हम सभी जानते हैं कि कृतिम परफ्यूम और इत्र में मूल रूप से बहुत अंतर है | कृतिम परफ्यूम केमिकल से बनाया जाता है और इसमें सुगंध के लिए अनेक तरह के केमिकल या मूल इत्र के कुछ अंश का प्रयोग किया जाता है क्योंकि कृतिम परफ्यूम केमिकल से निर्मित होता है इसलिए यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक होता है | हम यहां पर कृतिम परफ्यूम से अलग विशुद्ध इत्र की चर्चा कर रहे हैं |
सनातन पूजा पद्धति में इत्र का बहुत बड़ा योगदान है | इत्र संगीत की तरह हर ऋतु और काल के लिए अलग-अलग वनस्पति से अलग-अलग पद्धति से निर्मित किया जाता है | हम सभी जानते हैं कि हमारे मस्तिष्क के अंदर 84 लाख तरह के रसायन निकलते हैं, जो हमारे पूरे के पूरे दिनचर्या और जीवन को प्रभावित करते हैं | हमारी सारी सफलता-असफलता इन्हीं मस्तिष्क से निकले हुए रसायनों पर निर्भर करती है | व्यक्ति के अंदर धैर्य—अधीरता, साहस-कायरता, विद्वता-मूर्खता आदि अनेक व्यक्तित्व जनित गुण दोष इन्हीं रसायनों के कारण परिलक्षित होते हैं |
हमारी इंद्रियां जो देखती हैं, सुनती हैं, स्पर्श से एहसास करती हैं, सूंघती हैं, उन सभी की अनुभूति हमारे मस्तिष्क के अंदर होती है और उसी अनुभूति के अनुरूप मस्तिष्क समय-समय पर अलग-अलग तरह के रसायनों का निर्माण करता है |
जब हम पूजा करने बैठते हैं तो उस समय दैनिक दिनचर्या और भागदौड़ की व्यस्तता के कारण हमारा मन मस्तिष्क स्थिर नहीं होता है | अतः हमें पूजा के समय एकाग्रता में मन की गति के कारण बहुत तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है | ऐसी स्थिति में नये साधकों के लिए कृतिम संसाधनों का प्रयोग अनिवार्य बताया गया है | देखने के लिए एक सुंदर भगवान का चित्र होना चाहिये | सुनने के लिए मन लुभावना संगीत (भजन कीर्तन) आदि होना चाहिये |
शरीर पर ढीले-ढाले शरीर के अनुरूप सुखद और सुविधाजनक कॉटन कपड़े से बने हुए वस्त्र होने चाहिए और सुनने के लिए देश, काल, परिस्थिति, ॠतु, पात्र के अनुरूप इत्र होना चाहिये | पूजा के समय अन्य वनस्पतियों की उपस्थिति भी हमारी पूजा के शुरुआती दौर में हमें ईश्वर के निकट ले जाने में सहायक होती हैं | इन सभी विषयों में आज हम बस सिर्फ इत्र पर ही चर्चा करेंगे |
अनादि काल से पूजा या आध्यात्मिक अनुष्ठानों में इत्र का उपयोग भारत ही नहीं चीनी, मिस्रवासी, यूनानी, और रोमियों सहित कई प्राचीन सभ्यताओं में किया जाता था | पहली शताब्दी में लिखे गए अपने डी मटेरिया मेडिका में, इत्र के उपचारीय गुणों के संबंध में समय की मान्यताओं के अनुरूप इत्रों का “डायसोकोरिस” द्वारा वर्णित किया गया है। ग्यारहवीं शताब्दी में आसवन के आविष्कार के बाद आवश्यक इत्रों को दवाओं के रूप में नियोजित किया गया है और अरोमा थरेपी विकसित की गई |
