हिन्दुओं का धर्मान्तरण करवाने वालों का गढ़ है केरल ? Yogesh Mishra

केरल में आई बाढ़ को लेकर केंद्र की सत्ता राज्य के मदद के लिए मुंह मांगी रकम देने को तैयार है | इसके साथ ही अनेकों अनेक सामाजिक संगठन, बैंक और विभिन्न विभाग के लोग भी केरल की मदद के लिए अपने वेतन तक को कटवाकर मदद देने को तैयार हैं |

इंटरनेट को खोलते ही Google से लेकर Paytm तक सभी केरल की मदद के लिए कटोरा लेकर भीख मांगना शुरू कर देते हैं | हर विधर्मी व्यक्ति को केरल में आई बाढ़ के लिए मदद करने के लिए प्रेरित करने के हेतु चर्चाओं में, मस्जिदों में और धर्म सभाओं के मध्य मदद का आग्रह किया जा रहा है | निसंदेह केरल भारत का अभिन्न अंग है लेकिन आखिरकार केरल में वह कौन सी खासियत है जिसके लिए पूरा का पूरा विश्व ईसाई और मुस्लिम देश और भारत के सभी सामाजिक संगठन (जो विदेशों से सहायता प्राप्त करते हैं) मदद करने के लिए लालायित दिखाई दे रहे हैं | यह लोग कभी उत्तर प्रदेश, बिहार या बंगाल की बाढ़ के लिए इतने आतुर नहीं दिखे |

बहुत गहराई से आप जाएंगे तो आपको पता चलेगा यह मदद केरल के भारतीय निवासियों को नहीं बल्कि भारत के अंदर धर्मांतरण कराने वाले ईसाई और मुसलमानों के गिरोहों की रक्षा को करने की गुहार है | आपको यह जानकर हैरानी होगी कि केरल में 70% से अधिक ईसाई, मुसलमान व अन्य गैर हिन्दू रहते हैं और जो भारत में हिंदुओं के विरुद्ध धर्मांतरण का अभियान चलते हैं | इन सभी धर्मांतरण केन्दों के अधिकांश मुख्यालय इसी केरल में स्थापित हैं |

आजकल आप देख रहे होंगे कि पिछले 15 दिनों से देशभर में धर्मांतरण के सारे अभियान बंद कर दिए गए हैं क्योंकि धर्मांतरण करने वालों के आका जो केरल में बैठे हैं वह इस समय प्राकृतिक आपदा की चपेट में है | भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई के शव की अग्नि अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि देश के मुख्य चौकीदार केरल की हवाई यात्रा पर निकल गये और वे भी केरल को मदद करने के लिए उतावले दिखाई दे रहे हैं | इस विषय में एक विस्तृत विश्लेषणात्मक लेख मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं | आप स्वयं निर्णय कीजिये कि भारत का विनाश चाहने वाले ईसाई और मुस्लिम संप्रदाय के लोग जो केरल के अंदर से पूरे के पूरे देश के अंदर धर्मांतरण के केंद्र चला रहे हैं क्या उन्हें की मदद की जानी चाहिये |

केरल में आज़ादी के बाद से ही यहाँ दो प्रमुख गठबन्धन शासन में रहे हैं | कांग्रेस गठबन्धन और वामपंथी गठबन्धन। हमेशा से इन गठबन्धनों में चर्च और मुस्लिम लीग की भूमिका हमेशा अहम रही है, उम्मीदवारों के चयन से लेकर सरकार की नीतियों को प्रभावित करने तक में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है । आज की तारीख में केरल में अर्थव्यवस्था, शिक्षा, कृषि, ग्रामीण और शहरी भूमि, वित्तीय संस्थानों और सरकार के सत्ता केन्द्रों में ईसाईयों और मुसलमानों का वर्चस्व और बोलबाला है। यदि सरकार, निगमों, अर्ध-सरकारी संस्थानों, विश्वविद्यालयों और सरकारी नियन्त्रण में स्थापित उद्योगों में कर्मचारियों का अनुपात देखें तो साफ़ तौर पर चर्च और मुस्लिम-लीग का प्रभाव दिखाई देता है।

