जानिये मनुस्मृति में मिलावट के लिये कौन जिम्मेदार है ? Yogesh Mishra

आर.पी. पाठक द्वारा लिखी गई पुस्तक “एजुकेशन इन दा एमर्जिंग इण्डिया” के पृष्ट संख्या 148 के अनुसार तथा मोटवानी के. की पुस्तक मनु धर्म शास्त्र के पृष्ट संख्या 232 के अनुसार चीन की महान दीवार से प्राप्त हुयी पांडुलिपि में ‘पवित्र मनुस्मृति’ का जिक्र है ! सही मनुस्मृति में 630 श्लोक ही थे ! जिसमें मिलावट करके अब 2400 श्लोक हो गये हैं !

अब सवाल यह उठता है कि जब चीन की इस प्राचीन पांडुलिपी में मनुस्मृति में श्लोकों की संख्या 630 बतालाई गई है, तो आज 2400 श्लोक कैसे हो गयें हैं ? इससे यह स्पष्ट होता है कि बाद में मनुस्मृति में जानबूझकर षड्यंत्र के तहत अनर्गल तथ्य जोड़े गये ! जिसका मकसद महान सनातन धर्म को बदनाम करना तथा भारतीय समाज में फूट डालना था !

मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते ! अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं ! वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है ! ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है ! वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं ! दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है !

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम !
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ! (10/65)

महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को ! इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं ! विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं !

आखिर जिस मनुस्मृति में कहा गया की जन्म से सब शूद्र ही होते है कर्मो से वो ब्राम्हण,क्षत्रिय,वैश्य बनते हैं ! उस समय जातिवाद नही वर्णवाद नियम था ! शूद्र के घर पैदा होने वाला ब्राम्हण बन सकता था ! सब कर्म आधारित था ! आज उसको जातिवाद की राजनीती का केंद्र बना दिया गया है !

मनुस्मृति और सनातन ग्रंथों में मिलावट उसी समय शुरू हो गयी थी जब भारत में बौद्धों का राज बढ़ा क्योंकि बौद्ध धर्म अपने विस्तार के लिये सभी वर्ण के लोगों को दीक्षा देने लगा था ! जिससे बहुत तेजी से बौद्ध धर्म में गिरावट आने लगी ! क्योंकि मनु स्मृति का सहारा लेकर लोग बौद्ध धर्म की इस गिरावट का विरोध करते थे ! अतः उस समय बौद्ध धर्मियों ने इस ग्रन्थ में मिलावट शुरू कर दी ! अगर समयकाल के दृष्टि से देखें तो यह मिलावट का खेल 9 वीं शताब्दी के बाद शुरू हुआ था !

मनुस्मृति पर बौद्धों द्वारा अनेक टीकाएँ भी लिखी गयी थीं ! लेकिन जो सबसे ज्यादा मिलावट हुयी वह अंग्रेजों के शासनकाल में ब्रिटिश थिंक टैंक द्वारा करवाई गयीं जिसका लक्ष्य भारतीय समाज को बांटना था ! यह ठीक वैसे ही किया ब्रिटिशों ने जैसे उन्होंने भारत में मिकाले ब्रांड शिक्षा प्रणाली लागू की थी ! ब्रिटिशों द्वारा करवाई गयी मिलावट काफी विकृत फैलाई !

इसी तरह 9 वीं शताब्दी में मनुस्मृति पर लिखी गयी ‘भास्कर मेघतिथि टीका’ की तुलना में 12 वीं शताब्दी में लिखी गई ‘टीका कुल्लुक भट्ट’ के संस्करण में 170 श्लोक ज्यादा था !

इस चीनी दीवार के बनने का समय लगभग 220 से 206 ईसा पूर्व का है अर्थात लिखने वाले ने कम से कम 220 ईसा पूर्व ही मनु के बारे में अपने हस्तलेख में लिखा !

मनुस्मृति की वेदों के बाद सर्वोपरि मान्यता थी ! वेद देश के अनेक भागों के लोगों को सस्वर स्मरण व कण्ठाग्र थे ! उसमें मिलावट करने का उनका साहस नहीं हुआ ! ऐसे लोगों ने अपनी इच्छा व स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने अपने मत के श्लोक बनाकर मनुस्मृति के बीच में डालना आरम्भ कर दिया !

हमें लगता है कि कुछ श्लोकों का मूल स्वरूप भी परिवर्तित व विकृत किया गया होगा ! इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों मुद्रण की व्यवस्था तो थी नहीं ! हाथ से ताड़ या भोज पत्रों पर लिखा जाता था ! एक प्रति तैयार करने के लिए भी भागीरथ प्रयत्न करना पड़ता था !

अतः ऐसे पठित अज्ञानी व अल्पज्ञानी, स्वार्थी, अन्ध विश्वासी एवं साम्प्रदायिक लोग अपनी इच्छानुसार अपनी हस्त-लिखित प्रतियों में अपने आशय व मत विषयक नये श्लोक बनाकर बीच-बीच में जोड़ देते थे ! उसके बाद वह ग्रन्थ उन्हीं की मनोवृत्तियों वाले उनके शिष्यों के पास पहुंचता था तो वह भी उसमें स्वेच्छाचार करके कुछ नया जोड़ते थे और संशोधित प्रति तैयार कर लेते थे ! फिर उसी प्रक्षिप्त अंशों सहित मनुस्मृति की कथा अज्ञानी व अंधविश्वासी श्रद्धालुओं में करते थे !

इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी ! हमें लगता है प्रक्षेप करते समय किसी प्रतिलिपि कर्ता ने अपने गुरूओं की आज्ञानुसार अच्छी बातें भी जोड़ी होगीं परन्तु मिथ्या प्रक्षेपों का क्रम मध्यकाल में स्वच्छन्दापूर्वक जारी रहा जिसका प्रमाण परस्पर विरोधी मान्यताओं का यह मनुस्मृति ग्रन्थ बन गया !

यह सामान्य बात है कि जब भी कोई विद्वान कोई ग्रन्थ लिखता है तो उसमें विरोधाभास व परस्पर विरोधी मान्यतायें नहीं हुआ करती ! पुनरावृत्ति का दोष भी नहीं होता ! ऋषि व महर्षि तो साक्षात्कृतधर्मा होते हैं जिन्हें सत्य व असत्य का पारदर्शी ज्ञान होता है ! उनके कथन व लेखन में असत्य, सामाजिक असमानता व विषमता व पुनरावृत्ति जैसी बातों का होना असम्भव है ! यदि किसी प्राचीन ग्रन्थ में ऐसा पाया जाता है तो वह प्रक्षेपों के कारण ही होता है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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