शैव तंत्र का तान्त्रिक सम्प्रदायों से साम्य मंथन : Yogesh Mishra

तान्त्रिक संस्कृति में मूलतः साम्य रहने पर भी देश, काल, क्षेत्र, भेद से उसमें विभिन्न सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ है ! इस प्रकार का भेद साधकों के प्रकृति -गत भेद के अनुरोध से स्वभावतः ही होता हैं ! भावी पीढी के ऐतिहासिक विद्वान् ‍ जब भिन्न तान्त्रिक साम्प्रदायों के इतिहास का संकलन करेंगे और गहराई से उसका विश्लेषण करेंगे तो इस निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे कि यद्यपि भिन्न -भिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों में आपाततः वैषम्य प्रतिभासित हो रहा है किन्तु उनमें निगूढ रुप से मार्मिक साम्य है !

संख्या में तान्त्रिक सम्प्रदाय कितने आविर्भूत हुए और पश्चात्-काल में कितने विलुप्त हुए यह कहना कठिन है ! उपास्य -भेद के कारण उपासना -प्रक्रियाओं में भेद तथा आचारादि -भेद होते है, साधारनतया पार्थक्य का यही कारण हैं! 1 .शैव, 2 . शाक्त, 3 . गाणपत्य ये तो सर्वत्र ही प्रसिद्ध हैं ! इन सम्प्रदायों के भी अनेकानेक अवान्तर भेद हैं ! शैव तथा शैव -शाक्त -मिश्र सम्प्रदायों में कुछ के निम्नलिखित उल्लेखनीय नाम हैं -सिद्धान्त शैव, वीरशैव, अथवा जंगम शैव, रौद्र, पाशुपत, कापालिक अथवा सोम, वाम, भैरव आदि ! अद्वैतदृष्टि से शैवसम्प्रदाय में त्रिक अथवा प्रत्यभिज्ञा, स्पन्द प्रभृति विभाग हैं !

अद्वैत -मत में भी शक्ति की प्रधानता मानने पर स्पन्द, महार्थ, क्रम इत्यादि भेद अनुभूत होते हैं ! दश शिवागम और अष्टादश रुद्रागम तो सर्वप्रसिद्ध ही हैं ! इनमें भी परस्पर किंचित् ‌-किंचित् ‍ भेद नहीं है यह नहीं कहा जा सकता ! द्वैत -मत में कोई कट्टर द्वैत, कोई द्वैतद्वैत और कोई शुद्धाद्वैतवादी है ! इनमें किसी सम्प्रदाय को भेदवादी, किसी को शिव -साम्यवादी और किसी को शिखा -संक्रान्तिवादी कहते हैं ! काश्मीर का त्रिक या शिवद्वैतवाद अद्वैतस्वरुप से आविष्ट से आविष्ट है ! शाक्तों में उत्तरकौल प्रभृति भी ऐसे ही हैं !

किसी समय भारतवर्ष में पाशुपत संस्कृति का व्यापक विस्तार हुआ था ! न्यानवर्तिककार उद्योतकर संभवतः पाशुपत रहे और न्यायभूषणकार भासर्वज्ञ तो पाशुपत थे ही ! इनकी बनाई गण -कारिका आकार में यद्यपि छोटी है किन्तु पाशुपतदर्शन के विशिष्ट ग्रन्थों में इसकी गणना है !

लकुलीश पाशुपत की भी बात सुनने में आती है ! यह पाशुपतदर्शन पञ्चार्थवाद -दर्शन तथा पञ्चार्थलाकुलाम्नाय नाम से विख्यात था ! प्राचीन पाशुपत सूत्रों पर राशीकर का भाष्य था, वर्तमान समय में दक्षिण से इस पर कौण्डिन्य -भाष्य का प्रकाशन हुआ है ! लाकुल -मत वास्तव में अत्युन्त प्राचीन है, सुप्रभेद और स्वयम्भू आगमों में लाकुलागमों का उल्लेख दिखाई देता है !

