काशी की राजधानी वाराणसी का नामकरण प्राचीनता !! Yogesh Mishra

पुराणों में इस बात का उल्लेख है कि काशी में भगवान शिव निवास करते हैं ! काशी देवताओं की प्रसिद्ध नगरी है ! काशी को हजारों वर्षों से हमारे देश में अपार श्रद्धा के साथ देखा जाता है ! देश के कोने-कोने से साधु व भक्तजन यहां स्नान के लिए आते हैं ! गंगा नदी के किनारे पर बसा हुआ यह शहर भारत में पिछले दो हजार सालों से सभ्यता व संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र रहा है !

काशी को समय-समय पर वाराणसी और बनारस जैसे अनेक नामों से भी जाना जाता रहा है ! काशी अपने रमणीय घाटों के लिए भी जानी जाती है ! इन घाटों पर स्नान करने का अपना ही आनन्द है ! इन घाटों से अनेक कथायें और किंवदंतियां जुड़ी हैं ! कहते है, काशी में प्राण त्यागने से तुरन्त मोक्ष प्राप्त हो जाता है ! राजघाट, दशाश्वमेध घाट, प्रह्लाद घाट, तुलसी घाट, राजेंद्र प्रसाद घाट, केदार घाट, इंदिरा घाट और विजयनगर जैसे यहां अनेक सुन्दर घाट हैं ! इन घाटों के पास बहुत से अखाड़े हैं, जहां साधु दिन-रात पूजा-पाठ में लगे रहते हैं !

यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि काशी की राजधानी वाराणसी का नामकरण कैसे हुआ? बाद की पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार “वरणा’ और “असि’ नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा !

अब हमें विचार करना पड़ेगा कि वाराणसी का उल्लेख साहित्य में कब से आया ! काशी शब्द तो जैसा हम आगे देखेंगे सबसे पहले अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा से आया है और इसके बाद शतपथ में ! लेकिन यह संभव है कि नगर का नाम जनपद में पुराना हो ! अथर्ववेद (4/7/1 ) में वरणावती नदी का नाम आया है और शायद इससे आधुनिक बरना का ही तात्पर्य हो ! अस्सी को पुराणों में असिसंभेद तीर्थ कहा है !

काशी खंड में कहा है कि संसार के सभी तीर्थ असिसंभेद को षोड़शांश के बराबर नहीं होते और यहां स्नान करने से सभी तीर्थों का फल मिल जाता है ! (काशीखण्ड त्रि.से. पृ. 161 ) ! इस तीर्थ के संबंध में इतना ही कहा गया है ! पौराणिक साहित्य में असि नदी का नाम वाराणसी की व्युत्पत्ति की सार्थकता दिखलाने को आया है ! (अग्नि पु. 3520 ) ! यहां एक विचार करने की बात है कि अग्निपुराण में असि नदी को नासी भी कहा गया है !

वस्तुत: इसमें एक काल्पनिक व्युत्पत्ति बनाने की प्रक्रिया दिख पड़ती है ! वरणासि का पदच्छेद करके नासी नाम की नदी निकाली गयी है, लेकिन इसका असि रुप संभवत: और बाद में जाकर स्थिर हुआ ! महाभारत ( 6/10/30 ) तो इस बात की पुष्टि कर देता है कि वास्तव में बरना का प्राचीन नाम वाराणसी था और इसमें से दो नदियों के नाम निकालने की कल्पना बाद की है ! पद्यपुराणांतर्गत काशी महात्म्य में भी “वाराणसीति विख्यातां तन्मान निगदामि व: दक्षिणोत्तरयोर्नघोर्वरणासिश्च पूर्वत). जाऋवी पश्चिमेऽत्रापि पाशपाणिर्गणेश्वर: ! !’ (प.प.वि.मि. 175 ) लिखा है अर्थात् दक्षिण-उत्तर में वरुणा और अस्सी नदी है, पूर्व में जाऋवी (गंगा) और पश्चिम में पाशपाणिगणेश ! मत्स्यपुराण में शिव वाराणसी का वर्णन करते हुए कहते हैं –

वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता !

प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये ! !

अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आती है, वह क्षेत्र मुझे प्रिय है ! यहां अस्सी का उल्लेख नहीं है ! वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्यपुराण में एक और जगह कहा गया है कि

वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा !

भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के ! !

