जानिये कौन है स्वामी रामभद्राचार्य ? गीताप्रेस की रामायण से क्यों है इन्हे आपत्ति । जरूर पढ़ें ।

जगद्गुरु रामभद्राचार्य कहते हैं कि वर्तमान में प्रकाशित तुलसीकृत रामचरितमानस अशुद्धियों का पुलिंदा है। यहां तक कि मंगलाचरण भी गलत लिखा गया है। जो रामचरितमानस अब तक पढ़ी जा रही थी, उसे तुलसीदास द्वारा लिखी गयी मूल रामचरितमानस नहीं माना जा सकता।

वर्तमान में प्रकाशित तुलसीकृत रामचरितमानस में बेहद संशोधन की आवश्यकता है। जैसे कि वर्तमान में प्रकाशित तुलसीकृत रामचरितमानस में लिखित ‘ढोल गँवार छुद्र पशू रारी’ के स्थान पर ‘ढोल गँवार शूद्र पशू नारी’ हो गया क्योंकि ‘श’ ध्वनि संस्कृत की ध्वनि है अवधी की नहीं।

वह इसके लिये शास्त्रार्थ को भी तैयार हैं । जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने तुलसीदास के सही रामचरितमानस की प्रतियां भी प्रकाशित कर वितरित करायी हैं और स्वयं देश विदेश में घूम-घूम कर खुद की रामकथा का वाचन भी कराते हैं । रामभद्राचार्य ने चित्रकूट स्थित अपने भवन का नाम श्रीरामचरितमानस भवन रखा है तथा भवन की संगमरमर की दीवारों पर खुद की लिखी मानस की चौपाइयों और दोहों को अंकित करा दिया है।

इस विवादास्पद समाचार प्रकाशित होने के बाद से अखिल भारतीय अखाडा परिषद अयोध्या के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास द्वारा तुलसीदास कृत रामचरित मानस में गलतियां ढूढने के बाद उन पर 7 लाख रुपए का जुर्माना लगाया है । जिस पर जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने कहा “मैंने मूल रामचरित मानस का एक भी अक्षर संशोधित नहीं किया, सिर्फ रामचरित का संपादन किया है।“

रामभद्राचार्य संत तुलसीदास की कृति रामचरित मानस को अशुद्धियों से भरा मानते हैं और उसमें उन्होंने 3000 से अधिक गलतियां ढूढ निकाली हैं। जिन्‍हें दुरुस्‍त करके प्रकाशित करना जरूरी है | जिनमें श्री वेंकटेश्वर प्रेस (खेमराज श्रीकृष्णदास) और रामेश्वर भट्ट आदि पुरानी व सही प्रतियाँ हैं और गीता प्रेस, मोतीलाल बनारसीदास, कौदोराम, कपूरथला और पटना से मुद्रित नयी प्रतियाँ हैं। स्वामी रामभद्राचार्य ने पुरानी प्रतियों को अधिक विश्वसनीय माना है।क्यों कि नयी प्रतियाँ वर्तनी, व्याकरण और छन्द सम्बन्धी निम्नलिखित भिन्नता है।

1- गीता प्रेस सहित कईं आधुनिक प्रतियाँ 2 पंक्तियों में लिखित 16 मात्राओं की एक चौपाई मानी है जब कि रामभद्राचार्य ने 32 मात्राओं की एक चौपाई मानी है, जिसके समर्थन में उन्होंने हनुमान चालीसा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा पद्मावत की समीक्षा के उदाहरण दिए हैं। उनके अनुसार इस व्याख्या में भी चौपाई के चार चरण निकलते हैं क्यूंकि हर 16 मात्राओं की अर्धाली में 8 मात्राओं के बाद यति है। परिणामतः तुलसी पीठ प्रति में चौपाइयों की गणना फ़िलिप लुट्गेनडॅार्फ़ की गणना जैसी है।

2- आधुनिक प्रतियों में प्रचलित कर्तृवाचक और कर्मवाचक पदों के अन्त में उकार के स्थान पर अकार का प्रयोग है। रामभद्राचार्य के मतानुसार उकार का पदों के अन्त में प्रयोग त्रुटिपूर्ण है, क्यूंकि ऐसा प्रयोग अवधी के स्वभाव के विरुद्ध है।

3- तुलसी पीठ की प्रति में विभक्ति दर्शाने के लिए अनुनासिक का प्रयोग नहीं है जबकि आधुनिक प्रतियों में ऐसा प्रयोग बहुत स्थानों पर है। रामभद्राचार्य के अनुसार पुरानी प्रतियों में अनुनासिक का प्रचलन नहीं है।

4- आधुनिक प्रतियों में कर्मवाचक बहुवचन और मध्यम पुरुष सर्वनाम प्रयोग में संयुक्ताक्षर न्ह और म्ह के स्थान पर तुलसी पीठ की प्रति में क्रमशः न और म का प्रयोग है।

5- आधुनिक प्रतियों में प्रयुक्त तद्भव शब्दों में उनके तत्सम रूप के तालव्य शकार के स्थान पर सर्वत्र दन्त्य सकार का प्रयोग है। तुलसी पीठ के प्रति में यह प्रयोग वहीं है जहाँ सकार के प्रयोग से अनर्थ या विपरीत अर्थ न बने। उदाहरणतः सोभा (तत्सम शोभा) में तो सकार का प्रयोग है, परन्तु शंकर में नहीं क्यूँकि रामभद्राचार्य के अनुसार यहाँ सकार कर देने से वर्णसंकर के अनभीष्ट अर्थ वाला संकर पद बन जाएगा

आखिर कौन हैं जगद्गुरु रामभद्राचार्य !

