ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक विज्ञान का सहयोग | Yogesh Mishra

ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक विज्ञान का सहयोग

प्राचीन काल से अद्यावधि मनुष्य का ज्ञान निरन्तर विकसित हुआ है ! वैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर उपलब्ध साधन सुविधाओं की बात छोड़ भी दें तो मनुष्य का ज्ञान ही अकेले इतना विकसित हुआ है कि वह उस अर्जित सम्पदा के बल पर विकसित होता जा रहा है ! ज्ञान के विकास की यह प्रक्रिया निरन्तर अबाध गति से चल रही है और इस विकास के कारण कई प्राचीन कालीन धारणाएं टूटी हैं तथा नये सत्य सामने आए हैं ! उदाहरण के लिए अति प्राचीनकाल में यह समझा जाता था कि धरती एक फर्श की तरह है, उस पर नीले आसमान की छत टंगी हुई है ! उस छत पर चांद सूरज के रूप में दो झाड़−फानूस टंगे हैं तथा सितारों के जुगनू चमकते हैं !

समुद्र एक छोटे तालाब की तरह समझा जाता था ! किन्तु अब वे सब धारणाएं मिथ्या सिद्ध हुई हैं और यह तथ्य सामने आये हैं कि हमारी पृथ्वी विशालकाय ब्रह्माण्ड की एक राई रत्ती जितनी छोटी−सी सदस्या मात्र है ! उसके जैसे असंख्य पिण्ड इस अनन्त आकाश में छितरे पड़े हैं ! समूचे ब्रह्माण्ड का विस्तार मनुष्य की कल्पना शक्ति से बाहर है ! अपनी धरती पर भी जितनी दृश्य पदार्थ है उससे असंख्य गुना विस्तृत और शक्तिशाली वह है जो विद्यमान रहते हुए भी अदृश्य है ! प्राचीन और अर्वाचीन कल्पनाओं में इतना विचित्र अन्तर है कि लगता है मनुष्य खन्दक के अन्धेरों से निकल कर सर्वप्रथम आलोकित होने वाले पर्वत शिखरों पर पहुंच गया है !

प्राचीन काल और अर्वाचीन काल की मान्यताओं के सम्बन्ध में अन्तर का इतना ही कारण है कि हमारे ज्ञान एवं साधन क्षेत्र का विस्तार हुआ है ! तद्नुसार यह विश्व भी, जिसे हम अपना संसार कह सकते हैं अधिकाधिक विस्तृत होता चला गया है ! संसार इतना विस्तृत तो पहले भी था, किन्तु उसका प्रत्यक्षीकरण अब हुआ है ! इसलिए यही कहना होगा कि हमारा संसार इन दिनों बहुत अधिक विस्तृत हुआ है और भविष्य में भी हम जिस गति से बढ़ेंगे, हमारा विश्व भी उसी अनुपात से अधिक विकसित होता चला जाएगा !

यूनान के लोगों की मान्यता थी कि पृथ्वी हरक्यूलस देवता के कन्धे पर टिकी हुई है ! भारतीय उसे शेषनाग के फन पर या गाय के सींग पर टिकी मानते थे, सूर्य देवता के रथ में सात घोड़े जुते होने और अरुण सारथी द्वारा हांके जाने की मान्यता को अब सूर्य किरणों के सात रंग और प्रभातकालीन रक्ताभ आलोक कहकर संगतीकरण करना पड़ता है !

पौराणिक आख्यानों के अनुसार कभी पृथ्वी चटाई की तरह चपटी बिछी हुई थी और उस पृथ्वी को हिरण्याक्ष कागज की तरह लपेट कर भाग गया था तथा समुद्र में जा छिपा था ! पृथ्वी को उसके शिकंजे से निकालने के लिए भगवान विष्णु को वाराह का रूप धारण करना तथा हिरण्याक्ष से छीनना छुड़ाना पड़ा था ! उपलब्ध ज्ञान और प्राप्त तथ्यों के संदर्भ में इन घटनाओं को देखते हैं तो ये बातें बाल−बुद्धि की कल्पना ही सिद्ध होती है ! पृथ्वी के लपेटे जाने की और उसी पर भरे हुए समुद्र में छिपा लेने की बात अब समझ से बाहर की बात है ! पर किसी समय यही मान्यता शिरोधार्य थी !

