इजराइल के विकास और भारत के पतन का तांत्रिक कारण : Yogesh Mishra
क्या आपको मालूम है कि सत्रहवीं सदी के पहले यहूदियों के झंडे में पांच कोणों वाले एक निशान का प्रयोग होता था, जिसे “किंग सोलोमन” से संबंधित बतलाया जाता था ! लेकिन सत्रहवीं सदी के बाद पूरी दुनिया के यहूदियों ने पांच कोणों वाले एक निशान की जगह भारतीय तंत्र विद्या के आधार “मूल त्रिकोण” को अपना लिया ! जो आज इजराइल के झंडे में मौजूद है !
भारत में इस निशान का प्रयोग तंत्र विद्या में किया जाता है ! तंत्र में इसे लगभग हर प्रकार के यंत्र निर्माण के मूल में रखा जाता है ! इसका कारण है ! यह सनातन तंत्र का मूल यंत्र है !
इस यंत्र में सात खाने होते हैं, जो शरीर के भीतर सात चक्रों को परिभाषित करते हैं ! इसलिये इसे मूल चक्र कहा जाता है ! इसकी खोज शैवों ने की थी ! जिसे बाद में वैष्णव ही नहीं बल्कि विश्व के सभी विधा के तांत्रिकों ने यंत्र आधार के रूप में अपनाया !
फिर चाहे राम यंत्र हो, हनुमान यंत्र हो, श्री यंत्र हो या फिर बगलामुखी यंत्र हो ! आज जितने भी प्रभावशाली यंत्र बनते हैं ! उनके मूल में यही सात खाने वाला मूल यंत्र प्रयोग किया जाता है क्योंकि शैव तंत्र में भी मान्यता है कि यह मूल यंत्र मनुष्य ही नहीं बल्कि सभी जीवों की रक्षा करता है ! क्योंकि यह दोनों त्रिकोणों पर आधारित चिन्ह सृष्टि के विस्तार और शक्ति का आधार है !
किन्तु सनातन तंत्र में इससे भी शक्तिशाली एक चिन्ह और भी है और वह है स्वास्तिक चिन्ह ! जिसके महत्व को हिटलर ने समझा था ! किन्तु हिटलर ने इस स्वास्तिक चिन्ह का प्रयोग उल्टे आकृति में किया था ! जो विस्तार के उपरान्त पुनः सृष्टि के विलय का प्रतीक है !
इसी तांत्रिक चिन्ह की वजह हिटलर का बहुत तेजी से विकास हुआ ! लेकिन स्वास्तिक के उल्टे चिन्ह का प्रयोग करने के कारण बहुत ही कम समय में उसका साम्राज्य भी खत्म हो गया !
इस वजह से सनातन प्रतीक चिन्हों को कभी भी हल्के में नहीं लेना चाहिये ! यह भारत के प्राचीन ऋषियों मुनियों द्वारा खोजे गये सृष्टि के वह मूल चिन्ह हैं, जिनके आधार पर भारत का सनातन प्रभावशाली शैव तंत्र विज्ञान विकसित हुआ था !
भारतीय ध्वज के केंद्र में स्थापित चक्र ही आज भारत के क्रमिक विकास में बाधक है ! जो पूर्व में भी अशोक के साम्राज्य के पतन का कारण रहा ! इस संदर्भ में मैं अपना लेख पूर्व में प्रकाशित कर चुका हूं !
इसलिये राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में जिन चिन्हों को अपनाया जाता है ! उसके लिये बहुत सोच विचार के साथ साथ सनातन संस्कृत के अध्ययन की भी आवश्यकता होती है !
यह किसी भी तरह से मनोरंजन या संभावनाओं पर आश्रित चिन्ह के रूप में स्वीकार नहीं किये जाने चाहिये ! क्योंकि राष्ट्र का अस्तित्व इन्हीं प्रतीक चिन्ह के इर्द-गिर्द विकास या क्षय की गति को प्राप्त करता है !!