अदृश्य शिव दृष्य प्रपंच (लिंग) का मूल कारण है ! इसीलिये अव्यक्त पुरुष को शिव तथा अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा जाता है ! वहाँ इस गंध वर्ण तथा शब्द, स्पर्श, रूप आदि से रहित रहते हुए भी शिव ब्रह्माण्ड के निर्गुण ध्रुव तथा अक्षय ही हैं ।
उसी अलिंग शिव से पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंच कर्मेन्द्रियाँ, पंच महाभूत, मन, स्थूल सूक्ष्म जगत उत्पन्न हुये हैं और उसी की माया से व्याप्त रहते हैं ।
शिव ही त्रिदेव के रूप में सृष्टि का उद्भव, पालन तथा संहार करते हैं ! वही अलिंग शिव योनी तथा बीज में आत्मा रूप में अवस्थित रहते हैं ।
उस शिव की शैवी प्रकृति रचना प्रारम्भ में सतोगुण से संयुक्त रहती है। अव्यक्त से लेकर व्यक्त तक में समस्त ब्रह्माण्ड में उसी का स्वरूप कहा गया है ।
इस विश्व को धारण करने वाली प्रकृति ही शिव की माया है ! जो सत- रज- तम तीनों गुणों के संयोग से सृष्टि का कार्य करती है ।
वही परमात्मा सृजन की इच्छा से अव्यक्त में प्रविष्ट होकर महा तत्व की रचना करता है । उससे ही त्रिगुण अहं रजोगुण प्रधान उत्पन्न होते हैं ।
अहंकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध यह पाँच तन्मात्रयें उत्पन्न होती हैं ।
सर्व प्रथम शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श, स्पर्श से वायु, वायु से रूप, रूप से अग्नि, अग्नि से रस, रस से गन्ध, गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न हुई।
आकाश में एक गुण, वायु में दो गुण, अग्नि में तीन गुण, जल में चार गुण और पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पाँचों गुण मिलते हैं।
अतः शैव तन्मात्रायें ही पंच भूतों की जननी हैं ।
सतोगुणी अहं से ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन, बुद्धि, चित्त, संस्कार, रसास्वादन आदि की उत्पत्ति हुई है ।
शिव ओर से पृथ्वी तक सारे तत्वों का अण्ड बना जो दस गुने जल से घिरा है। इस प्रकार जल को दस गुणा वायु ने, वायु को दस गुणा आकाश ने घेर रक्खा है। इन सब की आत्मा शिव ही हैं ।
इसलिए शिवलिंग ही सर्वश्रेष्ठ है ! अत: शिवलिंग के महत्व का वैज्ञानिक महत्व समझाने वाला लिंग पुराण सभी ग्रंथों में सर्वक्षेष्ठ है !