विद्वान आर्य भट्ट ने पहली बार पांचवीं शताब्दी में पृथ्वी को गोल गेंद की तरह बताया ! बारहवीं शताब्दी में भाष्कराचार्य ने उसमें आकर्षण शक्ति होने की बात जोड़ दी ! प्राचीन ज्योतिष विज्ञान धरती को स्थिर और सूर्य को चल मानता था ! सहज बुद्धि यही सोच सकती थी, किन्तु पीछे पृथ्वी को भ्रमण शील बताया गया तो बताने वालों को उपहासास्पद ही नहीं माना गया, वरन् उन्हें नास्तिकता के अपराध में सूली पर चढ़ा दिया गया ! किन्तु तथ्य तो तथ्य है ! सत्य की कितनी उपेक्षा की जाये उसे स्वीकार करना ही पड़ता है !

पीछे जब अन्ध मान्यताओं की जकड़न ढीली हुई तो इन तथ्यों को भी स्वीकार किया जाने लगा और अब स्थिति यह है कि अब किसी को भी अपनी पृथ्वी के विश्व का नगण्य घटक मानने में कोई आपत्ति नहीं है !

इस सम्बन्ध में एक बड़ा मनोरंजक आख्यान है ! एक बार एक सज्जन पानी के जहाज में सफर करते हुए जुंग उठने पर एक दिन तेजी से डेक पर चहलकदमी करने लगे ! शेष ने सोचा सम्भवतः टहलने का व्यायाम कर रहे हैं ! किन्तु जब बहुत देर तक यही क्रम जारी रहा तो एक से रहा न गया ! पूछा बैठा—भाई साहब! क्या बात है? तो जवाब मिला—‘‘मुझे जरा जल्दी है ! आप लोगों से जल्दी घर पहुंचना है ! काफी जरूरी काम है घर पर! ऐसे ही बैठा रहा तो पहुंच गया समय पर !’’ सब उनकी नादानी पर हंस पड़े ! पर क्या यह सच नहीं है कि इस सतत् चलायमान पृथ्वी पर, जो विराट् ब्रह्माण्ड में अपने सूर्य की निरन्तर परिक्रमा कर रही है, ऐसे नादानों की संख्या अच्छी खासी है !

वे विराट् चेतन सत्ता के व्यष्टि घटक होते हुए भी स्वयं को उस महासत्ता से असम्बद्ध मानते हैं ! विराट् की लयबद्धता में एक ही बने रहना है, यही ज्योतिष विज्ञान का मूलभूत दर्शन है ज्योतिष विज्ञान वह ज्योतिष नहीं है जिसे कुण्डली देखकर या हाथ देखकर ग्रहों की दशा का डर दिखाकर शान्ति कराने हेतु अनेकानेक चित्र-विचित्र उपचार कराने वाले एक पुरातन पन्थी एवं ठगे जाने वाले मूर्खों के रूप में देखा जा सकता है ! वस्तुतः यह अध्यात्म का आद्याक्षर है, आत्मिकी की कुन्जी है !

अपने विश्व में असंख्य निहारिकायें हैं ! वे इतनी बड़ी हैं कि उनके एक कोने में करोड़ों सूर्य पड़े रह सकें और वे पृथ्वी से इतनी दूर हैं कि उनका प्रकाश पृथ्वी तक आने में लाखों वर्ष लग जाते हैं जबकि प्रकाश एक सैकिन्ड में एक लाख छियासी हजार मील की गति से चलता है ! आसमान में जो तारे दिखाई पड़ते हैं उनमें से कई तो अपने सूर्य से भी हजारों गुना बड़े महासूर्य हैं ! उनके अपने अपने सौर मण्डल तथा ग्रह-उपग्रह हैं ! वे आपस में नजदीक दीखते भर हैं परन्तु वास्तव में उनका फासला अरबों खरबों मील है !

