आध्यात्मिक व्यक्ति संसार से उदासीन क्यों हो जाता है ? Yogesh Mishra

कर्मों के परिणाम को भोगने का मुख्य आधार शरीर ही है ! शरीर को पोषण विभिन्न तरह के विटामिन और मिनिरल खनिज आदि से मिलता है ! जब व्यक्ति के शरीर में साधना, उपासना, व्रत आदि करने के कारण खनिज या विटामिंस की कमी हो जाती है तो व्यक्ति के शरीर का संचालन बाधित होने लगता है !

मस्तिष्क को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन व अन्य तत्वों की सप्लाई नहीं हो पाती है ! जिस कारण मस्तिष्क शरीर के विभिन्न अंगों को ऊर्जात्मक निर्देश देने में बाधा महसूस करता है और विटामिंस व मिनरल्स के अभाव में आत्मरक्षा के लिये मस्तिष्क शरीर के विभिन्न अंगों को ऊर्जा निर्देश देना बंद कर देता है !

व्यक्ति का शरीर धीरे धीरे शिथिल पड़ने लगता है और एक लंबे समय तक विटामिंस और खनिजों के अभाव में वह शरीर निर्बल होने लगता है ! जबकि उसमें जीवनी ऊर्जा पर्याप्त मात्रा में होती है ! क्योंकि जीवनी ऊर्जा व्यक्ति को भोग के लिये ईश्वर द्वारा आयु के रूप में प्रदत्त है ! अतः ऐसी स्थिति में शरीर में जीवनी ऊर्जा तो पर्याप्त होती है किंतु शरीर को संचालित करने के लिये विटामिंस और खनिजों के अभाव में सांसारिक ऊर्जा के अभाव के कारण शरीर शिथिल हो जाता है !

व्यक्ति एक ही स्थान पर बैठा रहना पसंद करता है ! इसलिये व्यक्ति ध्यान आदि में अधिक रुचि लेने लगता है ! शक्ति के आभाव में व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति के साथ वार्ता करने में रुचि समाप्त हो जाती है ! इसलिये व्यक्ति मौन साधना आदि की तरफ बढ़ जाता है ! शारीरिक शिथिलता के कारण शरीर की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति न हो पाने के कारण सांसारिक ऊर्जा के अभाव में विपरीत लिंग, यश, धन आदि के प्रति भी आकर्षण समाप्त हो जाता है !

और संसार में रहने के लिये जितने सांसारिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वह सांसारिक ऊर्जा जब व्यक्ति विटामिंस और मिनरल्स के अभाव में नहीं लेता है तो धीरे-धीरे रसास्वादन करने वाली इंद्रियां भी शिथिल होने लगती हैं और फिर धीरे-धीरे व्यक्ति के इंद्रियों में रसास्वादन करने की इच्छा भी समाप्त होने लगती है !

इसी को सांसारिक भाषा में कहा जाता है कि साधक माया मोह से दूर होकर अपनी साधना में लगा रहता है ! जब तक भोग हेतु जीवनी ऊर्जा शरीर में रहती है तब तक सांसारिक ऊर्जा के अभाव में व्यक्ति जीवित तो रहता है लेकिन सांसारिक कार्यों में पूरी तरह निष्क्रिय रहता है ! वह कोई भी नया काम नहीं करता है और न ही किसी भी कर्म में किसी भी तरह का रसास्वादन करता है ! यही स्थिति उसके मोक्ष का आधार बनती है !

इसीलिये सनातन जीवन शैली में मोक्ष की कामना रखने वाले व्यक्ति को बहुत सांसारिकता में न उलझने की सलाह हमारे ऋषि मुनि लंबे समय से देते आ रहें हैं !

लेकिन इसके विपरीत यह भी एक कठोर सत्य है कि यदि साधक में पर्याप्त मात्रा में विटामिंस और मिनरल्स की निरंतरता बनाये रखा जाये तो उसे अपने चित्त की चंचलता को नियंत्रित करने में अत्यंत परिश्रम करना पड़ेगा और यह भी संभव है चित्त की चंचलता को रोकने के बाद पुनः साधक बार-बार नये कर्मों में रूचि लेकर रसास्वादन करने लगे और वह पुनः नये बंधनों में बंध जाये !

