20 से अधिक मुसलिम देश खारिज कर चुके है “तीन तलाक़” की प्रथा । विस्तार से पढ़ें !

केवल पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, अल्जीरिया, मिस्र, इंडोनेशिया, ईरान, इराक़, लीबिया, मलयेशिया, सीरिया, ट्यूनीशिया समेत बीस से ज़्यादा मुसलिम देश तीन तलाक़ को ख़ारिज कर चुके हैं | लेकिन भारत का “मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड है कि मानता नहीं” | जबकि एक साथ “तीन तलाक़” देने की कोई व्यवस्था “कुरान” में भी नहीं है |

1973 में बने “मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड” का तर्क है कि ‘पुरुषों में बेहतर निर्णय क्षमता होती है, वह भावनाओं पर क़ाबू रख सकते हैं | पुरुष शक्तिशाली होता है और महिलायें निर्बल होती हैं | महिलायें अपनी रक्षा के लिए पुरुष पर निर्भर है | यदि तीन तलाक़ हटा दिया गया तो महिलाओं की हत्या होने लगेगी इसलिये महिलाओं को मार डालने से अच्छा है कि तीन तलाक़ व्यवस्था बनी रहे |’

मुसलिम पर्सनल बोर्ड का यह हलफ़नामा इस बात का भी दस्तावेज़ है कि मुसलिम पर्सनल बोर्ड किस हद तक पुरुष श्रेष्ठतावादी, पुरुष वर्चस्ववादी है और केवल पुरुष सत्तात्मक समाज की अवधारणा में ही विश्वास रखने वाला है और वह महिलाओं को किस हद तक हेय, बुद्धिहीन, विचारहीन और अशक्त समझता है और उन्हें सदा ऐसा ही बनाये रखना चाहता है |

उर्दू साप्ताहिक ‘नयी दुनिया’ के सम्पादक और पूर्व सांसद शाहिद सिद्दीक़ी ने इस मुद्दे पर अपनी टिप्पणी में सही लिखा है कि “बोर्ड ने “इस्लामोफ़ोबिया” फैलाने वालों के इस आरोप को सही साबित कर दिया है कि इस्लाम में महिलाएँ शोषित और उत्पीड़ित हैं क्योंकि वहाँ महिलाओं को पुरुषों से कमतर माना जाता है |”

मुसलमानों के आदर्श रहे मुस्लिम देश पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी “तीन तलाक़” जैसी कोई व्यवस्था नहीं है | पाकिस्तान आज से 55 साल पहले 1961 में यह क़ानून बना चुका है कि “तलाक़ की पहली घोषणा के बाद पुरुष को ‘आर्बिट्रेशन काउंसिल’ और अपनी पत्नी को तलाक़ की लिखित नोटिस देनी होगी |

इसके बाद पति-पत्नी के बीच मध्यस्थता कर मामले को समझने और सुलझाने की कोशिश की जायेगी और तलाक़ की पहली घोषणा के 90 दिन बीतने के बाद ही तलाक़ अमल में आ सकता है | इसका उल्लंघन करनेवाले को “एक साल तक की कैद और जुर्माना या दोनों हो सकता है | यही क़ानून बांग्लादेश में भी 1974 से लागू है |”

यही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही जगहों पर बहुविवाह की मंज़ूरी तो है, लेकिन कोई भी मनमाने ढंग से एक से अधिक शादी नहीं कर सकता | वहाँ दूसरे विवाह या बहुविवाह के इच्छुक व्यक्ति को ‘आर्बिट्रेशन काउंसिल’ में आवेदन करना होता है, जिसके बाद काउंसिल उस व्यक्ति की वर्तमान पत्नी या पत्नियों को नोटिस दे कर उनकी राय जानती है और यह सुनिश्चित करने के बाद कि क्या दूसरा या अन्य विवाह वाक़ई ज़रूरी है तब ही दूसरे या अन्य विवाह की अनुमति देती है |

अब समय बदल गया है | मुसलमानों की पीढ़ियाँ बदल गयी हैं | उनकी आर्थिक-सामाजिक ज़रूरतें बदल चुकी हैं | “मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड” को यह बात समझनी चाहिए और सुधारों की तरफ़ बढ़ना चाहिए | न बढ़ने का सिर्फ़ एक कारण हो सकता है | वह यह कि कहीं सुधारों का यह रास्ता यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की तरफ़ तो नहीं जाता ?

यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड से उसके डरने का एक ही कारण है | वह यह कि ऐसा कोड आ जाने के बाद मुसलिम समाज पर “मुल्ला-मौलवियों” की पकड़ ढीली हो जायेगी | चूँकि बोर्ड पर इन्हीं लोगों का दबदबा है, इसलिए न उन्हें सुधार पसन्द है और न “यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड” | वह यथास्थिति बनाये रखना चाहता हैं, भले ही इससे मुसलिम समाज के आगे बढ़ने के रास्ते बन्द ही क्यों न हो जायें !

विचारणीय बात !

जब हम हिंदुराष्ट्र की बात करते हैं तो मुसलमान कहते है कि उन्हे देश ‘धर्मनिरपेक्ष’ चाहिए । लेकिन इनका दोगलापन देखें कि मुसलमानों को देश तो ‘धर्मनिरपेक्ष’ चाहिए लेकिन कानून ‘महज़बी’ चाहिए ।

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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