वे सभी एक-दूसरे के साथ पारस्परिक आकर्षण शक्ति से रस्सों से बंधे हैं ! आकाश से नीचे गिरने या ऊंचे उछलने जैसी कोई शक्ति नहीं है ! उस पोल में हर वस्तु अधर में सहज ही लटकी रह सकती है ! हलचल तो ग्रह-नक्षत्रों की अपनी आकर्षण शक्ति के कारण होती है ! उसी के प्रभाव से वे अपनी धुरी पर अपनी कक्षा में घूमते हैं ! यह बातें सुनने-पढ़ने में विचित्र अवश्य लगती हैं—सत्य ! अब से कुछ सौ वर्षों पूर्व तक इन बातों पर कोई विश्वास नहीं करता था, किन्तु अब मनुष्य का ज्ञान बढ़ा है और साथ ही उनका संसार भी ! इसलिए इन मान्यताओं को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है !

सूर्य सौर मण्डल का केन्द्र है ! उसका व्यास पृथ्वी से 109 गुना, वजन 3,30,000 गुना तथा घनफल 13,00,000 गुना बड़ा है ! उसके एक वर्ग इन्च स्थान में इतना प्रकाश उत्पन्न होता है जितना कि इतने ही स्थान में तीन लाख मोमबत्तियां जलाने से उत्पन्न हो सकता है ! उसकी गर्मी 6 हजार डिग्री होती है, जिसकी तुलना में पृथ्वी की आग को बरफ जैसा ठंडा माना जा सकता है ! इतनी अधिक गर्मी के कारण सूर्य का सारा पदार्थ वाष्पीभूत है और उस द्रव्य में सदा भयंकर तूफान उठते रहते हैं जिनके कारण कभी-कभी तो इतने बड़े खड्ड हो जाते हैं कि उनमें अपनी पृथ्वी के समान कई धरतियां समा सकें ! काले धब्बे के रूप में सूर्य पर दिखाई देने वाली आकृतियां यही हैं !

अपनी पृथ्वी ही उत्तर से दक्षिण तक 7896 मील तथा पूर्व से पश्चिम तक 7926 मील है ! इसका 71 प्रतिशत भाग समुद्र में डूबा हुआ है ! समुद्र की सर्वाधिक गहराई 35 हजार फीट है तथा भूतल के ऊंचे-से-ऊंचे पहाड़ 29 हजार फुट तक ऊंचे हैं ! पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में 58 करोड़ 46 लाख मील की यात्रा एक वर्ष में पूरी करनी होती है ! वह 66,600 मील प्रतिघण्टा की गति से अपनी कक्षा में भागती है साथ ही स्वयं भी लट्टू की भांति 24 घण्टे में अपनी धुरी पर घूम लेती है !

पोले आकाश में सांस लेने योग्य हवा कुछ ही दूरी तक है ! इससे आगे बन्द राकेटों में सांस लेने के लिए अतिरिक्त प्रबन्ध करना पड़ता है ! प्राचीनकाल के लोग अन्यान्य लोकों में ऐसे ही विचरण करते थे जैसे पृथ्वी पर ! इस तरह के कथा-प्रसंगों से पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है ! अब जो वस्तुस्थिति सामने आ रही है उस आधार पर वैसा करना या यह मानना असम्भव हो ही गया है !

पिछले जमाने में सूर्य को ठण्डा माना गया था ! उसका एक नाम ‘आतप’ भी है ! आतप अर्थात् जो स्वयं तो ठण्डा हो किंतु दूसरों को प्रकाश दे ! किन्तु अब वैसा नहीं कहा जा सकता ! ऐसा मानने का उन दिनों एकमात्र कारण यह था कि हम जितने ही ऊंचे चढ़ते जाते हैं, उतनी ही ठण्डक बढ़ती है ! पहाड़ों पर बर्फ जमी रहती है यह सर्वविदित है ! जितनी ऊंचाई उतनी ठण्डक, इस सिद्धान्त ने सूर्य के ठण्डा होने की कल्पना दी थी पर अब इस बात की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता !

