महामृत्युंजय साधना की पूर्ण विधि | Yogesh Mishra

मत्यु एक ऐसा भयावह शब्द है, जिसका नाम सुनते ही शरीर में सिहरन दौड़ जाती है। किंतु यह भी एक शाश्‍वत् सत्य है कि मृत्यु एक दिन सभी को आनी है। लेकिन दुःखद स्थिति तब उत्पन्न हो जाती है जब किसी की अकाल मृत्यु होती है। यह अकाल मृत्यु किसी घातक रोग या दुर्घटना के कारण होती है। इससे बचने का एक ही उपाय है – महामृत्युंजय साधना। यमराज के मृत्युपाश से छुड़ाने वाले केवल भगवान मृत्युंजय शिव ही हैं जो अपने साधक को दीर्घायु देते हैं।

महामृत्युंजय शिव षड्भुजा धारी हैं, जिनमें से चार भुजाओं में वे अमृत कलश रखते हैं, अर्थात् वे अमृत से स्नान करते हैं, अमृत का ही पान करते हैं एवं अपने भक्तों को भी अमृत पान कराते हुए अजर-अमर कर देते हैं। इनकी शक्ति भगवती अमृतेश्‍वरी हैं। महामृत्युंजय मंत्र का भावार्थ यह है कि हे भगवान त्र्यम्बक शिव! मैं अपने जीवन में पूर्ण पुष्टि, आरोग्यता प्राप्त करूं और अपने जीवन में पुष्टि, वृद्धि के साथ जीवन के बंधन से मुक्त रहूं और मेरी जीवन यात्रा में मेरी काया सदैव निरोगी रहे।

महामृत्युंजय साधना मात्र मंत्र का जाप नहीं है ! प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम्‌ अर्थात्‌ ज्योतिष प्रत्यक्ष शास्त्र है। फलित ज्योतिष में महादशा एवं अन्तर्दशा का बड़ा महत्व है। वृहत्पाराशर होराशास्त्र में अनेकानेक दशाओं का वर्णन है। आजकल विंशोत्तरी दशा का प्रचलन है। मारकेश ग्रहों की दशा एवं अन्तर्दशा में महामृत्युंजय प्रयोग फलदायी है।

जन्म, मास, गोचर, अष्टक आदि में ग्रहजन्य पीड़ा के योग, मेलापक में नाड़ी के योग, मेलापक में नाड़ी दोष की स्थिति, शनि की साढ़ेसाती, अढय्या शनि, पनौती (पंचम शनि), राहु-केतु, पीड़ा, भाई का वियोग, मृत्युतुल्य विविध कष्ट, असाध्य रोग, त्रिदोषजन्य महारोग, अपमृत्युभय आदि अनिष्टकारी योगों में महामृत्युंजय प्रयोग रामबाण औषधि है।

शनि की महादशा में शनि तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, केतु में केतु तथा गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, रवि की महादशा में रवि की अनिष्टकारी अंतर्दशा, चन्द्र की महादशा में बृहस्पति, शनि, केतु, शुक तथा सूर्य की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, राहु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, शुक्र की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अन्तर्दशा, मंगल तथा राहु की अन्तर्दशा, गुरु की महादशा में गुरु की अनिष्टकारी अंतर्दशा, बुध की महादशा में मंगल-गुरु तथा शनि की अनिष्टकारी अन्तर्दशा आदि इस प्रकार मारकेश ग्रह की दशा अन्तर्दशा में सविधि मृत्युंजय जप, रुद्राभिषेक एवं शिवार्जन से ग्रहजन्य एवं रोगजन्य अनिष्टकारी बाधाएँ शीघ्र नष्ट होकर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।

उपर्युक्त अनिष्टकारी योगों के साथ ही अभीष्ट सिद्धि, पुत्र प्राप्ति, राजपद प्राप्ति, चुनाव में विजयी होने, मान-सम्मान, धन लाभ, महामारी आदि विभिन्न उपद्रवों, असाध्य एवं त्रिदोषजन्य महारोगादि विभिन्न प्रयोजनों में सविधि प्रमाण सहित महामृत्युंजय जप से मनोकामना पूर्ण होती है।

ऋषि-मुनियों ने महामृत्युंजय मंत्र को वेद का हृदय कहा है। चिंतन और ध्यान के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।