खाडी के देशों से आने वाले पैसे (चाहे वह वहाँ काम करने वाले मलयाली लोगों ने भेजे हों अथवा मुस्लिम लीग और मदनी को चन्दे के रूप में मिले हों) ने समूचे केरल में जिस प्रकार की अर्थव्यवस्था खड़ी कर दी है, उसमें हिन्दुओं की कोई भूमिका अब नहीं बची है। ज़ाहिर है कि यह स्थिति कोई रातोंरात निर्मित नहीं हो गई है, गत 60 साल से दोनों गठबन्धनों के राजनेताओं और विदेशी पैसे का उपयोग करके चर्च और मुस्लिम लीग ने अपनी ज़मीन मजबूत की है।

लोकतन्त्र के दायरे में रहकर किस प्रकार अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करना है यह चर्च और मुस्लिम लीग से सीखना चाहिये, उम्मीदवार चयन से ही उनका दखल प्रारम्भ हो जाता है, विदेश से चर्च के लिये तथा खाड़ी देशों से मुस्लिम लीग के लिये भारी मात्रा में आया हुआ पैसा इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, इनके चुने हुए उम्मीदवार जीतने के बाद इन्हीं की जी-हुजूरी करते हैं इसमें कहने की कोई बात ही नहीं है। समूचे केरल में हिन्दू (पूरे देश की तरह ही) बिखरे हुए और असंगठित हैं, उनके पास चुनाव में वोट देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, न ही नीति-निर्माण में उनकी कोई बात सुनी जाती है, न ही उनकी समस्याओं के निराकरण में। केरल में हिन्दुओं की कोई “राजनैतिक ताकत” नहीं है [देश में ही नहीं है], जल्दी ही पश्चिम बंगाल और असम भी इसी रास्ते पर कदम जमा लेंगे, जहाँ हिन्दुओं की कोई सुनवाई नहीं होगी (कश्मीर तो काफ़ी समय पहले ही हिन्दुओं को लतियाकर भगा चुका है)।

फ़िलहाल केरल में जनसंख्या सन्तुलन की दृष्टि से देखें तो लगभग 30% ईसाई, लगभग 30% मुस्लिम और 10% हिन्दू हैं, बाकी के 30% किसी धर्म के नहीं है यानी वामपंथी है (यानी बेपेन्दे के लोटे हैं) जो जब मौका मिलता है, जिधर फ़ायदा होता उधर लुढ़क जाते हैं चाहे चुनावों में मदनी जैसे धर्मनिरपेक्ष(?) का साथ देना हो अथवा चर्च से चन्दा ग्रहण करना हो।

केरल में मलाबार देवासोम कानून हो अथवा सबरीमाला के मन्दिर के प्रबन्धन का नियन्त्रण अपने हाथ में लेना हो, सारे कानून और अधिसूचनायें ईसाई और मुस्लिम अधिकारी/विधायक मिलजुलकर पास कर लेते हैं। वामपंथी दोगलेपन की हद देखिये कि इन्हें हिन्दू मन्दिरों से होने वाली आय में से राज्य के विकास के लिये हिस्सा चाहिये, लेकिन चर्च अथवा मदरसों को मिलने वाले चन्दे के बारे में कभी कोई हिसाब नहीं मांगा जाता।