चन्द्रमा किसी जमाने में पूर्ण ग्रह माना जाता था ! उसे ‘तारापति’ कहते थे ! सौर-मण्डल में ही नहीं आकाश में चमकने वाले ताराओं का भी वह अधिनायक था, किन्तु अब जो नये तथ्य सामने आये हैं उनके अनुसार चन्द्रमा पूर्ण ग्रह नहीं है, वह केवल सूर्य की ही नहीं वरन् पृथ्वी की भी परिक्रमा करता है ! इसलिए उसे पृथ्वी का उपक्रम कहा गया है ! सूर्य की तुलना में तो वह करोड़ों का हिस्सा भी नहीं !

पृथ्वी सूर्य और चन्द्रमा की अपनी-अपनी अलग गतियां हैं ! इस चक्र में कई बार सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा के ऊपर पड़ने के मार्ग में पृथ्वी आ जाती है तो चन्द्रग्रहण दीखता है और जब सूर्य के बीच में चन्द्रमा आ जाता है तो सूर्य ग्रहण दीख पड़ता है ! कौन और कितना आड़े आया! इसी हिसाब से ग्रहण की छाया न्यूनाधिक दीखती है ! पहले कभी यह मान्यता रही थी कि राहु केतु राक्षस सूर्य व चन्द्रमा पर आक्रमण करते हैं, किन्तु अब वैसी बात नहीं कही जा सकती ! मानवी प्रगति ने ऐसी कितनी ही पुरानी मान्यताओं को अस्वीकार कर दिया है और वह कड़वी गोली किसी प्रकार पुरातन पन्थियों को भी गले उतारनी पड़ रही है !

सूर्य, चन्द्र, ग्रहण को राहु केतु नामक राक्षसों का उत्पात मानने की तरह ही उल्कापात के सम्बन्ध में भी यह मान्यता प्रचलित थी कि ये देवताओं तथा प्रेतात्माओं की हलचलें हैं ! समझा जाता था कि किसी महापुरुष के मरने पर एक तारा टूटता है ! देवता लोग उल्कापात के माध्यम से पृथ्वीवासियों के लिए विपत्ति भेजते हैं ! इस धारणा के कारण लोग भयभीत होकर देवताओं को प्रसन्न करने के लिए कर्मकाण्ड आदि रचा करते थे ! किन्तु वैज्ञानिक गवेषणाओं ने सिद्ध कर दिया है कि उल्कापात अब प्रकृति की एक साधारण-सी घटना है !

अनन्त आकाश में किन्हीं ग्रह नक्षत्रों के टूटे-फूटे टुकड़े कंकड़ पत्थरों के रूप में उड़ते रहते हैं ! वे कभी पृथ्वी के वायुमण्डल में घुस पड़ते हैं तो हवा के घर्षण से वे जलकर खाक होने लगते हैं ! यह जलना और दौड़ना ही उल्कापात है ! कभी-कभी एक साथ सैकड़ों कंकड़ घुसते हैं तो आकाश में आतिशबाजी जैसी जलने लगती है ! कुछ पिण्ड बहुत बड़े और अधिक कठोर होते हैं और उनका अध जला हिस्सा धरती पर आ गिरता है ! ऐसी उल्काएं संसार भर में जब तक गिरती रहती हैं और उनके अधजले टुकड़े अजायब घरों में रखे जाते हैं !

ज्वालामुखी और भूकम्पों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही मान्यताएं थीं ! भूकम्प के सम्बन्ध में समझा जाता था कि शेषनाग जब अपना फन हिलाते हैं तो पृथ्वी पर भूकम्प आते हैं ! अब यह मान्यता केवल अशिक्षित, देहाती और पिछड़े इलाकों भर में रह कई है अन्यथा शिक्षित समुदाय अच्छी तरह जानता है कि पृथ्वी आरम्भ में आग के गोले की तरह थी उसकी ऊपरी परत धीरे-धीरे ठण्डी होती गई और उस पर प्राणियों तथा वनस्पतियों का निवास सम्भव हो सका ! अभी भी पृथ्वी के भीतर प्रचण्ड गर्मी है सारा पदार्थ पिघला हुआ है और कड़ाही में खोलते हुए तेल की तरह खुद-खुद करता रहता है ! इसकी भाप अक्सर धरती के ऊपरी परत को बेधकर निकलती है तो जिधर से वह निकलती है वहां या तो ज्वालामुखी विस्फोट होता है अथवा भूकम्प आते हैं !