महामृत्युंजय मंत्र का स्वरूप और भाव-

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

शिव के सूर्य, चंद्र एवं अग्नि के प्रतीक त्रिनेत्रों के कारण उन्हें त्र्यम्बकं कहा गया है। त्र्यम्बकं शिव के प्रति यज्ञ आदि कर्मों से संबंध जोड़ते हुए स्वयं को समर्पित करने की प्रक्रिया यजामहे है। जीवनदायी तत्वों को अपना सुगंधमय स्वरूप देकर विकृति से रक्षा करने वाले शिव सुगंधिम् पद में समाहित हैं। पोषण एवं लक्ष्मी की अभिवृद्धि करने वाले शिव पुष्टिकर्ता अर्थात् पोषण कर्ता तथा वर्धनम् अर्थात् वृद्धिकर्ता, उन्नतिप्रदायक एवं विस्तार करने वाले हैं। रोग एवं अकालमृत्यु रूपी बंधनों से मुक्ति प्रदान करने वाले मृत्युंजय उर्वारुकमिव बंधनात पद में समाहित हैं। तीन प्रकार की मृत्यु से मुक्ति पाकर अमृतमय शिव से एकरूपता की याचना मृत्योर्मुक्षीय मामृतात पद में है।

त्र्यंबकम् मंत्र के 33 अक्षर हैं जो महर्षि वशिष्ट के अनुसार 33 देवताओं के द्योतक हैं। उन तैंतीस देवताओं में 8 वसु 11 रुद्र और 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 षट्कार हैं। इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियां महामृत्युंजय मंत्र में निहीत होती हैं जिससे महामहामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही है। साथ ही वह आरोग्य, ऐश्वर्य युक्त धनवान भी होता है। महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सुखी एवं समृद्धिशाली होता है। भगवान शिव की अमृतमयी कृपा उस पर निरन्तर बरसती रहती है।

महामृत्युंजय साधना के विशेष तथ्य –

1. अनुष्ठान शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में करना चाहिए।
2. इस अनुष्ठान को प्रारम्भ करते समय सामने भगवान शंकर का चित्र स्थापित करना चाहिए और साथ ही साथ, भक्ति भावना भी रखनी चाहिए।
3. जहां जप करें, वहां का वातावरण सात्विक हो तथा नित्य पूर्व दिशा की ओर मुंह करके साधना या मंत्र जप प्रारम्भ करना चाहिए।
4. जप करते समय घी का दीपक जलते रहना चाहिए।
5. इसमें रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करना चाहिए तथा ऊन का आसन बिछाना चाहिए।
6. पूरे साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
7. यथाशक्ति एक समय भोजन करना चाहिए।
8. अनुष्ठान करने से पूर्व मंत्र को संस्कारित करके ही पुरश्‍चरण करना चाहिए।
9. नित्य निश्‍चित संख्या में मंत्र जप करना आवश्यक है, कभी कम, कभी अधिक करना ठीक नहीं है।
10. शास्त्रों के अनुसार भय से छुटकारा पाने के लिए इस मंत्र का 1100 जप, रोगों से छुटकारा पाने के लिए 11,000 जप तथा पुत्र प्राप्ति, उन्नति एवं अकाल मृत्यु भय समाप्ति हेतु 1,00,000 जप का विधान है।

धर्म शास्त्रों में मंत्र शक्ति से रोग निवारण एवं मृत्यु-भय दूर करने तथा अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की जितनी साधनाएं उपलब्ध हैं, उनमें महामृत्युञ्जय साधना का स्थान सर्वोच्च है।

साधना विधान

इस विशेष साधना में ‘महामृत्युंजय यंत्र’ तथा ‘तीन मधुरूपेण रुद्राक्ष’, ‘रुद्राक्ष माला’ आवश्यक है। इसके अतिरिक्त साधना को साधक पूर्ण भक्ति से साधना प्रारम्भ करे, अपने सामने एक पात्र में ‘महामृत्युजंय यंत्र’ स्थापित कर, तीनों मधुरूपेण रुद्राक्ष सामने रखें और फिर दोनों हाथों की अंजलि में पुष्प लेकर शिव का ध्यान करें।

हस्ताभ्यां कलशद्वयामृत रसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहन्तं परम्।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलाशकान्तं शिवं,
स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे॥

अर्थात् दो हाथों से दो अमृत घटों द्वारा अपने ही सिर पर अभिषेक करते हुए मृग चर्म तथा रुद्राक्ष माला को धारण किये हुए और अन्य दो हाथों में अमृत से परिपूर्ण दो कुम्भ अपनी गोद में रखे हुए कैलाश पर्वत के समान और सुवर्ण, स्वच्छ आसन पर विराजमान नवीन चन्द्रमायुक्त मुकुट वाले, त्रिनेत्र भगवान मृत्युंजय शिव का मैं स्मरण करता हूं।

इसके बाद हाथ में जल लेकर विनियोग करें –

विनियोग –

अस्य श्री त्र्यम्बक मंत्रस्य वशिष्ठ ॠषिः अनुष्टुप् छन्दः, त्र्यम्बक पार्वति पतिर्देवता त्रं बीजं, बं शक्तिः, कं कीलकं, मम सर्व रोग निवृत्तये सर्व कार्य सिद्धये अकाल मृत्यु निवृत्तये महामृत्युंजय त्र्यम्बक मंत्र जपे विनियोगः॥

