संविधान निर्मात्री सभा का कोई विधिक अस्तित्व नहीं है ! : Yogesh Mishra

कहने को तो भारत के संविधान का निर्माण एक संविधान निर्मात्री सभा ने किया था ! जिसमें कितने सदस्य थे और इस संविधान निर्मात्री सभा को संविधान के निर्माण में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में कुल 114 दिन बैठक की जिसमें मात्र 166 घंटे काम हुआ ! संविधान के निर्माण में कुल सदस्य 389 थे ! जिसमें कांग्रेस के 208, आल इण्डिया मुस्लिम लीग के 73, रियासतें के 93 व अन्य 15 सीटें थी !

3 जून 1947 की योजना के अंतर्गत विभाजन के परिणामस्वरूप पाकिस्तान के लिए एक पृथक् संविधान सभा गठित की गई ! बंगाल, पंजाब, सिंध, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, बलूचिस्तान और असम के सिलहट जिले के प्रतिनिधि भारत की संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे ! पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब के प्रांतों में नये निर्वाचन किये गये !

परिणामस्वरूप जब संविधान सभा 31 अक्टूबर, 1947 को पुनः समवेत हुई तो सदन की सदस्यता घटकर 299 ही गई ! इसमें से 284 सदस्य 26 नवंबर, 1949 की वास्तव में उपस्थित थे और उन्होंने अंतिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किये !

किंतु आश्चर्य की बात यह है कि भारत के संविधान ने ही अपने निर्माण की मूल सभा अर्थात संविधान निर्मात्री सभा को कभी भी विधिक मान्यता नहीं दी ! उसी का परिणाम है कि आज जब भारत के व्याख्याकार न्यायालयों में भारत के संविधान की आत्मा को टटोला जाता है ! तब उसमें भारत के संविधान निर्मात्री सभा में संविधान के निर्माण के दौरान होने वाले वक्तव्य, नियत और मंसा को न ही देखा जाता है और न ही उसे विधिक मान्यता दी जाती है !

बल्कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 147 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई है कि “ सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों के समक्ष कोई भी पर्याप्त प्रश्न कानून के मामले में उठता है तो इसे भारत सरकार अधिनियम, 1935; भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 या प्रिवी काउंसिल द्वारा अधिनियम के संबंधित प्रावधानों के अनुसार विश्लेषण और जवाब दिया जाएगा।”

अर्थात बल्कि भारत के संविधान में अनुच्छेद 147 के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि भारत के व्याख्याकार न्यायालय जब भी भारत के संविधान के किसी सारवान प्रश्न की व्याख्या करेंगे ! तो वह ब्रिटिश संसद द्वारा पारित दो विधियों का सहारा लेंगे न कि भारत के संविधान निर्मात्री सभा की चर्चा का ! वह दो विधियाँ हैं “गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 अर्थात भारत शासन अधिनियम 1935 और दूसरा इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 अर्थात भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 !

अर्थात भारत के संविधान की उपज जिस संविधान निर्मात्री सभा से हुई है ! वह ही संविधान की दृष्टि में विधिक अस्तित्व नहीं रखती और न ही संविधान की व्याख्या या संविधान की आत्मा की व्याख्या के लिये उस संविधान मान्यता देता है ! अर्थात संविधान निर्मात्री सभा के अंदर हुई चर्चा का कोई विधिक अस्तित्व नहीं है !

यह कितनी अजीब सी बात है कि भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है और इस संविधान के अनुसार शासन चलाने वालों ने विश्व में सबसे ज्यादा संशोधन भारत के संविधान में ही किये हैं ! फिर भी न तो संविधान निर्माताओं ने और न ही इस संविधान के अंतर्गत सत्ता चलाने वालों ने कभी यह आवश्यकता महसूस की कि भारत के संविधान निर्मात्री सभा को भारत के संविधान में एक विधिक अस्तित्व प्रदान कर दिया जाये !

बल्कि इसके विपरीत केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य में भारत की सर्वोच्च न्यायालय के 13 में से 11 जजों ने एकमत से यह स्वीकार किया है कि भारत का संविधान भारत की स्वदेशी उपज नहीं है अर्थात भारत के संविधान निर्मात्री सभा के अंदर जो लोग बैठकर संविधान का निर्माण कर रहे थे ! उनको भारत के आम आवाम ने कभी भी भारत के संविधान के निर्माण के लिए अधिकृत नहीं किया था और न ही भारत का संविधान जो आज भारत में लागू है उसको लागू करने के पूर्व भारत के आम आवाम से कभी कोई स्वीकृति नहीं ली गई थी !

यह भारत ही एक विचित्र देश है जिसमें विधि की सर्वोच्च सत्ता जिस भारत के संविधान से चलती है ! जिसके द्वारा भारत का हर संवैधानिक संस्थान व नागरिक नियंत्रित होता है ! उस संविधान में ही अपने संविधान निर्मात्री सभा का कोई विधिक अस्तित्व नहीं है !

ऐसी स्थिति में भारत के संविधान के अपमान करने पर भारत के किसी भी नागरिक को भारतीय अवमानना अधिनियम के तहत दंडित किये जाने की व्यवस्था तो की गई है लेकिन संविधान के मूल अस्तित्व का जहां से निर्माण हुआ है अर्थात वह संविधान जहाँ से निकल कर आया है ! उसको ही कोई विधिक मान्यता आज तक नहीं प्राप्त हुई है !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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