यह हलचलें निरन्तर होती रहती हैं ! औसतन हर तीसरे दिन एक बड़ा और दस मिनट बाद एक हलका भूकम्प पृथ्वी पर कहीं न कहीं निरन्तर आता रहता है इसके अनेक कारण हैं ! समुद्र की तली से पानी रिसकर उस आग्नेय द्रव पदार्थ तक जा पहुंचता है तो उसकी भाप विस्फोट करती हुई ऊपरी सतह को फोड़ती है ! नये पहाड़ों के भीतर जहां-तहां गुफाओं की तरह बड़ी-बड़ी पोले हैं वे धंसकती रहती हैं ! पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी सिकुड़ती रहती हैं ! ऐसे-ऐसे अनेकों कारण पृथ्वी पर ज्वालामुखी फटने अथवा भूकम्प आने के हैं !

अब शेषनाग के फन हिलाने पर भूकम्प आने की बात मानना या स्वीकार करना अथवा इसी मान्यता पर अड़े रहना बाल हठ तथा दुराग्रह ही कहा जायगा ! ज्योतिष विज्ञान पर यही तथ्य लागू होता है ! मनुष्य निरन्तर प्रगति-पथ पर बढ़ता जा रहा है ! उसका ज्ञान बढ़ रहा है और ज्ञान बढ़ने के फलस्वरूप पुरानी मान्यताओं के स्थान पर नये प्रतिपादन सामने आ रहे हैं !

यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है और भविष्य में भी अनन्त काल तक चलता रहेगा ! आज की अपनी स्थापनाओं में भी भविष्य में विकास क्रम के अनुसार परिवर्तनों की श्रृंखला चलती रही है ! अतः हमें दुराग्रही नहीं होना चाहिए और पूर्वजों के प्रति पूर्ण आस्थावान रहते हुए भी यह मानकर चलना चाहिए कि जो कहा अथवा माना जाता रहा है या माना जा रहा है वही अन्तिम नहीं है ! समय-समय पर जो संशोधन हर शोधकार्य में होता है, वह होता चले तो किसी भी विधा को पुरातन पंथी न कहते हुए दिमाग खुला रखकर प्रगति की दिशा निर्धारण कर सकना सम्भव है !

आज ज्योतिष विज्ञान का जो प्रचलित रूप है वह उस पुरातन विधा का खण्डहर भर है ! कितने ही परिवर्तन हुए हैं, इस ब्रह्माण्डीय विज्ञान के बाह्य कलेवर में ! वेदों में सविता को सृष्टि का अधिष्ठाता केन्द्र बताते हुए उसकी उपासना का प्रतिपादन किया गया है ! यह मान्यता अन्तर्दृष्टि सम्पन्न ऋषियों की थी कि यह सूर्य स्थिर है, शेष ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं एवं ऐसे एक नहीं, अनेकों सूर्य हैं जो एक महासूर्य के चारों ओर घूम रहे हैं ! ऐसे एक नहीं, अनेक ब्रह्माण्ड हैं जिन सबका अधिपति एक है—सृष्टि संचालन की सुव्यवस्था करने वाला परब्रह्म ! सत्य की शोध मानव को मूल वृत्ति है ! बहुत बार सत्य मिलता है, बहुत बार खो जाता है !