महाव्रत -सम्प्रदाय कापालिक -सम्प्रदाय का ही नामान्तर प्रतीत होता है ! यामुन मुनि के आगम प्रामाण्य, शिवपुराण तथा आगमपुराण में विभिन्न तान्त्रिक सम्प्रदायों के भेद दिखाय गये हैं ! वाचस्पति मिश्र ने चार माहेश्वर सम्प्रदायों के नाम लिये हैं ! यह प्रतीत होता है कि श्रीहर्ष ने नैषध (10, 88 ) में समसिद्धान्त नाम से जिसका उल्लिखित है, वह कापालिक सम्प्रदाय ही है !

कपालिक नाम के उदय का कारण नर -कपाल धारण करना बताय जाता है ! वस्तुतः यह भी बहिरंग मत ही है ! इसका अन्तरंग रहस्य प्रबोध -चन्द्रोदय की प्रकाश नाम की टीका में प्रकट किया गया है ! तदनुसार इस सम्प्रदाय के साधक कपालस्थ अर्थात् ‍ ब्रह्मारन्ध्र उपलक्षित नरकपालस्थ अमृत या चान्द्रीपान करते थे ! इस प्रकार के नामकरण का यही रहस्य है ! इन लोगों की धारणा के अनुसार यह अमृतपान है, इसी से लोग महाव्रत की समाप्ति करते थे, यही व्रतपारणा थी !

बौद्ध आचार्य हरिवर्मा और असंग के समय में भी कापालिकों के सम्प्रदाय विद्यमान थे ! सरबरतन्त्र में 12 कापालिक गुरुओं और उनके 12 शिष्यों के नाम सहित वर्णन मिलते हैं ! गुरुओं के नाम हैं — आदिनाथ, अनादि, काल, अमिताभ, कराल, विकराल आदि ! शिष्यों के नाम हैं –नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, चर्पट आदि! ये सब शिष्य तन्त्र के प्रवर्तक रहे हैं ! पुराणादि में कापालिक मत के प्रवर्तक धनद या कुबेर का उल्लेख है !

कालामुख तथा भट्ट नाम से भी सम्प्रदाय मिलते हैं, किन्तु इनका विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है ! प्राचीन काल में शाक्तों में भी समयाचार और कौलाचार का भेद विद्यमान था ! कुछ लोग समझते हैं कि समयाचार वैदिक मार्ग का सहवर्ती था और गौडपाद, शंकर प्रभृति समयाचार के ही उपासक थे !

कौलाचारसंप्रद्राय में कौलों के भीतर भी पूर्व कौल और उत्तर कौल का भेद विद्यमान था ! पूर्व कौल मत शिव एवं शक्ति, आनन्द -भैरव और आनन्द -भैरवी से परिचित है ! इस मत में दोनों के मध्य शेष -शेषिभाव माना जाता था, किन्तु उत्तर कौल के अनुसार शेष -शेषिभाव नहीं हैं ! इस मत में सदा शक्ति का ही प्राधान्य स्वीकृत है, शक्ति कभी शेष होती है, शिव तत्त्व रुप में परिणत हो जाते हैम और शक्ति तत्त्वातीत ही रहती है ! रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र ’ होने का यही रहस्य हैं – पूर्व कौल शिव और शक्ति के मध्य शेष -शेषिभाव मानते हैं !

अतः पूर्व कौल के मत में शेष -शेषिभाव पूर्वतन्त्र का परिचायक होना चाहिए ! जब शक्ति कार्यात्मक समग्र प्रपञ्च को अपने में आरोपित करती है तो उसका नाम होता है – कारण, और उसका पारिभाषिक नाम आधार कुण्डलिनी है ! कुण्डलिनी के जागरण से शक्ति शेष नहीं रहती ! तत्त्व रुप में सदाशिव परिणत हो जाते हैं और शक्ति तत्त्वातीत ही रहती है ! यही उत्तरतन्त्र का उत्तरत्व है !

अपने बारे में कुण्डली परामर्श हेतु संपर्क करें !

योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

 -: सम्पर्क :-
-090 444 14408
-094 530 92553

Check Also

क्या राम और कृष्ण इतने हल्के हैं : Yogesh Mishra

अभी बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर जी ने राजनीतिक कारणों से रामचरितमानस पर कुछ टिप्पणी …