झूठ बोलने वाले शासक से मौन शासक फिर भी अच्छा है, कम से कम वह जनता को गुमराह तो नहीं करता ! लोकतंत्र से राजतंत्र फिर भी अच्छा था ! राजाओ के शासन काल में भारत के लोग ज्यादा सुखी थे, वो राजा राज्य की प्रजा को अपनी संतान के समान मानते थे,
अंतिम नागरिक से भी व्यक्तिगत रूप से मिलते थे, अपनी आलोचना सुनने का साहस उनमें होता था, न्याय के लिए वो अपने प्राण तक न्योछावर कर देते थे, आज के राजनेता जनता को गुमराह करके भारत को लूट रहे हैं । प्रजा इनसे त्रस्त है !
संसद के सदस्य जनता का सदन में ईमानदारी से प्रतिनिधित्व नहीं करते ! सदन वैसे ही कम चलता है और जो चलता भी है, उसमें सांसद आपने निजी विवादों के चलते सदन की प्रक्रिया में कई तरह के अवरोध पैदा करते हैं ! जिससे जनता को मूलभूत राहत भी नहीं मिल पाती ! संसद के सदस्य अपनी सुविधाओं और भोग विलास में डूबे हुए हैं !
देश के हर नागरिक की पहुंच महंगी न्यायपालिका तक नहीं है ! न्याय में के विलम्ब के कारण जनता में तीव्र असंतोष है ! क्या यह सभी मुद्दे पर्याप्त नहीं हैं, भारत की समूची शासन व्यवस्था पर पुनर्विचार करने के लिए “भारत का संविधान” (कुरान, बाईबिल की तरह) ईशवरीय आदेश नहीं है कि जिसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता ! यदि हमें सुख से जीना है तो “अंग्रेज शासकों द्वारा थोपे गए” “भारत के संविधान पर” एक बार पुनर्विचार आवश्यक है !