तत्पश्‍चात् हाथ का जल भूमि पर छोड़ दें।

ॠष्यादिन्यास –

ॐ वशिष्ठ ॠषये नमः (शिरसे)
ॐ अनुष्टुप् छन्दसे नमः (मुखे)
ॐ त्र्यम्बकं देवतायै नमः (हृदये)
ॐ त्रं बीजाय नमः (गुह्ये)
ॐ बं शक्तये नमः (पादयोः)
ॐ कं कीलकाय नमः (नाभौ)
ॐ विनियोगाय नमः (सर्वांगे)॥

करन्यास –

ॐ त्र्यम्बकं (अंगुष्ठाभ्यां नमः)
ॐ यजामहे (तर्जनीभ्यां नमः)
ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् (मध्यमाभ्यां नमः)
ॐ उर्वारुकमिव बन्धनान् (अनामिकाभ्यां नमः)
ॐ मृत्योर्मुक्षीय (कनिष्ठिकाभ्यां नमः)
ॐ मामृतात् (करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः)

हृदयन्यास –

ॐ त्र्यम्बकं (हृदयाय नमः)
ॐ यजामहे (शिरसे स्वाहा)
ॐ सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् (शिखायै वषट्)
ॐ उर्वारुकमिव बन्धनान् (कवचाय हुं)
ॐ मृत्योर्मुक्षीय (नेत्र त्रयाय वौषट्)
ॐ मातृतात् (अस्त्राय फट्)

इस क्रिया के पश्‍चात् महामृत्युंजय यंत्र का पंचोपचार पूजन करें तथा महामृत्युंजय यंत्र के साथ तीनों मधुरूपेण रुद्राक्ष पर भी केसर से तिलक करें और इन्हें यंत्र के सामने स्थापित कर दें। तीन मधुरुपेण रुद्राक्ष सुगन्धी, पुष्टि और वर्धन शक्ति का स्वरूप है। अब रुद्राक्ष माला को अपने हाथ में लें और यह प्रार्थना करें कि – हे सदाशिव! ये रुद्राक्ष आपका स्वरूप है मैं साधक (अपना नाम बोलें) आपका लघु स्वरूप हूं। जिस प्रकार आपने सर्पमाला एवं रुद्राक्ष माला धारण की हुई है और यह रुद्राक्ष सभी बंधनों से मुक्ति देने वाला, रोग हरने वाला है इसे मैं मंत्र जप द्वारा चैतन्य कर धारण करता हूं।’

महामृत्युंजय साधना मंत्र

ह्रौं जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् स्वः भुवः भूः सः जूं ह्रौं ॥

इसके पश्‍चात् महामृत्युंजय मंत्र जप की (4) माला जप करें। सोमवार के दिन महामृत्युजंय मंत्र जप अवश्य करना चाहिए। इस प्रकार नित्य प्रति (4) माला जप कर ग्यारह हजार मंत्र जप का अनुष्ठान होता है। कई शास्त्रों में सवा लाख मंत्र जप का भी विवरण आया है।

नित्य प्रति की साधना के लिये महामृत्युंजय का लघुतम मंत्र अवश्य जपना चाहिये। जब आप सुबह पूजा करें तो इस रुद्राक्ष माला को हाथ में लेकर 21 बार लघु महामृत्युजंय जप अवश्य करना चाहिये।

महामृत्युञ्जय का लघुतम मंत्र इस प्रकार है –

॥ ॐ ह्रौं जूं सः ॥

अनुष्ठान पूर्ण होने पर निम्न मंत्र से समर्पण प्रार्थना भगवान् मृत्युंजय को ‘बिल्व पत्र’ समर्पित करना चाहिए –

॥ॐ ह्रौं ह्रीं जूं सः नमः शिवाय प्रसन्न पारिजाताय स्वाहा॥

अनुष्ठान पूर्ण होने के पश्‍चात् महामृत्युंजय यंत्र तथा रुद्राक्ष माला को नदी में प्रवाहित अवश्य करें। वस्तुतः यह साधना आरोग्यता प्राप्त करने की और किसी भी प्रकार की तंत्र बाधा हो उसे समाप्त करने की साधना है।

महामृत्युंजय प्रयोग के लाभ

अपने बालकों की बीमारी से रक्षा के लिये महामृत्युंजय साधना करें, अपने शरीर से रोग बाधा निवारण हेतु महामृत्युंजय साधना करें । प्रत्येक प्रकार की तंत्र बाधा की शांति हेतु महामृत्युंजय साधना करें।

समस्त पाप एवं दु:ख भय शोक आदि का हरण करने के लिए महामृत्युंजय साधना ही श्रेष्ठ है।

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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