ईसा के जन्म से भी तीन सौ वर्ष पूर्व एरिस्टोकारिस नामक एक यूनानी ने वैदिक प्रतिपादन को सत्य बताते हुए कहा कि सूर्य केन्द्र है, पृथ्वी केन्द्र नहीं है ! लेकिन ईसा के सौ वर्ष बाद (100 AD) ही टोलियों ने इस सूत्र के विलोम प्रतिपादन दिया कि पृथ्वी केन्द्र है, सूर्य उसका चक्कर लगा रहा है ! 16-17 शताब्दी लगी ! कोपर्निकस एवं कैपलर को यह खोजकर सत्यापित करने एवं लोगों के गले यह तथ्य उतारने में कि पृथ्वी नहीं, सूर्य केन्द्र है एवं पृथ्वी अपनी धुरी पर भी घूमती है व सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है ! अन्तर्ग्रही प्रभावों से सभी जीवधारी प्रभावित होते हैं, आर्य भट्ट की इस मान्यता को दुराग्रही समाज की मोहर लगी बीसवीं सदी में ! यह वस्तुतः सत्यान्वेषण की दिशा में चली एक यात्रा है जिसमें व्यष्टि चेतना का समुच्चय, एक छोटा-सा घटक यह मनुष्य उस विराट से प्राण चेतना पाते हुए भी उस विराट को खोजता अभिभूत होता रहता है !

अब यह बात अच्छी तरह समझ ले कि मनुष्य पृथ्वी पर बसने वाला विराट् सत्ता का एक घटक है एवं पृथ्वी उस विराट के प्रतीक सूर्य के मण्डल का ही एक अंग है ! तीनों में एक ही रक्त प्रवाहित हो रहा है ! बच्चा गर्भावस्था में जन्म के तुरन्त बाद तक रज्जुनाल से मां से जुड़ा रक्त पाता रहता है ! इस रक्त प्रवाह से ही जो मां के हृदय की गंगोत्री से प्रवाहित होता है, शिशु के सारे क्रिया-कलाप चलते हैं ! सारे जीवकोशों का निर्माण, एक ही निषेचित डिम्बाणु से अरबों सेल्स का बनना इसी प्रक्रिया के सहारे बन पड़ता है !

इसे वैज्ञानिक अपनी भाषा में समानुभूति (एम्पैथी) कहते हैं ! मनुष्य-पृथ्वी-सूर्य—महासूर्य एवं परब्रह्म ये सभी इसी समानुभूति की एक कड़ी है ! जो भी सूर्य पर घटित होगा, वह मनुष्य एवं अन्यान्य जीवधारियों के रोम-रोम में स्पन्दित होगा ! मानवी रक्त में तैर रही रक्त कोशिकाएं एवं न्यूक्लीय एसिड जैसा जीन्स बनाने वाला लघुतम घटक सूर्य के अणुओं से समानुभूति—ऐक्य रखता है एवं अच्छे-बुरे सभी प्रभावों में बराबर हिस्सा लेता है ! सूर्य के हमसे करोड़ों मील दूर अवस्थित होने पर भी इस प्रभाव में कोई अन्तर आने वाला नहीं !

इस अन्तर्ग्रही प्रभावों को, सौर गतिविधियों के मानवी काया पर पड़ने वाले प्रभाव को जुड़वा बच्चों के उदाहरण से भली प्रकार समझा जा सकता है ! एक ही अण्डे से पैदा हुए दो बच्चे जो गर्भाशय में साथ-साथ विकसित होते हैं, (मोनोब्यूलरट्वीन्स) को जन्मोपरान्त कहीं कितनी भी दूर क्यों न रखा जाय, उनके व्यवहार—चिन्तन—आदतों सभी में समानता पाई जाती है ! यह एक अणु से एक पर्यावरण में विकसित होने की परिणति है ! मानव, पृथ्वी, सूर्य भी इसी तरह से एक ही अणु से विनिर्मित होने के कारण समानुभूति के आधार पर परस्पर प्रभावित होते हैं ! यही ज्योतिष विज्ञान का केन्द्र बिन्दु है ! हर पल, पृथ्वी के कण-कण का सूर्य के महाकणों से एक सम्बन्ध सूत्र जुड़ा हुआ है ! इसी प्रकार मानवी जीवकोषों का भी उस विराट से, विभु से, सम्बन्ध ऐसे जुड़ा है जैसे दो बिजली के तार जुड़े होते हैं, जिनमें सतत् विद्युत प्रवाहित होती रहती है !

