मूर्ति, प्रतिमा और विग्रह में अंतर : Yogesh Mishra

प्राय: लोग मूर्ति, प्रतिमा और विग्रह को एक ही समझते हैं ! लेकिन ऐसा नहीं है, इन तीनों में बहुत अंतर है !

“प्रतिमा” यह एक संस्कृत शब्द है, जिसका मतलब है, किसी देवता या महापुरुष की छवि के अनुरूप यथार्त तुल्य निर्माण करना ! इसमें किसी कल्पना का कोई स्थान नहीं है !

जबकि “मूर्ति” भी एक संस्कृत शब्द है, लेकिन इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति के प्रतिबिम्ब को कल्पना के आधार पर साकार रूप में अभिव्यक्त करना ! यह पूरी तरह से श्रुति या स्मृति की सूचनाओं पर आश्रित कल्पना पर निर्मित होती है !

“विग्रह” यह भी एक संस्कृत शब्द ही है ! जिसका अर्थ है किसी देवता या अदृश्य पवित्र ऊर्जा की छवि का पूर्ण स्वरूप के साथ चित्रण करना ! यह एक बहुत कठिन कार्य है ! जिसे हिंदू धर्म में भगवान के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है !

भारत में मूर्तियां बनाने का रिवाज अनादि काल से है ! इसको लेकर भारतीय समाज का एक विशेष वर्ग कई पीढ़ियों से इस कार्य को करता चला आ रहा है ! उसे समाज में मूर्तिकार का दर्जा दिया गया है !

यह मूर्तिकार अलग-अलग पदार्थों से मूर्ति का निर्माण करते हैं ! जैसे सोना, चांदी, पीतल, अष्ट धातु, पंचधातु, लोहा, लकड़ी, मिट्टी आदि आदि ! इस तरह अनेक तरह के पदार्थों से भारतीय समाज में अनादि काल से मूर्तियों का निर्माण होता चला आ रहा है ! भिन्न-भिन्न प्रकार की मूर्तियां, भिन्न-भिन्न पध्यतियों से निर्मित होती हैं ! जिसमें मूर्ति निर्माता की कल्पना ऊर्जा और उसके आठ चक्रों की ऊर्जा का समावेश होता है !

मूर्ति कला एक ऐसा विज्ञान है, जिसके द्वारा उन मूर्तियों में सकारात्मक ऊर्जाओं को इस तरह पिरोया जाता है कि जिस घर में वह मूर्ति रहती हैं ! उस घर के लोगों पर उस मूर्ति की ऊर्जा का असर दिखाई देता है ! इसीलिये मूर्ति निर्माण कार्य शुभ महूर्त में किया जाता है ! जो जीवन को बेहतर बनाती है !

इसी तरह मंदिरों की संरचना का वास्तु भी पूरी तरह वैज्ञानिक है ! यहां वर्तमान समय में बन रहे अव्यवस्थित मंदिरों का जिक्र नहीं है बल्कि प्राचीन समय में महूर्त और वास्तु के अनुसार निर्मित मंदिरों की बात हो रही है !

प्राचीन समय मंदिर बनाने का उद्देश्य केवल मूर्ति पूजा से लाभ कमाने तक ही सीमित नहीं था ! न ही उस समय मूर्ति पूजन कोई व्यवसाय था ! इसके अलावा परिक्रमा करने का स्थान, गर्भ गृह आदि के वास्तु का अपना बहुत महत्वपूर्ण स्थान था !

प्राचीन समय में कभी भी यह नहीं कहा जाता था कि हमें मंदिर जाकर मूर्ति की पूजा करनी चाहिए और दान करना चाहिए ! यह तो भौतिकवाद से ग्रस्त आज के दौर का सिस्टम बन गया है !

पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार हमें मंदिर में जाकर कुछ देर बैठना चाहिए और ध्यान करने की कोशिश करनी चाहिए ! इससे मंदिर की सीमा में मौजूद सकारात्मक शक्तियां हमारे शरीर और मस्तिष्क में प्रवेश करती है !किसी नए काम को शुरू करने से पहले या किसी स्थान पर जाने से पहले यह कहा जाता है कि मंदिर के दर्शन अवश्य करने चाहिए !

इसके पीछे मान्यता यह है कि मंदिर के वातावरण में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा आपके मस्तिष्क को स्वच्छ और सजीव कर, आपको सही दिशा में सोचने में सहायक हैं ! वास्तविक रूप में मंदिरों का निर्माण किसी देवस्थल के रूप में पूजा या दान-पुण्य के लिए नहीं किया गया था ! यह तो ऊर्जा को एकत्रित करने के उद्देश्य से बनाए जाते थे !

इसीलिए जिन लोगों ने भी मूर्ति विज्ञान को विकसित किया था ! उन लोगों ने जीवन के परम रहस्य के प्रति सेतु को निर्मित किया था ! जो सामान्य पूजा घटित होती है, मूर्ति में समाहित हो जाती है ! मूर्ति सिर्फ प्रारंभ है ! जैसे ही पूजा शुरू होती है ! धीरे धीरे भक्त के लिये समर्पण बढाने पर भगवान की मूर्ति उपासना में खो जाती है !

और पूजा के दौरान जिस भक्त के लिये मूर्ति नहीं खो रही है ! इसका मतलब उसके निष्ठा और समर्पण में अभी कहीं कोई कमी है ! तभी वह अपने को मूर्ति से अलग महसूस कर रहा है ! यह द्वैत साधना है !

और जब संपूर्ण समर्पण के समय भक्त और मूर्ति एक हो जाती है ! तब दोनों का साधना की पराकाष्ठा पर एक हो जाना ही अद्वैत समाधि है ! जो भक्त के साधना की सर्वोच्च अवस्था है !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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