इसमें कोई शक नहीं कि प्रकृति ने मनुष्य को प्रगट ही नहीं किया बल्कि उसे पोषित और उन्नत भी किया है ! यदि प्रकृति का सहयोग न होता तो मनुष्य प्रगट होने के बाद भी कीट पतंगों की तरह जीवन जी का मर जाता !
हो सकता है कि मनुष्य नश्ल लाखों साल पहले ही इस पृथ्वी पर विलुप्त प्राय नस्ल के रूप में होती !
किन्तु आज मनुष्य का जो बौद्धिक विकसित स्वरूप दिखलाई दे रहा है, वह प्रकृति की ऊर्जा और सहयोग का चमत्कार ही है !
इस रहस्य को शैव जीवन शैली के मनुष्यों ने बहुत गहराई से समझा था ! इसीलिए उन्होंने प्रकृति को आभार व्यक्त करने के लिये अनेकों प्रार्थनाओं का निर्माण किया ! जिनका संग्रह वेदों में मिलता है !
लेकिन जैसे-जैसे मनुष्य विकसित और व्यवसायिक होता गया, वैसे वैसे मनुष्य प्रकृति का अपहरणकर्ता, हत्यारा और बलात्कारी भी होता गया !
मनुष्य में सर्वप्रथम पशुओं का अपहरण कर उन पर नियंत्रण और उनकी हत्या करना शुरू किया और बुद्धि के विकसित होने के साथ-साथ जब उसने कृषि के क्षेत्र में विकास करना शुरू किया, तब उसने वनस्पतियों की हत्या करना शुरू कर दिया !
इसी वजह से आज मनुष्य का प्रकृति से संवाद टूट गया है और आज मनुष्य इतना असंवेदनशील हो गया है कि वह प्रकृति से संवाद भी आधुनिक विज्ञान के यंत्रों के माध्यम से करने लगा है !
आज से कुछ हजार वर्ष पूर्व जो आयुर्वेदाचार्य हुआ करते थे ! वह सीधा वनस्पति से संवाद करके उसके गुण-धर्म को जान लिया करते थे और मानवता के कल्याण के लिए उसका इस्तेमाल किया करते थे !
लेकिन आज का संवेदनाहीन वैज्ञानिक वनस्पति के गुण धर्म को जानने के लिये उससे संवाद का प्रयास नहीं करता बल्कि वह वनस्पति को तोड़ता, काटता, छीलता, उबलता और परख नलियों में बंद करके उस पर परीक्षण करता है !
आधुनिक वैज्ञानिकों की यह दृष्टि प्रकृति के साथ संवेदनशीलता को तो समाप्त करती ही है ! साथ ही प्रकृति के स्वाभाविक गुण धर्म को भी नष्ट कर देती है !
उसी का परिणाम है कि हजारों तरह के रोग जो कभी प्रकृति स्वत: ठीक कर देती थी ! आज वह रोग लाखों दवाइयां बना लेने के बाद मनुष्य के नियंत्रण के बाहर हैं !
यदि मनुष्य को अपने अस्तित्व को बचा कर रखना है तो उसे विज्ञान द्वारा प्रकृति के साथ होने वाले बलात्कार को रोकना होगा ! अन्यथा आज का विज्ञान प्रयोगशालाओं में प्रकृति के साथ बलात्कार करता रहेगा और संसार में आम मनुष्य नये नये रोगों से मरता रहेगा !!