इस समानुभूति को अब विज्ञान ने एक नयी परिभाषा दी है—‘‘क्लीनीकल इकॉलाजी’’ अर्थात् पर्यावरण से प्रभावित जीव विज्ञान ! इसी में सूर्य पर घटने वाली सभी घटनाओं—धब्बों सूर्य की लपटों, सौर कलंकों, भू-चुम्बकीय तूफानों, मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तनों के जीवधारियों पर प्रभाव को शुमार किया जाता है ! यह चेतन जगत की एक लयबद्धता का, परोक्ष के प्रभाव का प्रत्यक्ष प्रमाण है ! हर ग्यारहवें वर्ष सूर्य कलंकों के आने व अति सम्वेदनशील वृक्षों में रिंग्स बनने का जो परस्पर सम्बन्ध है, वह वैज्ञानिकों को आश्चर्य चकित कर देता है !

वृक्ष में कितने रिंग बने, यह देखकर उसकी आयु का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है ! यदि मौसम अधिक गर्म होता है तो ये रिंग चौड़े बनते हैं व जग मौसम ठण्डा व शुष्क होता है तो ये रिंग संकरी होती हैं ! मौसम के इतने से व्यतिरेक से भी इतनी दूर अवस्थित पृथ्वी के वनस्पति समुदाय पर बिल्कुल ‘‘टू द पाइण्ड’’ प्रभाव पड़ सकता है, यह इसका प्रमाण है !

जब वृक्ष वनस्पति इतने सम्वेदनशील हैं कि करोड़ों मील दूर अवस्थित सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों को अपने ऊपर अंकित होने देते हैं तब मानवी काया के सूक्ष्मतम जीवकोशों एवं अति सूक्ष्म स्नायुकोषों की तो इन प्रभावों के प्रति और भी अधिक गहरी समानुभूति होनी चाहिए ! वैज्ञानिक बताते हैं कि सौर मण्डल स्थित पल्सार्ज एवं ब्लैक होल्स से निकलने वाले न्यूट्रोन कण जो प्रकाश की गति से भी तेज चलकर धरती को पार कर जाते हैं, मानवी मस्तिष्क के ‘माइन्जेन’ अणुओं से बहुत अधिक मेल खाते हैं !

इसी प्रकार अति सूक्ष्म न्यूक्लीय अम्लों पर भी उनका प्रभाव पड़ता है ! इस प्रकार सौर मण्डल के परिवार के किसी भी सदस्य के धरती स्थित जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभाव को झुठलाया नहीं जा सकता ! मालूम नहीं वृक्ष की तरह मानवी मस्तिष्क में भी हर ग्यारहवें वर्ष वर्तुल (रिंग्स) पड़ते हैं या नहीं किन्तु यह सत्य है कि इस अवधि में मानसिक आवेग, उत्तेजना, उन्माद, बेचैनी बहुत तेज हो जाती हैं ! आत्महत्या, परस्पर आक्रामक व्यवहार एवं दुर्घटनाओं में सहसा वृद्धि हो जाती है ! रेडियोधर्मिता के परिवर्तन जो इतने विराट् अन्तरिक्ष में घटते हैं कैसे समष्टिगत मानसिकता को प्रभावित करते हैं, इसका अध्ययन ज्योतिष विज्ञान विधा के अन्तर्गत आता है !

जैसे यह ग्यारह वर्ष का सौर चक्र चलता है, ऐसे ही बड़े धूमकेतुओं का हर छिहत्तर वर्ष में उदित होने का क्रम चलता रहता है ! अपनी करोड़ों मील लम्बी पूंछ में विषाक्त गैसें समेटे यह उपग्रह ज्यों ही पृथ्वी के थोड़ा समीप आता है, अपने दुष्प्रभाव छोड़ने लगता है ! पहले 1835, फिर 1910 में, अब 1986 में जो विशाल धूमकेतु दृष्टिगोचर होने जा रहा है जिसका नाम इसकी खोज करने वाले सर एडमण्ड हैली के नाम पर हैली कामेट रखा गया है, अपने आने के पूर्व संकेत 2 वर्ष पूर्व से ही देना आरम्भ कर चुका है ! जब-जब भी ये विषाक्त धूम पृथ्वी के समीपस्थ वातावरण में आते हैं, गृह-युद्ध—विश्व-युद्ध—संक्रामक रोगों का बाहुल्य बढ़ जाता है ! यह भी अन्तर्ग्रही प्रभावों का एक अंग है !

