होली को चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन से पुन: स्थापित किया था ! : Yogesh Mishra

होली शब्द “होला” शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है नई और अच्छी फसल प्राप्त करने के लिये भगवान की पूजा ! वैदिक काल में होली के पर्व को “न्वान्नेष्ठ यज्ञ” कहा जाता था ! इसमें अधपका अन्न (होला) अग्नि को अर्पित करते थे ! होला के कारण त्योहार का नाम “होली” पड़ा ! इसीलिये होलिका दहन पर गेहूं की बालियों को पकाकर उसे प्रसाद के रूप में लिया जाता है !

प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है ! कई रचनाओं में ‘रंग’ नामक उत्सव का वर्णन है ! जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं ! कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही ‘वसन्तोत्सव’ को अर्पित है ! भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है ! चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है !

कालांतर में मुगलों के आक्रमण के बाद यह त्यौहार विलुप्त हो गया ! जिसे चैतन्य महाप्रभु ने मुगलों द्वारा फैलाई गई राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदूओं को एक जुट बनाये रखने के लिये वृंदावन में अपने आश्रम से पुन: प्रारम्भ किया !

जोकि भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है ! आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है !

होली के त्योहार पर होलिका दहन इंगित करता है कि, जो भगवान के प्रिय लोग है उन्हे पौराणिक चरित्र प्रहलाद की तरह बचा लिया जाएगा, जबकि जो भगवान के लोगों से तंग आ चुके है उन्हे एक दिन पौराणिक चरित्र होलिका की तरह दंडित किया जाएगा !

क्योंकि एक पौराणिक कथा के अनुसार प्रह्लाद और होलिका से जुड़ी कथा को बतलायी जाती है ! जिसमें हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को भक्त विष्णु प्रह्लाद का अंत करने के लिए अग्नि में प्रवेश करा दिया था परन्तु होलिका का वरदान निष्फल सिद्ध हुआ और वह स्वयं उस आग में जल कर मर गई ! इसी प्रकार अहंकार की, बुराई की हार हुई और प्रह्लाद की इसी जीत की खुशी में होली का त्यौहार मनाया जाने लगा !

लेकिन विचार कीजिये कि हिरण्यकश्यप जैसे क्रूर शासक के रहते जो अपने पुत्र को ही मार देना चाहता हो ! उसकी बहन होलिका के मरने और उसके दुश्मन पुत्र के जीवित बच जाने पर किसमें इतना साहस होगा कि हिरण्यकश्यप के राज्य में होली का त्यौहार मनाये !

होली का त्यौहार मनाने के पीछे (भारत में पौराणिक कहानी के) कई ऐतिहासिक महत्व और किंवदंतियों रही हैं ! यह कई सालों से मनाया जाने वाला, सबसे पुराने हिंदू त्यौहारों में से एक है ! प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से संबंधित विभिन्न अवशेष पाये गये हैं ! अहमदनगर चित्रों और मेवाड़ चित्रों में 16 वीं सदी के मध्यकालीन चित्रों की मौजूदा किस्में हैं जो प्राचीन समय के दौरान होली समारोह का प्रतिनिधित्व करती है !

चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 1486 की फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है ! इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था ! उस समय बहुत से लोग शुद्धि की कामना से हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान को जा रहे थे ! तब विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी जन्मकुण्डली के ग्रहों और उस समय उपस्थित शगुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की, कि यह बालक जीवन पर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा !

यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे, क्योंकि कहते हैं, कि ये नीम के पेड़ के नीचे मिले थे ! गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे !

इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था ! निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे ! साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे ! इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था ! बहुत कम आयु में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गये थे !

इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया ! निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर राम व कृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे ! 16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ ! सन 1505 में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई ! वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ ! जब यह किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया !

चैतन्य महाप्रभु वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं ! इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया ! उनके द्वारा प्रारंभ किए गये महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है !

उन्होंने ही होली की शुरुआत भारत में मुगलों द्वारा फैलाई गई राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदूओं को एक जुट बनाये रखने के लिये वृंदावन में अपने आश्रम से प्रारम्भ की ! जिसका प्रचार प्रसार कालांतर में राधा नगरी बरसाना से बहुत तेजी से हुआ ! अत: लोग भ्रमवश इसे बरसाना का त्यौहार मानने लगे ! जो आज “होली महोत्सव” मथुरा और वृंदावन में एक बहुत प्रसिद्ध त्यौहार है !