माता शची देवी और पिता पण्डित राजदेव मिश्र के पुत्र जगद्गुरु रामभद्राचार्य का जन्म एक वसिष्ठ गोत्रिय सरयूपारीण ब्राह्मण परिवार में भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के जौनपुर जिले के शांडिखुर्द नामक ग्राम में माघ कृष्ण एकादशी विक्रम संवत 2006 ( 14 जनवरी 1950) मकर संक्रान्ति की तिथि को रात के 10 बजे जन्म हुआ | इनकी चचेरी बहन श्रीकृष्ण की भक्त थीं अतः उन्होंने नवजात बालक को गिरिधर नाम रख दिया गया |

गिरिधर की नेत्रदृष्टि दो मास की अल्पायु में नष्ट हो गयी। मार्च 24, 1950 के दिन बालक की आँखों में रोहे हो गए। गाँव में आधुनिक चिकित्सा उपलब्ध नहीं थी। बालक को एक वृद्ध महिला चिकित्सक के पास ले जाया गया जो रोहे की चिकित्सा के लिए जानी जाती थी। चिकित्सक ने गिरिधर की आँखों में रोहे के दानों को फोड़ने के लिए गरम द्रव्य डाला, परन्तु रक्तस्राव के कारण गिरिधर के दोनों नेत्रों की ज्योति चली गयी।[

एकश्रुत प्रतिभा से युक्त बालक गिरिधर ने अपने पड़ोसी पण्डित मुरलीधर मिश्र की सहायता से पाँच वर्ष की आयु में मात्र पन्द्रह दिनों में श्लोक संख्या सहित सात सौ श्लोकों वाली सम्पूर्ण भगवद्गीता कण्ठस्थ कर ली। 1955 ई में जन्माष्टमी के दिन उन्होंने सम्पूर्ण गीता का पाठ किया। संयोगवश, गीता कण्ठस्थ करने के 52 वर्ष बाद नवम्बर 30, 2007 ई के दिन जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने संस्कृत मूलपाठ और हिन्दी टीका सहित भगवद्गीता के सर्वप्रथम ब्रेल लिपि में अंकित संस्करण का विमोचन किया। सात वर्ष की आयु में गिरिधर ने अपने पितामह की सहायता से छन्द संख्या सहित सम्पूर्ण श्रीरामचरितमानस साठ दिनों में कण्ठस्थ कर ली। अभी तक जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने 100 से अधिक पुस्तकों और ग्रंथों की रचना की है |

जहाँ उन्होंने संस्कृत व्याकरण के साथ-साथ हिन्दी, आङ्ग्लभाषा, गणित, भूगोल और इतिहास का अध्ययन किया।[ 1971 में गिरिधर मिश्र वाराणसी स्थित सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत व्याकरण में शास्त्री (स्नातक उपाधि) के अध्ययन के लिए प्रविष्ट हुए। 1974 में उन्होंने सर्वाधिक अंक अर्जित करते हुए शास्त्री (स्नातक उपाधि) की परीक्षा उत्तीर्ण की।
तत्पश्चात् वे आचार्य (परास्नातक उपाधि) के अध्ययन के लिए इसी विश्वविद्यालय में पंजीकृत हुए।

परास्नातक अध्ययन के दौरान 1974 में अखिल भारतीय संस्कृत अधिवेशन में भाग लेने गिरिधर मिश्र नयी दिल्ली आए। अधिवेशन में व्याकरण, सांख्य, न्याय, वेदान्त और अन्त्याक्षरी में उन्होंने पाँच स्वर्ण पदक जीते। भारत की तत्कालीन प्रधानमन्त्रिणी श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने उन्हें पाँचों स्वर्णपदकों के साथ उत्तर प्रदेश के लिए चलवैजयन्ती पुरस्कार प्रदान किया। उनकी योग्यताओं से प्रभावित होकर श्रीमती गाँधी ने उन्हें आँखों की चिकित्सा के लिएसंयुक्त राज्य अमरीका भेजने का प्रस्ताव किया, परन्तु गिरिधर मिश्र ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

1976 में सात स्वर्णपदकों और कुलाधिपति स्वर्ण पदक के साथ उन्होंने आचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी एक विरल उपलब्धि भी रही – हालाँकि उन्होंने केवल व्याकरण में आचार्य उपाधि के लिए पंजीकरण किया था, उनके चतुर्मुखी ज्ञान के लिए विश्वविद्यालय ने उन्हें 30 अप्रैल 1976 के दिन विश्वविद्यालय में अध्यापित सभी विषयों का आचार्य घोषित किया।

अक्टूबर 14, 1981 को संस्कृत व्याकरण में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से विद्यावारिधि (पी एच डी) की उपाधि अर्जित की |1997 में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय ने उन्हें उनके शोधकार्य अष्टाध्याय्याः प्रतिसूत्रं शाब्दबोधसमीक्षणम् पर वाचस्पति (डी लिट्) की उपाधि प्रदान की। इस शोधकार्य में गिरिधर मिश्र नें अष्टाध्यायी के प्रत्येक सूत्र पर संस्कृत के श्लोकों में टीका रची है।

वर्तमान में वे चित्रकूट स्थित तुलसी पीठ के पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक और आजीवन कुलाधिपति हैं। यह विश्वविद्यालय केवल चतुर्विध विकलांग विद्यार्थियों को स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम और डिग्री प्रदान करता है। 2015 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित किया।जगद्गुरु रामभद्राचार्य दो मास की आयु में नेत्र की ज्योति से रहित हो गए थे और तभी से प्रज्ञाचक्षु हैं।

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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