के अनुसार इंद्र आत्मा को ही सब कुछ मानते थे और असुर शाररिक को ! इस आधार पर दुनिया में योग और भोग दो संस्कृतियों का विकास हुआ ! आगे चलकर इसे ही आस्तिकों और नास्तिकों की विचारधारा का आधार बनया गया !

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

 -: सम्पर्क :-
-090 444 14408
-094 530 92553

Check Also

क्या राम और कृष्ण इतने हल्के हैं : Yogesh Mishra

अभी बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर जी ने राजनीतिक कारणों से रामचरितमानस पर कुछ टिप्पणी …