उचित ज्ञान के अभाव में प्राय: व्यक्ति अपने संस्कारों की हठधर्मिता को नहीं पहचान पाता है और किसी अयोग्य गुरु के मार्गदर्शन में फंस कर प्रतिदिन जीवन के डेढ़ 2 घंटे ध्यान के नाम पर बर्बाद करने लगता है !
यह प्रक्रिया कभी भी किसी भी व्यक्ति का विकास नहीं कर सकती है, बल्कि यह हममें ध्यानी या साधक होने का अहंकार जरूर पैदा कर सकती है !
प्राय: व्यक्ति यह समझता है कि सुखासन में बैठकर दोनों आंखों के मध्य आज्ञा चक्र का चिंतन कर लेने मात्र से व्यक्ति ध्यान को प्राप्त कर लेता है ! जो कि एक भ्रम है लेकिन समाज में प्रचलित यह तरीका ही पूर्णतय: अवैज्ञानिक और अहंकार से भरा हुआ है !
सत्यता तो यह है कि ध्यान के लिए न तो कोई विशेष आसन की आवश्यकता है और न ही कोई विशेष प्रक्रिया की ! ध्यान विचारों के स्थिरता के बाद मनुष्य को स्वत: प्राप्त होने की एक स्वाभाविक अवस्था है !
ध्यान कभी भी प्रयास, हठ या पुरुषार्थ से नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य सदैव ध्यान में ही रहता है ! वह तो मात्र संसार में जीने के लिए अपने को ध्यान से विमुख कर संसार में लिप्त होता है !
और संसार में लिप्त होते होते उसका अवचेतन मन यह भूल ही जाता है कि यह उसकी स्वाभाविक अवस्था नहीं है और वह ध्यान द्वारा मन की शांति प्राप्त करने के लिये अयोग्य गुरुओं के माया जाल में फंसकर अपना धन और समय दोनों बर्बाद करता रहता है !
ध्यान को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है ! बस वह अपने मस्तिष्क में जो संसार का ताना-बाना बना रहा है, उसको छोड़ देने मात्र से व्यक्ति को ध्यान की अवस्था प्राप्त हो जाती है !
किंतु हमारा मन, मस्तिष्क, विचार, संस्कार और अवचेतन मन सब इस संसार के ताना-बाना को बुनने के इतना व्यस्त हो गये हैं कि अब हमें यह विचार ही नहीं आता है कि हम इसके बिना भी संसार में जी सकते हैं !
इसलिए ध्यान के लिए कहीं मत भटकिये ! किसी योग्य गुरु की तलाश मत करिये ! मात्र अपने मस्तिष्क को सांसारिक ताना-बाना बुनने से मुक्त कर लीजिए, ध्यान आपको स्वत: प्राप्त हो जायेगा ! इसके लिए “नीति नीति” का सिद्धांत ही सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत है !
अर्थात जिसमें आपके लिए हर अनुपयोगी विचार को त्याग देना ही आपको ध्यान की उच्च अवस्था को प्राप्त करवा सकता है और यह अवस्था व्यक्ति को कहीं भी, कभी भी, किसी भी अवस्था में प्राप्त हो सकती है !!