विद्यारम्भ भी एक संस्कार है ! : Yogesh Mishra

विद्यारम्भ और अक्षरारम्भ एक ही संस्कार है ! गृह्य सूत्रों में इसका उल्लेख नहीं मिलता ! इस संस्कार को शिशु के पाँच वर्ष के होने पर करते हैं ! इसे उत्तरायण में किया जाता है ! अनध्याय तिथियों को छोड़ कर इसे किया जाता है ! प्राचीन भारत में प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को विद्या का कार्य नहीं किया जाता था ! अंग्रेजों के आने के बाद बाइबिल की छुट्टियाँ वरेण्य हो गईं और वेद प्रोक्त तिथियाँ हटा दी गईं !

“”गणेश- विष्णु- वाग्- रमा प्रपूज्यपंचमाब्दके”” चार देवता की पूजा कर इस संस्कार को आरम्भ करते हैं ! यह हैं – गणेश, विष्णु ,सरस्वती और लक्ष्मी ! गुड़ और अक्षत से पूजा की जाती है ! बाद में गुरु की पूजा कर शिशु विद्या आरम्भ करता है ! शिशु को पूर्व मुख कर पढ़ाना शुरू किया जाता है ! अपनी शाखा, अपने वेद से पढ़ाई आरम्भ की जाती थी ! शिशु को स्नान करा कर सफेद वस्त्र पहना कर तिलक आदि से विभूषित कर यह संस्कार किया जाता है ! विद्यारम्भ में गायत्री मंत्र से भी आरम्भ करने की प्रथा रही है ! अनेक घरों में हवन करने के बाद इस संस्कार को शुरू किया जाता था !

महर्षि गर्ग ने सरस्वती आराधना के विशेष क्रम को स्थापित किया ! भुवनमातः! सर्ववाङ्गमयरूपे !! आगच्छ आगच्छ ! ॐ द्वारा आसन, अर्घ्य, पाद्य,आचमनीय, स्नानीय, वस्त्र, धूप, दीप, नैवेद्य दे कर पूजा की जाती है ! अंत में शिशु इन चारों देवों सहित गुरु की प्रदक्षिणा करता हुआ प्रसाद ग्रहण करता है !

उपनयन से ही द्विजत्व की प्राप्ति होती है ! इसी संस्कार से संस्कृत शरीर को श्रेष्ठ कहा जाता है और पितृ प्रदत्त शरीर से गुरु प्रदत्त शरीर को उत्तम माना जाता है ! सकल वेद की सारभूता शक्ति गायत्री की दीक्षा इसी संस्कार में दी जाती है !

उप आचार्य समीपे नयनम् गमनं उपनयनं कहलाता है ! किमर्थं आचार्य समीपे गमनं अध्ययनार्थं ! आचार्य के पास क्यों जाया जाता है ! अध्ययन के लिये वेद अध्ययन के लिए ! आचार्य तो माध्यम है ! मूल रूप से अग्नि, सावित्री और गायत्री के निकट जाना उपनयन है !

वेद वेदांग में दक्ष होने के लिए, शिक्षा में अग्रगामी होने के लिए उपनयन संस्कार कराया जाता है ! वेद का ज्ञान , आचार का विधान , शिक्षा का प्रावधान उपनयन से ही आरम्भ होता है !( याज्ञवल्क्य स्मृति 1/15 )

उपनयन काल

ब्राह्मण बटुक का पांचवें या आठवें वर्ष में , क्षत्रिय बटुक का ग्यारहवें वर्ष में, वैश्य बटुक का बारहवें वर्ष में उपनयन का विहित काल होता है ! यदि यह विहित नियत काल विफल हो जायह तो ब्राह्मण को 16 वें, क्षत्रिय को 22 वें, वैश्य को 24 वें वर्ष में अवश्य ही उपनयन करा लेना चाहिए ! ब्रह्मचर्य आश्रम की अवस्था २५ वर्ष तक है ! यदि इस आश्रम में उपनीत होकर कोई न्यूनतम काल तक भी न रहे तो फिर यह आश्रम निरर्थक हो जाता है ! गुरु, विद्या और अग्नि के निकट रहने का जिसे सर्वाधिक समय मिले वह भाग्यवान है ! !

उत्तरायण में चैत्र से लेकर आषाढ़ शुक्ल दशमी पर्यन्त शुभ मुहूर्त में उपनयन किया जाता है ! चैत्र में खर मास होने पर भी मीन के सूर्य में केवल विप्र बटुक का उपनयन किया जाता है ! वैशाख से आषाढ़ तक में सभी त्रिवर्ण का होता है !

बटुक का परिधान, कृष्ण अजिन, मौंजी, मेखला, दण्ड, समिधा, यज्ञोपवीत आदि समर्पण के पश्चात् सावित्री उपदेश किया जाता है ! अभिवादन संस्कार बतलाया जाता है ! अतीत संस्कार का प्रायश्चित किया जाता है ! उपनयन का उपयोग सिखलाया जाता है ! ब्रह्मचारी धर्म का प्रतिपादन किया जाता है !

उपनयन की प्रक्रिया लम्बी है ! इसमें भी आचार्य द्वारा शिष्य का हृदय स्पर्श कर समान हृदय और व्रत की बात की जाती है ! अश्मा रोहण, आचार्य द्वारा बटुक को शिष्यत्व प्रदान, आदेश, आहुति सम्प्रदान आदि क्रियायें की जाती हैं ! उपनयन का महत्त्व पक्ष अलग है और विधान पक्ष अलग !

उपनयन को जगा कर संस्कृति के दिव्य और सर्वजयी पक्ष को खड़ा किया जा सकता है ! आज देश के अनेक नगरों में उपनयन कराने वाली संस्थाएं और आश्रम सक्रिय हैं ! अक्षय तृतीया को सार्वजनिक उपनयन किया जा रहा है ! अविद्या और विद्या दोनों की साधना में उपनयन का अपूर्व महत्त्व है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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