जिससे नये प्रारब्ध का निर्माण हो और उसे पुनः भोग योनि में आकर इस पृथ्वी पर आवागमन के चक्र में फंस जाना पड़े ! इसलिये यदि व्यक्ति मोक्ष की कामना करता है तो यह आवश्यक है कि वह सांसारिक आहार-विहार, विचार और विशेष रूप से भोजन को नियंत्रित रखना चाहिये !

आपने देखा होगा जैन संत या गंभीर साधक जो कि सांसारिक आहार-विहार को नियंत्रित करते हैं ! वह प्राय: बहुत अल्पाहार लेकर अपने कामनाओं और वासनाओं को नष्ट कर देते हैं और नये प्रारब्ध का निर्माण नहीं होने देते हैं ! मोक्ष प्राप्ति का यही एक सरल और सहज मार्ग है ! इस मार्ग पर उसी व्यक्ति को चलना चाहिये ! जिसने अपने सांसारिक कर्तव्यों का निर्वहन पूरी तरह से कर लिया हो क्योंकि सांसारिक कर्तव्यों के निर्वहन के लिये शरीर और मस्तिष्क दोनों का सक्रिय होना आवश्यक है !

यदि आप पंखा धीमा करने को कहते हैं, जब बाकी को गर्मी लग रही हो, क्योंकि आपका शरीर अधिक ठंड महसूस करता है या फिर आप हाथ-पैरों में झनझनाहट और जलन अथवा ठंडे पड़ने, जोड़ों में दर्द बढ़ने, कुछ भी याद रखने में परेशानी, दिल की धड़कनें तेज होने और सांस के चढ़ने, त्वचा पीली पड़ने, मुंह तथा जीभ में दर्द, भूख कम लगने, कमजोरी महसूस होने, धुंधलेपन, वजन घटने, बारंबार डायरिया या कब्‍ज, चलने में कठिनाई, अनावश्यक थकान, डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं !

तो आप निश्चित तौर पर सफल साधक तो हो सकते हैं ! पर एक सफल सांसारिक व्यक्ति कभी नहीं ! क्योंकि सांसारिक व्यक्ति को शरीर को स्वस्थ और सुचारू रूप से चलायमान रखने के लिये कई तत्व मिलकर काम करते हैं ! जिसमें विटामिन एक ऐसा कार्बनिक मिश्रण है जिसकी आवश्यकता बहुत ही थोड़ी मात्रा में शरीर को स्वस्थ्य बनाये रखने के लिये होती है ! शरीर को संचालित करने वाले विटामिन कई प्रकार के होते है जैसे विटामिन डी, विटामिन ई, विटामिन ए, विटामिन के, विटामिन बी12, फोलिक ऐसिड, विटामिन बी5, विटामिन बी6, विटामिन बी3 इन तत्वों की कमी शरीर को कई प्रकार से नुकसान पहुंचा सकती है !

विटामिन में ऐसे ही तत्व हैं जो कि शरीर की वृध्दि, हड्डियों की मजबूती और नष्ट कोषों के स्थान पर नए कोषों के निर्माण में सहायक होते हैं ! छोटे बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में इनकी प्रमुख भूमिका रहती है ! एक स्वस्थ शरीर में हर तत्व का निश्चित अनुपात में रहना आवश्यक है !

इसी तरह खनिज, जैसे कैल्शियम, मैग्नीशियम, जस्ता और फॉस्फोरस आदि का भी संतुलन आवश्यक है !
इसके अनुपात में कमी या ज्यादा होने पर ही कई प्रकार के विकार व रोग भी हो सकते हैं ! जो आपकी साधना में बाधक हो सकते हैं ! अत: विटामिन को संतुलित मात्रा में आवश्यकता के अनुरूप अपने दैनिक जीवन में पोषक आहार के माध्यम से लेते रहने से इसके अनुपात को ठीक रखा जा सकता है !

इसलिये सांसारिक जिम्मेदारी पूरी करने के बाद ही साधना, व्रत, उपवास आदि प्रारम्भ करना चाहिये !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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