(म.पु.कृ.क.त.पृ. 39 )

मत्स्यपुराण की मुद्रित प्रति में “”वाराणसी नदीमाय यावच्छुष्क नदी तवै” ऐसा पाठ है ! पुराणकार के अनुसार पूर्व से पश्चिम दो योजन या ढ़ाई योजन लम्बाई वरणा से असी तक है, और चौड़ाई अर्द्ध योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक है अर्थात् चौड़ाई के तीन परिमाप बताये हैं ! वास्तव में यहां कोई विशेष विरोधाभास नहीं है- वाराणसी क्षेत्र वरणा नदी से असी तक है, पर गंगा अर्द्धचंद्राकार होने के कारण सीमा निर्देश पूरा नहीं होता ! भीष्मचंड़ी से पर्वतेश्वर तक इसका विस्तार आधा योजन हे ! इनमें भिष्म चंड़ी, शैलपुत्री दुर्गा के दक्षिण में और पर्वतेश्वर सेंधिया घाट पर है ! पद्मपुराण में तो स्पष्टत: चौड़ाई सदर बाजार स्थित पाशपाणिगणेश तक बताई है ! वरणा संगम के आगे कोटवां गांव के पास का भाग गंगा तक लगभग ढ़ाई कोस है (जिसे पद्मपुराण ने ढ़ाई योजन बताया है) !

उक्त उद्धरणों सी जांच पड़ताल से यह पता चलता है कि वास्तव में नगर का नामकरण वरणासी पर बसने से हुआ ! अस्सी और बरणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया !

लेकिन प्राचीन वाराणसी सदैव बरना पर ही स्थित नहीं थी, गंगा तक उसका प्रसार हुआ था ! कम-से-कम पंतजलि के समय में अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तो यह गंगा के किनारे-किनारे बसी थी, जैसी कि अष्टाध्यायी के सूत्र “यस्य आया:’ (2/1/16 ) पर पंतजलि ने भाष्य “अनुगङ्ग’ वाराणसी, अनुशोणं पाटलिपुत्रं (कीलहार्न 6/380) से विदित है ! मौर्य और शुंगयुग में राजघाट पर गंगा की ओर वाराणसी के बसने का प्रमाण हमें पुरातत्व के साक्ष्य से भी लग चुका है !

वरणा शब्द एक वृक्ष का ही द्योतक है ! प्राचीनकाल में वृक्षों के नाम पर भी नगरों के नाम पड़ते थे जैसे कोशंब से कोशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि ! यह संभव है कि वाराणसी और वरणावती दोनों का ही नाम इस वृक्ष विशेष को लेकर ही पड़ा हो !

वाराणसी नाम से उक्त विवेचन से यह न समझ लेना चाहिए कि काशी की इस राजधानी का केवल एक ही नाम था ! कम-से-कम बौद्ध साहित्य में तो इसके अनेक नाम मिलते हैं ! उदय जातक में इसका नाम सुर्रूंधन (सुरक्षित), सुतसोम जातक में सुदर्शन (दर्शनीय), सोमदंड जातक में ब्रह्मवर्द्धन, खंडहाल जातक में पुष्पवती, युवंजय जातक में रम्म नगर (सुन्दर नगर) (जा. 4/119s), शंख जातक में मोलिनो (मुकुलिनी) (जा. 4/15) मिलता है ! इसे कासिनगर और कासिपुर के नाम से भी जानते थे (जातक, 5/54, 6/165 धम्मपद अट्ठकथा, 1/67) ! अशोक के समय में इसकी राजधानी का नाम पोतलि था (जा. 3/39) ! यह कहना कठिन है कि ये अलग-अलग उपनगरों के नाम है अथवा वाराणसी के ही भिन्न-भिन्न नाम है !

यह संभव है कि लोग नगरों की सुन्दरता तथा गुणों से आकर्षित होकर उसे भिन्न-भिन्न आदरार्थक नामों से पुकराते हो ! पंतजलि के महाभाष्य से तो यही प्रकट होता है ! अष्टाध्यायी के 4/3/72 सूत्र के भाष्य में (कीलहार्न 7/213 ) “नवै तत्रेति तद् भूयाज्जित्वरीयदुपाचरेत्’ श्लोक पर पंतजलि ने लिखा है- वणिजो वाराणसी जित्वरीत्युपाचरन्ति, अर्थात् ई. पू. दूसरी शताब्दी में व्यापारी लोग वाराणसी को जित्वरी नाम से पुकारते थे !

जित्वरी का अर्थ है जयनशीला अर्थात् जहां पहुंचकर पूरी जय अर्थात् व्यापार में पूरा लाभ हो ! जातकों में वाराणसी का क्षेत्र उस उपनगर को सम्मिलित कर बारह योजन बताया गया है- (जा. 4, 377, 5, 160) ! इस कथन की वास्तविकता का तो तभी पता चल सकता है जब प्राचीन वाराणसी और उसके उपनगरों की पूरी तौर से खुदाई हो पर बारह योजन एक रुढिगत अंक सा विदित होता है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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