इसीलिये भारत के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले कुछ अति उत्साही लोग मथुरा और वृंदावन में विशेष रूप से होली उत्सव को देखने के लिये आज भी इकट्ठा होते हैं ! मथुरा और वृंदावन महान भूमि हैं जहां, भगवान कृष्ण ने जन्म लिया और बहुत सारी गतिविधियों की ! होली उनमें से एक है ! इस तरह यह होली त्योहारोत्सव चैतन्य महाप्रभु के समय से शुरू किया गया था ! राधा और कृष्ण शैली में होली उत्सव के लिये दोनों स्थान बहुत प्रसिद्ध हैं !

बरसाना में लोग हर साल लट्ठमार होली मनाते हैं, जो बहुत ही रोचक है ! निकटतम क्षेत्रों से लोग बरसाने और नंदगांव में होली उत्सव को देखने के लिये आते हैं ! बरसाना उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में एक शहर है ! लट्ठमार होली, छड़ी के साथ एक होली उत्सव है जिसमें महिलाऍ छड़ी से पुरुषों को मारती है ! यह माना जाता है कि, छोटे कृष्ण होली के दिन राधा को देखने के लिये बरसाने आये थे, जहां उन्होंने उन्हें और उनकी सखियों को छेड़ा और बदले में वह भी उनके द्वारा पीछा किये गये थे ! तब से, बरसाने और नंदगांव में लोग छड़ियों के प्रयोग से होली मनाते हैं जो लट्ठमार होली कही जाती है !

कुछ लोग यह भी मानते हैं कि श्रीकृष्ण को मारने के लिये उस दिन गोकुल में जन्मे सभी शिशुओं की हत्या करने का काम राक्षसी पूतना को सौंपा दिया था ! वह सुंदर नारी का रूप बनाकर शिशुओं को विष का स्तनपान कराने गई लेकिन श्रीकृष्ण ने राक्षसी पूतना का वध कर दिया ! उस दिन फाल्गुन पूर्णिमा थी ! अत: बुराई का अंत हुआ और इस खुशी में होली का त्यौहार मनाया जाने लगा !

जबकि श्रीमद्भागवत तथा महाभारत दोनों में ही होली का वर्णन कहीं नहीं मिलता है !

भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है ! ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है ! बरसाने की लठमार होली काफ़ी प्रसिद्ध है ! इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं ! इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी 15 दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है !

कुमाऊँ की गीत बैठकी में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं ! यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है ! हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है ! बंगाल की दोल जात्रा चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है ! जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है ! इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है !

तमिलनाडु की कमन पोडिगई मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है ! दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया, जो होली का ही एक रूप है !

बिहार का फगुआ जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है ! इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं !

दक्षिणी भारतीय क्षेत्रों में होली के सन्दर्भ में शिव पुराण के अनुसार कथा है कि शिव जी अपनी तपस्या में लीन थे और हिमालय की पुत्री पार्वती भी शिव से विवाह करने के लिए कठोर तप कर रही थीं ! शिव-पार्वती के विवाह से इंद्र का स्वार्थ छिपा था क्योंकि ताड़कासुर का वध शिव-पार्वती के पुत्र के द्वारा होना था ! इसी कारण इंद्र ने शिव जी की तपस्या भंग करने के लिए कामदेव को भेजा परन्तु शिव जी ने क्रोधित होकर कामदेव को भस्म कर दिया था ! लेकिन शिव जी की तपस्या भंग हो गई थी और फिर बाद में देवताओं ने शिव जी को पार्वती से विवाह के लिए राजी कर लिया था ! इस कथा के आधार पर होली को सच्चे प्रेम की विजय के उत्सव के रूप में मनाया जाता है !

पौराणिक कथा में यह भी पाया जाता है कि एक पृथु राजा था, उसके समय में एक ढुंढी नाम की राक्षसी थी ! वह नवजात शिशुओं को खा जाती थी क्योंकि उसको वरदान प्राप्त था कि कोई भी देवता, मानव, अस्त्र या शस्त्र उसे नहीं मार सकेगा ! इसी कारण रजा की प्रजा बहुत परेशान थी ! और तो और ना ही उस पर सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई असर होगा !