अरोमा थेरेपी आवश्यक तेलों के उपयोग से बीमारी का उपचार या रोकथाम है। अन्य निर्दिष्ट उपयोगों में दर्द और चिंता में कमी, ऊर्जा में वृद्धि और अल्पकालिक स्मृति, विश्राम, बालों के झड़ने की रोकथाम, और एक्जिमा प्रेरित खुजली में कमी शामिल है।
अधिकृत प्रभावों को समझाने के लिए दो बुनियादी तंत्र की पेशकश की जाती है। एक मस्तिष्क पर सुगंध का प्रभाव है और दूसरा आवश्यक इत्र निर्मित तेलों का प्रत्यक्ष भोजन या मालिश द्वारा प्रयोग | जो औषधि की तरह लाभ देती है | इत्र का प्रयोग मस्तक, कान, भुजा, नाभी आदि में पूजा अनुष्ठान के अनुरूप अलग-अलग ॠतु में अलग-अलग पध्यति से प्रयोग करने का विधान है | कुछ पूजा में प्रयोग किये जाने वाले इत्र सुगन्ध का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है उसका वर्णन निम्न है |
चन्दन
इसकी सुगंध तने और टहनियों के काष्ट से प्राप्त होती है | सुगंध चिकित्सा में इसका विशेष प्रयोग होता है | यह अवसाद, चिड़चिड़ापन व भय को शांत करने में सक्षम है, साथ ही व्यग्रता, अनिद्रा, नजला, सर्दी-खासी व अन्य श्वसन रोग विकारों को दूर करने में कारगार है | इससे फोड़े-फुंसी, रूखी त्वता एक्जीमा व मुहांसे भी ठीक हो जाते है |
रोजमेरी
इसके समस्त पौधे में ही सुगंध निहित होती है | कमजोर याद्स्त एकाग्रचितता की कमी व मानसिक थकान में उपयोगी है | मोटापा दूर करने में भी उपयोगी है | साथ ही यह मोच व जोड़ों के दर्द में लाभप्रद व पेट में दर्द, कब्ज दूर करने में कारगार है |
गुलाब
इसकी सुगंध पुष्पों से प्राप्त होती है | यह आँखों की तकलीफ, मुंह में छाले, अल्सर, गले के घाव मितली, कब्जियत, सरदर्द, माइग्रेन व अवसाद के उपचार में उपयोगी है | साथ ही त्वचा की झुर्रियां, एक्जीमा, शवसन व पाचन विकारों में भी सहायक है |
तुलसी
श्वास संबंधी तमाम बीमारियों खासकर खांसी व नजला-जुकाम,अनिद्रा, मानसिक अवसाद, क्षीण स्मरण शक्ति, अनिर्णय, एकाग्रचित्ता की कमी आदि में उपयोगी है |
कपूर
ह्रदय रोग के लिए उत्तम, उच्च व निम्न रक्तचाप में समान रूप से कारगार, कब्ज, अपच, वामन, आंतविकार में उपयोगी, दांत-दर्द, पेट में कीड़े, पित्त विकारों में लाभपद और पैरों में छाले पड़ना, गठिया, मूत्र बांध खोलने में कारगार है |
पिपरमिंट
सर्दी-खांसी, फ्लू, छाती के संक्रमण, गठिया, पीठ दर्द, नाक से रक्तचाप, गले के घाव ठीक करने में सक्षम, पेट के दर्द, मुंह के संक्रमण में लाभदायक है | साथ ही यह माइग्रन के उपचार में भी लाभदायक है |
यूकेलिप्टस
इसकी सुगंध कपूर की गंध के समान, ताजगी भरी तथा तेज होती है- यह बुखार, सर्दी, फ्लू, गले के संक्रमण, गुर्दे के संक्रमण, जोड़ों व मांसपेशियों के दर्द में उपयोगी है | इसके प्रयोग से बंद नाक, नजला व सरदर्द से राहत मिलती है |
(साथी डाक्टर मित्र के विशेष आग्रह पर )