मात्र 31 वर्षीय अथर्व के पुत्र महर्षि दधीचि की हड्डियों वज्र बने के लिये इंद्र महर्षि दधीचि के जीवित ही उनके शरीर से निकल लीं थी ! जिससे उनके उनकी मृत्यु के बाद उनका तपोबल से अर्जित तेज कहीं उनकी अस्थियों से लुप्त न हो जाये ! जिस तपोबल के तेज से परम शिव भक्त वृत्रासुर की हत्या की जा सके ! जो इन्द्र के वैष्णव साम्राज्य के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा था !
महर्षि दधीचि हड्डियों से 3 धनुष बने- 1. गांडीव, 2. पिनाक और 3. सारंग ! पिनाक शिव के पास था जिसे रावण ने ले लिया था ! रावण से यह परशुराम के पास चला गया। परशुराम ने इसे राजा जनक को दे दिया था ! जिसे विश्वामित्र के भड़काने पर राजा जनक के यहाँ प्रवास के दौरान राम ने तोड़ दिया था ! सारंग विष्णु के पास था ! जिसे विष्णु के रावण की हत्या के लिये राम को दिया था और बाद में श्रीकृष्ण के पास आ गया था ! गांडीव शिव ने अग्निदेव को दिया था जिसे कृष्ण के आग्रह पर अग्निदेव ने अर्जुन को दे दिया था !
इस महर्षि दधीचि के अस्थि दान की घटना के उपरांत श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् भी पति की चिता में सती हो गयीं !
यह सारा क्रम तथाकथित देवताओं के सामने होता रहा लेकिन किसी भी धूर्त देवता ने महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी के बलिदान के बाद उस 3 वर्षीय बालक की चिंता नहीं की !
किन्तु जब उस पीपल के कोटर में रखे 3 वर्षीय बालक को भूख प्यास लगी और वह तड़प तड़प कर रोने लगा, तब किसी देवता ने उसकी पीड़ा नहीं सुनी !
कोई भी वस्तु जब उसे उस जंगल में खाने योग्य नहीं मिली तो उस बालक ने उस पीपल के कोटर में गिरे हुये पीपल के फल को खाकर अपना पोषण करना शुरू किया और धीरे धीरे बड़ा होने लगा ! कालान्तर में पीपल के पत्ते और फल को खाकर बालक के बड़े होने पर उसे लोग पिप्लादी ऋषि कहने लगे ! इस तरह महर्षि दधीचि के पुत्र पिप्लादी ऋषि ने अपना जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित बनाये रखा !
बड़े हो जाने पर एक बार देवर्षि नारद से उसकी मुलाकात हुयी ! तब नारद ने महर्षि पिप्लादी को बतलाया कि तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने शैव उपासक वृत्रासुर को मार कर उस पर विजय प्राप्त की थी ! जिससे वैष्णव साम्राज्य विस्तार में मदद मिली !
तब महर्षि पिप्लादी ने नारद जी से अपने माता-पिता के अकाल मृत्यु का कारण पूंछा, तो नारद ने बतलाया कि इस पूरे घटना क्रम का कारण तुम्हारे माता-पिता और तुम्हारे ऊपर शनि की महादशा थी !
नारद से यह जानने के बाद बालक पिप्पलाद ने ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी व्यक्ति या वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी ! ब्रह्मा जी ने तथास्तु का वरदान दे दिया !
ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने आने पर आँखे खोलकर उनको भष्म करना शुरू कर दिया ! शनिदेव सशरीर जलने लगे ! पूरे ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया ! सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गये ! सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनती करने लगे !
अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही, किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुये ! तब ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही ! तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
1 – जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक पर शनि का नकारात्मक प्रभाव नहीं होगा ! जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो !
2 – मुझ अनाथ को पीपल वृक्ष ने शरण दी है। अतः जो भी व्यक्ति शनिवार की शाम सूर्यास्त के बाद पीपल के वृक्ष पर जल चढ़ा कर उस पर सरसों के तेल का दिया जलाये उसे शनि की महादशा में भी कष्ट न भोगना पड़े !
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया ! तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गये और वह पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे !
अतः तभी से शनि “शनै:चरति य: शनैश्चर:” अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गयी !
आगे चलकर अपने तपोबल और अनुभूतियों से महर्षि पिप्पलाद ने एक ग्रन्थ “प्रश्न उपनिषद” की रचना की,जो आज भी परा और अपरा ज्ञान का अकूत भंडार है !