यह त्रेता युग के उस समय की घटना है, जब वैष्णव आक्रांताओं द्वारा छल और बल से शैवों को इस पृथ्वी पर पूरी तरह से नष्ट करके वैष्णव साम्राज्य स्थापित करने का षड्यंत्र अपने चरम पर था !
वैष्णव आक्रांताओं से शैव संस्कृति की रक्षा के लिए परशुराम जी अकेले ही 21 बार महायुद्ध लड़ चुके थे ! आयु के अधिक होने के कारण अब परशुराम जी ने कश्मीर में कश्यप ऋषि के समक्ष अपना फरसा “परसु” उनके चरणों में रख दिया था और खुद तपस्या करने के लिए हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए थे !
किन्तु सत्यता से अनभिज्ञ कश्यप ऋषि ने इन्हीं वैष्णव आक्रांताओं के वंशजों को बुलाकर उन्हें परशुराम द्वारा जीते गए साम्राज्य उन्हें को वापस कर दिये ! जिससे वैष्णव आक्रांता अबकी बार और अधिक संगठित होकर योजनाबद्ध तरीके से शैव संस्कृति का सर्वनाश करने में जुट गये !
इस समय शैव संस्कृत के अनुयायियों को पूरी दुनिया में या तो धर्मांतरण करवा कर वैष्णव बना दिया जा रहा था या उनकी हत्या कर दी जा रही थी, जिससे वह पूरी दुनिया में अपनी जीवन रक्षा के लिये भाग रहे थे और वैष्णव आक्रान्ताओं के डर से उन्हें आश्रय देने वाला कोई नहीं था !
इस तरह वैष्णव के आतंक से त्राहिमाम करते हुए शैव संस्कृत के अनुयायियों को रावण ने अपने ज्ञान और सूझबूझ से अपने लंका क्षेत्र में शरण देना आरम्भ किया ! जहां पर पूरे विश्व से हारे हुये शैव संस्कृति का अनुपालन करने वाले शिवभक्त आकर रहने लगे !
इस नये शरण गृह को शैवों ने नाम दिया “रक्ष क्षेत्र” अर्थात पूरी दुनिया में यही एक ऐसा क्षेत्र था, जहां पर शैवों की रक्षा हो पा रही थी !
जिससे इंद्र आदि देवता रावण से अच्छे खासे नाराज थे ! इसी नाराजगी के लिए इंद्र ने रावण की सास अर्थात मंदोदरी की माता हेमा का अपहरण कर लिया था ! जिसे बाद में रावण के पुत्र मेघनाथ ने युद्ध में हराकर अपनी नानी को इंद्र के कैद से छुड़ाया था ! इसीलिए मेघनाथ का नाम इंद्रजीत पड़ा !
इसी लंका के “रक्ष क्षेत्र” से शिव भक्त “रक्ष संस्कृति” का उदय हुआ ! जिसे विष्णु को मानने वाले वैष्णव कथाकारों ने “राक्षस क्षेत्र” कहकर संबोधित किया ! कालांतर में जो लोग वैष्णव आक्रांताओं से अपने जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए इस राक्षस क्षेत्र में रहने लगे, उन सभी को “राक्षस” कहा जाने लगा !
धीरे-धीरे इन शैव शरणार्थियों की संख्या इतनी अधिक बढ़ती चली गई कि इन अपने प्रजा जन के पोषण के लिए रावण को परमज्ञानी, तेजस्वी और परम त्यागी, होने के बाद भी उसे पूर्ण संपन्नता का मार्ग अपनाना पड़ा ! जिससे वह इन प्रजा जन का पोषण कर सके !
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि रावण परम तपस्वी था ! वह ज्योतिष, तंत्र, आयुर्वेद, अध्यात्म, राजनीति, कूटनीति, कला नीति, संगीत आदि का मर्मज्ञ विशेषज्ञ था !
उसने अपना संपूर्ण जीवन अपने पर आश्रित प्रजा जन्म की संपन्नता के लिए लगा दिया ! उसके राज्य में कभी कोई भूखमरी नहीं फैली और न ही कभी कोई प्राकृतिक आपदा ही आई !
उसके राज्य का प्रत्येक नागरिक खुशहाल और संपन्न था ! वह स्वयं भी त्रिकाल संध्या करने वाला, वेद पाठी, पूर्ण कर्मकांड को जानने वाला श्रेष्ठ आचार्य ब्राह्मण था !
इसीलिए उसकी मृत्यु के अंतिम दिन तक उसका पूरा साम्राज्य रावण के स्वाभिमान के युद्ध में उसके साथ खड़ा था ! रावण के साम्राज्य में कभी भी प्रजा ने कोई विद्रोह नहीं किया !
और जब वह स्वयं राम से निर्णायक युद्ध करने के लिए गया तो इसके पूर्व उसने अपना संपूर्ण खजाना राजमार्गों पर फेंकवा दिया !
और घोषणा की कि अब निर्णायक युद्ध होने वाला है ! जो भी व्यक्ति विश्व के किसी भी कोने में जाकर रहना चाहता है, वह राजकोष के खजाने का धन लेकर कहीं भी जा सकता है !
बहुत से लोग रावण के राजकोष का धन लेकर अरब में शुक्राचार्य की बेटी काव्या, जिसके नाम पर काबा क्षेत्र आज भी मौजूद है, वहां पर जाकर बस गये !
और यही विद्वान “मय प्रजाति” के ब्राह्मण कहलाए, जिन्होंने “भविष्य पुराण” की रचना की ! जिसकी घटना आज तक सही हो रही है !
अर्थात कुल कहने का तात्पर्य यह है कि रावण ने अपनी संपन्नता अपने निजी अहंकार के लिए संग्रहित नहीं की थी, बल्कि अपने प्रजा जन के पोषण के लिए संग्रहित किया था ! जिन्हें पूरी दुनिया से वैष्णव लोगों ने उनकी संपत्ति छीन कर उन्हें भगा दिया था !!