विचार कीजिये कि हम अपने जीवन में कितने तरह के युद्ध लड़ते हैं ! युद्ध का तात्पर्य बस यह नहीं है कि देश की सीमा पर जाकर ही लड़ा जाये ! हम समाज और धर्म के हितार्थ जब किसी भी गलत व्यक्त या व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाते हैं ! तो वह भी युद्ध ही है !
किंतु बहुत से लोग अपने स्वार्थ और अहंकार के पोषण के लिये भी युद्ध करते हैं ! जो लोग निजी हितों में अपने स्वार्थ और अहंकार के लिये युद्ध करते हैं ! वह यदि युद्ध में जीत भी जाते हैं तो उनकी स्थिति हारने से भी बदतर हो जाती है !
इसका मुख्य कारण है यह कि व्यक्ति युद्ध जीत तो लेता है लेकिन समाज में अपनी प्रतिष्ठा खो देता है और स्वार्थ और अहंकार के पोषण के लिये जब व्यक्ति युद्ध करके जीत लेता है ! तब प्रकृति उसको दीक्षित करने के लिये महाशक्ति का दंड देना आरंभ करती है !
महाशक्ति के दंड के विधान के आगे तो साक्षात भगवान भी नतमस्तक हो जाते हैं ! मनुष्य की औकात ही क्या है ?
इसीलिये शास्त्र कहते हैं कि व्यक्ति को धर्म से विमुख होकर कभी भी अपने अहंकार और स्वार्थ के पोषण के लिये कोई भी युद्ध आमंत्रित नहीं करना चाहिये ! क्योंकि इस तरह के युद्ध बस सिर्फ सर्वनाश को ही अपने साथ लेकर आते हैं !
इतिहास गवाह है कि रावण जैसा महा प्रतापी, वैदिक ज्ञान को रखने वाला, कुशल नीतिकार भी शास्त्र के सिद्धांतों के विरुद्ध पर चलकर अपने कुल खानदान सहित नष्ट हो गया ! इसी तरह दुर्योधन और धृतराष्ट्र भी धर्म विरुद्ध आचरण करके अपने कुल खानदान के साथ नष्ट हो गये !
विश्व विजय का ख्वाब लेकर निकलने वाला सिकंदर भी आखिरकार परिस्थितियों से हार कर नष्ट हो गया ! नेपोलियन बोनापार्ट का जीवन तो मृत्यु के समय तक कारावास नहीं गुजरा ! हिटलर को आत्महत्या करनी पड़ी और सम्राट अशोक ने तो कलिंग की लड़ाई के बाद शस्त्र ही त्याग दिये और कभी युद्ध न करने का फैसला लिया !
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि युद्ध चाहे धर्म के लिये हो या अधर्म के लिये ! अंततः जीतने वाला योद्धा भी हारता ही है ! युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं है ! अगर समस्या का वास्तविक समाधान चाहिये तो उन परिस्थितियों को खत्म करना होगा ! जिनकी वजह से युद्ध आमंत्रित होते हैं और वह परिस्थितियां हमारे आपके सोच और संस्कार में निहित हैं !
यदि हम अपनी सोच और संस्कार को बदल दें तो निश्चित रूप से इस पृथ्वी पर किसी भी युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं है ! क्योंकि हम यह मानते हैं कि हमारे सोचने का तरीका कभी गलत नहीं हो सकता यही अल्प अहंकार ही सैकड़ों युद्धों को आमंत्रित करने का कारण है !
इसलिये धर्म के मार्ग का अनुकरण करना चाहिये ! खुद संस्कारवान होने के साथ-साथ अपने आसपास के व्यक्तियों को भी संस्कारवान होने का परामर्श देना चाहिये ! सत्य को स्वीकार कर धर्म का निर्भीकता और निस्वार्थ भाव से अनुसरण करना चाहिये ! तभी इस पृथ्वी पर युद्ध समाप्त होंगे !
अन्यथा तो असुरों और राक्षसों के साथ युद्ध करते-करते देवता भी अंततः थक ही गये थे !