यही दोगलापन बंगाल में नवरात्र के दौरान काली पूजा के पांडालों में अपने-आप को “नास्तिक” कहने और धर्म को “अफ़ीम” का दर्जा देने वाले वामपंथी नेताओं की उपस्थिति से प्रदर्शित होता है। धीरे-धीरे देश के कई मन्दिरों का प्रबन्धन और कमाई सरकारों ने अपने हाथ में ले ली है और इस पैसे का उपयोग मदरसों और चर्च को अनुदान देने में भी किया जा रहा है। आज की तारीख में केरल विधानसभा का एक भी विधायक खुलेआम हिम्मत से “हाँ, मैं हिन्दू हूँ…” कहने की स्थिति में नहीं है। ग्रामीण और शहरी इलाकों में कालोनियाँ और सोसायटी चलाने वाले ईसाई-मुस्लिम गठजोड़ को आसानी से कौड़ियों के दाम ज़मीन मिल जाती है। हिन्दुओं के पक्ष में आवाज़ उठाने वाले हिन्दू मुन्नानी, विश्व हिन्दू परिषद एवं संघ कार्यकर्ताओं पर मराड तथा कन्नूर जैसे रक्तरंजित हमले किये जाते हैं और पुलिस आँखें मूंद कर बैठी रहती है, क्योंकि हिन्दू न तो संगठित हैं न ही “वोट बैंक”। केरल से निकलने वाले 14 प्रमुख अखबारों में से सिर्फ़ एक अखबार मालिक हिन्दू है, जबकि केबल नेटवर्क के संगठन पर माकपा के गुण्डे कैडर का पूर्ण कब्जा है।

यह तो हुई आज की स्थिति, भविष्य की सम्भावना क्या बनती है इस पर भी एक निगाह डाल लें। यह बात सर्वविदित है कि धर्मान्तरण में चर्च और विदेशी पैसे की भूमिका बेहद अहम है, लेकिन भारत में मुसलमानों के मुकाबले ईसाइयों ने अधिक चतुराईपूर्ण तरीके से धर्म-परिवर्तन करके अपनी जनसंख्या बढ़ाने का काम किया है। जहाँ एक तरफ़ मुस्लिमों ने अपनी खुद की आबादी बढ़ाकर, पाकिस्तानी या बांग्लादेशियों की मदद से अथवा जोर-जबरदस्ती से धर्म परिवर्तन और जनसंख्या बढ़ाई वहीं दूसरी ओर ईसाई अधिक चालाक हैं, पहले उन्होंने स्वास्थ्य और शिक्षा संस्थानों के जरिये समाज में अपनी “इमेज” एक मददगार के रूप में मजबूत की (इस इमेज निर्माण में उन्हीं द्वारा दिये गये पैसों पर पलने वाले मीडिया का रोल प्रमुख रहा)।

गाँव-गाँव तथा जंगलों के आदिवासी इलाकों में पहले अस्पताल और शिक्षा संस्थान खोलकर चर्च की इमेज बनाई गई। फ़िर अगले चरण में कभी बहला-फ़ुसलाकर तो कभी धन का लालच देकर गरीबों और आदिवासियों द्वारा चुपके से ईसाई धर्म स्वीकार करवा लिया। मुसलमानों की तरह ईसाईयों ने धर्म परिवर्तित व्यक्ति का नाम बदलने की जिद भी नहीं रखी (जैसे कि बहुत से लोगों को तब तक पता नहीं था कि YS राजशेखर रेड्डी एक ईसाई हैं, जब तक कि उनको दफ़नाने की प्रक्रिया शुरु नहीं हुई, इसी प्रकार उनका दामाद अनिल, कट्टर एवेंजेलिकल ईसाई है और दोनों ने मिलकर तिरुपति मन्दिर के आसपास चर्चों का जाल बिछा दिया हैं)। इस्लाम ग्रहण करते ही यूसुफ़ योहाना को मोहम्मद यूसुफ़ अथवा चन्द्रमोहन को चांद मोहम्मद बनना पड़ा हो, लेकिन ईसाईयों ने हिन्दू नाम यथावत ही रहने दिये (एक रणनीति के तहत फ़िलहाल ही), जैसे अनिल विलियम्स, मनीषा जोसफ़, विनय जॉर्ज आदि, बल्कि कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा नाम ही हिन्दू है, लेकिन असल में वह ईसाई बन चुका होता है। चर्च ने शुरुआती तौर पर धर्म-परिवर्तित लोगों को घरों से हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र निकाल फ़ेंकने पर भी ज़ोर नहीं दिया है, बस “पवित्र जल” छिड़ककर, दुर्गा मैया के फ़ोटो के पास ही बाइबल और क्रास भी रख छोड़ा है।