एक ऐसा ही कास्मो बायोलॉजिकल साइकल इजिप्ट में देखा जाता है ! इजिप्ट के सम्राट हमेशा से ही सूर्य देवता के आराधक रहे हैं ! वे सूर्य एवं मिश्र देश के मध्य से बहने वाली नील नदी में परस्पर गहन सम्बन्ध मानते थे ! सम्राट फरोहो ने अपने पुरोहितों के निर्देश पर अपने वैज्ञानिक समुदाय को कहा कि नील नदी में कब जल घटता है, कब बढ़ता है, इसका वर्णन सतत् लिखा जाता रहे ! ईसा के पन्द्रह सौ वर्ष से पूर्व से अब तक की लगभग साढ़े तीन हजार वर्षों की जीवन गाथा इस नदी की थोड़ा भी बढ़ने या घटने, बाढ़ आने पानी कम होने की लिखी रखी है !

अब उसका अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ है कि जो भी महत्वपूर्ण परिवर्तन नील नदी में हुए हैं, वे नब्बे वर्ष के अन्तराल पर घटित हुए है ! इजिप्शियन विद्वान तस्मान ने यह तथ्य पता लगाया है एवं आधुनिक वैज्ञानिकों के इस निष्कर्ष से उसे सम्बद्ध बताया है कि सूर्य नब्बे वर्ष में अपनी आयु के उतार-चढ़ाव का एक अन्तराल पूरा करता है ! 45 वर्ष में वह जवान होता है एवं 45 वर्ष उस को आयु के ढलने के होते हैं ! पूर्वार्द्ध क्लाइमेक्स है तो उत्तरार्द्ध एण्टी क्लाइमेक्स जब नब्बे वर्ष पूरे होते हैं तो भू चुम्बकीय तूफान तेजी से आते हैं, भूकम्पों की बाढ़ आ जाती है एवं सुप्त पड़े ज्वालामुखी भी फूट पड़ते हैं ! यही कारण था कि चील नदी के परिवर्तनों की एक बायोग्राफी मिस्र के पुरोहितों ने बनवाई ! जब भूगर्भ तक और लपटों का प्रभाव पड़ता है तब मानवी काया के अरबों जीव-कोश इस प्रभाव से कैसे अछूते रह सकते हैं निश्चित ही उनके अन्दर भी उलट-पुलट भरे परिवर्तन होते हैं जो सीधे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं !

ज्योतिष विज्ञान की जानकारी वाला पक्ष यहीं तक सही है ! जब यह कहा जाता है कि अमुक ग्रह अमुक नुकसान पहुंचाते हैं एवं उनकी शान्ति के लिए अमुक प्रकार से तन्त्र विधानादि कर दान-दक्षिणा देना चाहिए तो फिर यह कोरा अन्ध-विश्वास रह जाता है जो धूर्तों को लाभ पहुंचाता है, बुद्धिजीवियों को नास्तिक बनाता है ! एस्ट्रालॉजी व एस्ट्रानॉमी में फर्क समझा जाना चाहिए एवं ज्योतिष विज्ञान के उन ज्ञात—अविज्ञात पक्षों से लाभान्वित होने का प्रयास किया जाना चाहिए जो अब तक विज्ञान की पोथी में बन्द हो चुके हैं ! चिर पुरातन ऋषि प्रणीत शोधों को इस वैज्ञानिक जानकारी से भली-भांति समन्वित किया जा सके तो इस अमृत से निश्चित ही मनुष्य जाति को लाभ ही मिलेगा ! विराट के एक ही घटक होने की मान्यता विकसित हो सके तो समानुभूति की भावना और भी व्यापक रूप में स्वीकारी जाने लगेगी, परस्पर सहकार और बढ़ेगा !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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