वैदिक ज्योतिष में राशियों का प्रयोग मात्र कृषि गणना के लिय होता था !

भारत का प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य वैदिक साहित्य है ! वैदिक कालीन भारतीय यज्ञ किया करते थे ! यज्ञों के विशिष्ट फल प्राप्त करने के लियह उन्हें निर्धारित समय पर करना आवश्यक था इसलिए वैदिककाल से ही भारतीयों ने वहधों द्वारा सूर्य और चंद्रमा की स्थितियों से काल का ज्ञान प्राप्त करना शुरू किया !

पंचांग सुधार समिति की रिपोर्ट में दिए गए विवरण (पृष्ठ 218) के अनुसार ऋग्वेद काल के आर्यों ने चांद्र सौर वर्षगणना पद्धति का ज्ञान प्राप्त कर लिया था ! वह 12 चांद्र मास तथा चांद्र मासों को सौर वर्ष से संबद्ध करनेवाले अधिमास को भी जानते थे ! दिन को चंद्रमा के नक्षत्र से व्यक्त करते थे ! उन्हें चंद्रगतियों के ज्ञानोपयोगी चांद्र राशिचक्र का ज्ञान था ! वर्ष के दिनों की संख्या 366 थी, जिनमें से चांद्र वर्ष के लियह 12 दिन घटा देते थे ! रिपोर्ट के अनुसार ऋग्वेदकालीन आर्यों का समय कम से कम 1,200 वर्ष ईसा पूर्व अवश्य होना चाहिए ! लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ओरायन के अनुसार यह समय शक संवत्‌ से लगभग 4000 वर्ष पहले ठहरता है !

यजुर्वेद काल में भारतीयों ने मासों के 12 नाम मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नमस्‌, नमस्य, इष, ऊर्ज, सहस्र, तपस्‌ तथा तपस्य रखे थे ! बाद में यही पूर्णिमा में चन्द्रमा के नक्षत्र के आधार पर चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन हो गए ! यजुर्वेद में नक्षत्रों की पूरी संख्या तथा उनकी अधिष्टात्री देवताओं के नाम भी मिलते हैं !

यजुर्वेद में तिथि तथा पक्षों, उत्तर तथा दक्षिण अयन और विषुव दिन की भी कल्पना है ! विषुव दिन वह है जिस दिन सूर्य विषुवत्‌ तथा क्रांतिवृत्त के संपात में रहता है ! श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित के अनुसार यजुर्वेद कालिक आर्यों को गुरु, शुक्र तथा राहु-केतु का ज्ञान था ! यजुर्वेद के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है ! यदि हम पाश्चात्य पक्षपाती, कीथ का मत भी लें तो यजुर्वेद की रचना 600 वर्ष ईसा पूर्व हो चुकी थी ! इसके पश्चात्‌ वहदांग ज्योतिष का काल आता है, जो ईo पूo 1,400 वर्षों से लेकर ईo पूo 400 वर्ष तक है ! वहदांग ज्योतिष के अनुसार पाँच वर्षों का युग माना गया है, जिसमें 1830 माध्य सावन दिन, 62 चांद्र मास, 1860 तिथियाँ तथा 67 नाक्षत्र मास होते हैं !

युग के पाँच वर्षों के नाम हैं : संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर तथा इद्ववत्सर इसके अनुसार तिथि तथा चांद्र नक्षत्र की गणना होती थी ! इसके अनुसार मासों के माध्य सावन दिनों की गणना भी की गई है ! वहदांग ज्यातिष में जो हमें महत्वपूर्ण बात मिलती है वह युग की कल्पना, जिसमें सूर्य और चंद्रमा के प्रत्यक्ष वहधों के आधार पर मध्यम गति ज्ञात करके इष्ट तिथि आदि निकाली गई है ! आगे आनेवाले सिद्धांत ज्योतिष के ग्रंथों में इसी प्रणाली को अपनाकर मध्यम ग्रह निकाले गए हैं !

वहदांग ज्योतिष और सिद्धान्त ज्योतिष काल के भीतर कोई ज्योतिष गणना का ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता ! किंतु इस बीच के साहित्य में ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट है कि ज्योतिष के ज्ञान में वृद्धि अवश्य होती रही है, उदाहरण के लियह, महाभारत में कई स्थानों पर ग्रहों की स्थिति, ग्रहयुति, ग्रहयुद्ध आदि का वर्णन है ! इससे इतना स्पष्ट है कि महाभारत के समय में भारतवासी ग्रहों के वहध तथा उनकी स्थिति से परिचित थे !

सिद्धान्त ज्योतिष प्रणाली से लिखा हुआ प्रथम पौरुष ग्रंथ आर्यभट प्रथम की आर्यभटीयम्‌ (शक संo 421) है ! तत्पश्चात्‌ बराहमिहिर (शक संo 427) द्वारा संपादित सिद्धांतपंचिका है, जिसमें पेतामह, वासिष्ठ, रोमक, पुलिश तथा सूर्यसिद्धांतों का संग्रह है ! इससे यह तो पता चलता है कि बराहमिहिर से पूर्व यह सिद्धांतग्रंथ प्रचलित थे, किंतु इनके निर्माणकाल का कोई निर्देश नहीं है !

सामान्यत: भारतीय ज्योतिष ग्रंथकारों ने इन्हें अपौरुषेय माना है ! आधुनिक विद्वानों ने अनुमानों से इनके कालों को निकाला है और यह परस्पर भिन्न हैं ! इतना निश्चित है कि यह वहदांग ज्योतिष तथा बराहमिहिर के समय के भीतर प्रचलित हो चुके थे ! इसके बाद लिखे गए सिद्धांतग्रंथों में मुख्य हैं : ब्रह्मगुप्त (शक संo 520) का ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, लल्ल (शक संo 560) का शिष्यधीवृद्धिद, श्रीपति (शक संo 961) का सिद्धान्तशेखर, भास्कराचार्य (शक संo 1036) का सिद्धान्तशिरोमणि, गणेश (1420 शक संo) का ग्रहलाघव तथा कमलाकर भट्ट (शक संo 1530) का सिद्धांत-तत्व-विवहक !

गणित ज्योतिष के ग्रंथों के दो वर्गीकरण हैं : सिद्धान्त ग्रन्थ तथा करण ग्रंथ ! सिद्धांतग्रंथ युगादि अथवा कल्पादि पद्धति से तथा करणग्रंथ किसी शक के आरंभ की गणनापद्धति से लिखे गए हैं ! गणित ज्योतिष ग्रंथों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय है: मध्यम ग्रहों की गणना, स्पष्ट ग्रहों की गणना, दिक्‌, देश तथा काल, सूर्य और चंद्रगहण, ग्रहयुति, ग्रहच्छाया, सूर्य सांनिध्य से ग्रहों का उदयास्त, चंद्रमा की शृंगोन्नति, पातविवहचन तथा वहधयंत्रों का विवहचन !

अत: स्पष्ट है कि शुरुआत में ज्योतिष में राशियों का प्रयोग कृषि मास गणना हेतु ही किया जाता था और भविष्य कथन हेतु नक्षत्रों गणना का ही प्रयोग किया जाता था ! कालांतर में भविष्य कथन में भी राशियों का प्रयोग शुरू हो गया !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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