“फ़िलहाल” का मतलब यह है कि धर्म परिवर्तन करवाने वाले ईसाई संगठनों को अच्छी तरह पता है कि भले ही वह व्यक्ति इस पीढ़ी में “विनय जॉर्ज” रहे, और दुर्गा और बाइबल दोनों को एक साथ रखे रहे, लेकिन उसके लगातार चर्च में आने, और चर्च साहित्य पढ़ने से उसकी अगली पीढ़ी निश्चित ही “विन्सेंट जॉर्ज” होगी, और एक बार किसी खास इलाके, क्षेत्र या राज्य का जनसंख्या सन्तुलन चर्च के पक्ष में हुआ कि उसके बाद ही तीसरा चरण आता है जोर-जबरदस्ती करने, अलग राज्य की मांग करने और भारत सरकार को आँखें दिखाने का (उदाहरण त्रिपुरा, नागालैंड और मिजोरम)। कहने का तात्पर्य यह कि ईसाई संगठन और चर्च, मुसलमानों के मुकाबले बहुत अधिक शातिर तरीके और ठण्डे दिमाग से काम ले रहे हैं।

कश्मीर में इस्लाम के नाम पर, हिन्दुओं को लतियाकर और भगाकर, जो स्थिति जोर-जबरदस्ती से बनाई गई है, लगभग अब वैसा ही कुछ उत्तर-पूर्व के राज्यों में ईसाईयत के नाम पर होने जा रहा है, जहाँ कम से कम 20 उग्रवादी संगठनों को चर्च का खुला संरक्षण हासिल है। प्रथम अश्वेत आर्चबिशप डेसमंड टूटू का वह बहुचर्चित बयान याद करें, जिसमें उन्होंने कहा था कि “जब अफ़्रीका में चर्च आया तब हमारे पास ज़मीन थी और उनके पास बाइबल। चर्च ने स्थानीय आदिवासियों से कहा आँखें बन्द करके प्रभु का ध्यान करो, चंगाई होगी… और जब हमने आँखें खोलीं तब हमारे हाथ में सिर्फ़ बाइबल थी, सारी ज़मीन उनके पास…”।

केरल में अगले कुछ वर्षों में यही स्थिति बनने वाली है कि हिन्दू जो कि पहले ही कमजोर हो चुके हैं, लगभग बाहर धकियाये जा चुके होंगे तथा “सत्ता पर पकड़” और अपना “वर्चस्व” स्थापित करने के लिये मुस्लिमों और चर्च के बीच संघर्ष होगा। ऐसी स्थिति में वामपंथियों को “किसी एक” का साथ देने के लिये मजबूर होना ही पड़ेगा। क्योंकि दोनों ही धर्म भले ही अपने-आप को कितना ही “सेवाभावी” या “परोपकारी” बतायें, विश्व का ताजा इतिहास बताता है कि सबसे अधिक संघर्ष इन्हीं दो धर्मों के बीच हुआ है, कोई इसे “जेहाद” का नाम देता है, कोई इसे “क्रूसेड” का। जो भी धर्म जहाँ भी बहुसंख्यक हुआ है वहाँ उसने “अल्पसंख्यकों” पर अत्याचार ही किये हैं, हिन्दू धर्म को छोड़कर। भारत से यदि किसी राज्य को अलग करना हो, तो सबसे आसान तरीका है कि उस राज्य में साम-दाम-दंड-भेद की नीतियाँ अपना कर हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बना दो, बस अपने-आप अलगाववादी मांग उठने लगेगी, और यह केवल संयोग नहीं हो सकता कि पश्चिम बंगाल और असम दोनों सीमावर्ती राज्य हैं, जहाँ मुस्लिम-ईसाई आबादी की तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। केरल भी इसी रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ रहा है, सिर्फ़ यह देखना बाकी है कि केरल के इस ईसाई-मुस्लिम संघर्ष की स्थिति में जीत किसकी होती है, क्योंकि वैसे भी हिन्दुओं ने आज तक देखते और सहते रहने के अलावा किया भी क्या है?

यही मुख्य कारण है जो केरल को लेकर इतना छाती पीटी जा रही है |

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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