तभी राजा के राजपुरोहित ने एक मार्ग बताया उस राक्षसी को खत्म करने के लिए ! फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन जब न अधिक सर्दी होगी और गर्मी, क्षेत्र के सभी बच्चे एक-एक लकड़ी एक जगह पर रखेंगे और जलाएंगे, मंत्र पढ़ेंगे और अग्रि की परिक्रमा करेंगे तो राक्षसी मर जाएगी ! इतने बच्चों को राक्षसी ढुंढी एक साथ देखकर उनके नजदीक आ गई और उसका मंत्रों के प्रभाव से वहीं विनाश हो गया ! तब से भी होली का त्यौहार मनाया जाने लगा !

जबकि इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था ! इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है ! इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र ! नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है ! विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख “न्वान्नेष्ठ यज्ञ” के रूप में किया गया है ! संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं !

सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है ! भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं ! सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं ! अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है ! अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है !

शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था ! इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था ! अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे ! मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है !

इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं ! विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है ! इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है ! 16वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है ! इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है ! साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं ! वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं !

मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं ! उदाहरण के लिए इसमें 17वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है ! शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है ! बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं !

फिर भी होली के त्यौहार का अपने आप में सामाजिक महत्व है, यह समाज में रहने वाले लोगों के लिये बहुत खुशी लाता है ! यह सभी समस्याओं को दूर करके लोगों को बहुत करीब लाता है उनके बंधन को मजबूती प्रदान करता है ! यह त्यौहार दुश्मनों को आजीवन दोस्तों के रूप में बदलता है साथ ही उम्र, जाति और धर्म के सभी भेदभावो को हटा देता है ! एक दूसरे के लिये अपने प्यार और स्नेह दिखाने के लिये, वह अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के लिये उपहार, मिठाई और बधाई कार्ड देते है ! यह त्यौहार संबंधों को पुन: जीवित करने और मजबूती के टॉनिक के रूप में कार्य करता है, जो एक दूसरे को महान भावनात्मक बंधन में बांधता है !

होली का त्यौहार अपने आप में स्वप्रमाणित जैविक महत्व रखता है ! यह हमारे शरीर और मन पर बहुत लाभकारी प्रभाव डालता है, यह बहुत आनन्द और मस्ती लाता है ! होली उत्सव का समय वैज्ञानिक रूप से सही होने का अनुमान है !

यह गर्मी के मौसम की शुरुआत और सर्दियों के मौसम के अंत में मनाया जाता है जब लोग स्वाभाविक रूप से आलसी और थका हुआ महसूस करते है ! तो, इस समय होली शरीर की शिथिलता को प्रतिक्रिया करने के लिये बहुत सी गतिविधियॉ और खुशी लाती है ! यह रंग खेलने, स्वादिष्ट व्यंजन खाने और परिवार के बड़ों से आशीर्वाद लेने से शरीर को बेहतर महसूस कराती है !

होली के त्यौहार पर होलिका दहन की परंपरा है ! वैज्ञानिक रूप से यह वातावरण को सुरक्षित और स्वच्छ बनाती है क्योंकि सर्दियॉ और वसंत का मौसम के बैक्टीरियाओं के विकास के लिये आवश्यक वातावरण प्रदान करता है ! पूरे देश में समाज के विभिन्न स्थानों पर होलिका दहन की प्रक्रिया से वातावरण का तापमान 145 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ जाता है जो बैक्टीरिया और अन्य हानिकारक कीटों को मारता है !

उसी समय लोग होलिका के चारों ओर एक घेरा बनाते है जो परिक्रमा के रूप में जाना जाता है जिस से उनके शरीर के बैक्टीरिया को मारने में मदद करता है ! पूरी तरह से होलिका के जल जाने के बाद, लोग चंदन और नये आम के पत्तों को उसकी राख(जो भी विभूति के रूप में कहा जाता है) के साथ मिश्रण को अपने माथे पर लगाते है,जो उनके स्वास्थ्य को बढ़ावा देने में मदद करता है ! इस पर्व पर रंग से खेलने के भी स्वयं के लाभ और महत्व है ! यह शरीर और मन की स्वास्थता को बढ़ाता है ! घर के वातावरण में कुछ सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करने और साथ ही मकड़ियों, मच्छरों को या दूसरों को कीड़ों से छुटकारा पाने के लिये घरों को साफ और स्वच्छ में बनाने की एक परंपरा है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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