लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि यदि आम जनमानस की भावनाओं का जनप्रतिनिधि सम्मान न करें तो नागरिकों को यह अधिकार है कि वह अपने मौलिक अधिकार की रक्षा के लिये संगठन या समूह बनाकर आंदोलन खड़ा कर सकते हैं ! इसके लिये उन्हें किसी से आज्ञा लेने की आवश्यकता नहीं है ! क्योंकि किसी भी सामान्य सामाजिक उद्देश्य के लिये संगठन या समूह बनाना व्यक्ति के मौलिक अधिकार है !
वैसे शासन सत्ता में बैठे हुये लोग नागरिकों के इस मौलिक अधिकार को कुचलने के लिये समय-समय पर बहुत से उपाय उपबंध करते रहते हैं ! जिसमें पिछले कुछ वर्षों से इसे कुचलने के लिये जो हथकंडा अपनाया गया था ! वह यह था कि आम नागरिक शासन सत्ता की जिने नीतियों के विरोध में आंदोलन खड़ा करता है ! उस आंदोलन को करने के लिये उसी शासन सत्ता के पदाधिकारियों से उसे आज्ञा लेनी आवश्यक है !
जिस आज्ञा को लेने की कोई भी सामान्य सर्वमान्य प्रक्रिया पूरे भारत में कहीं भी वर्णित नहीं है और न ही इस प्रक्रिया के तरह किसी आज्ञा को लेने की व्यवस्था किसी कानून के अंतर्गत अधिनियम बनाकर प्रस्तुत गई है !
लेकिन फिर भी शासन सत्ता के नुमाइंदे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके आम जनमानस के आंदोलन के अधिकार का समय-समय पर हनन करने के लिये नई-नई नीतियों का निर्धारण करते हैं !
इस तरह के आंदोलन की आज्ञा लेने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आम व्यक्ति इस प्रक्रिया से गुजरने का साहस भी नहीं कर पाता है ! यदि आपको किसी सामान्य से विषय से असंतोष है और आप आन्दोलन करना चाहते हैं ! तो आपको सर्वप्रथम जिला अधिकारी कार्यालय में अपने असंतोष को आंदोलन के रूप में व्यक्त करने के लिये आज्ञा लेनी पड़ेगी ! जिसमें आपको फॉर्म भरकर सबमिट करना होगा ! उसमें यह सूचना देनी होगी कि यह आंदोलन कब, कहां, किसके नेतृत्व में, कितने जन बल के साथ, किस उद्देश्य के लिये शुरू हो रहा है !
फिर आपके द्वारा दाखिल किये गये फार्म पर जिला अधिकारी कार्यालय से जांच शुरू की जायेगी ! जिस प्रक्रिया में जिला अधिकारी कार्यालय से फार्म अपर जिला अधिकारी के कार्यालय जायेगा ! अपर जिला अधिकारी पुलिस अधीक्षक को भेजेगा ! पुलिस अधीक्षक आपके आंदोलन के उस क्षेत्र अधिकारी को भेजेगा ! क्षेत्र अधिकारी थानेदार को भेजेगा ! थानेदार उसे आंदोलन स्थल के चौकी इंचार्ज को भेजेगा फिर चौकी इंचार्ज उस आंदोलन को करने की आज्ञा प्रदान करेगा ! तब वह फार्म पुन: संबंधित थाने में आयेगा ! उस थाने से क्षेत्र अधिकारी के पास आयेगा ! क्षेत्र अधिकारी के पास से पुलिस अधीक्षक के पास आयेगा और पुलिस अधीक्षक के यहां से अतिरिक्त जिला अधिकारी प्रशासन के कार्यालय में जायेगा !
अतिरिक्त जिला अधिकारी प्रशासन कार्यालय से वह फार्म फिर फायर ब्रिगेड के ऑफिस जायेगा और फायर ब्रिगेड के पदाधिकारियों की रिपोर्ट लगने के बाद वह पुनः अतिरिक्त जिला अधिकारी के कार्यालय आयेगा ! फिर वहां से जिला अधिकारी कार्यालय जायेगा ! तब आपको अपने मौलिक अधिकार की रक्षा के लिये आंदोलन करने की आज्ञा जिला अधिकारी इस शर्त पर देगा कि वह यह आज्ञा किसी भी समय वापस ले सकता है !
इसके साथ ही एल.आई.यू. भी अलग से आपके औकात व्यवहार और चरित्र की खोज बीन करती रहेगी ! प्रायः मेरे अनुभव में यह आया है कि इस तरह के आंदोलन की आज्ञा आंदोलनकर्ता को मात्र कुछ घंटे पहले ही प्रदान की जाती है !
अतः अंतिम समय तक आंदोलनकर्ता यह निश्चय नहीं कर पाता है कि उनके द्वारा प्रारंभ किये जाने वाले आंदोलन की आज्ञा प्रशासन प्रदान करेगा या नहीं ! उस स्थिति में सहयोगी आंदोलनकारियों के आने की व्यवस्था, रहने खाने की व्यवस्था, मंच, माइक, पंडाल आदि की व्यवस्था, सभी कुछ सदैव दुविधा में बना रहता है क्योंकि सामान्यतय: इस तरह के आंदोलनों को करने के लिये आंदोलनकारी के पास पहले से ही धन का अभाव होता है और उसे आज्ञा प्राप्त होगी या नहीं ! इस दुविधा में रहने के कारण आंदोलनकारी कहीं उसके मेहनत का पैसा नष्ट न हो जाये ! इस भय से आंदोलन की बेसिक सुविधाओं और जरूरतों पर वह समय रहते उसे खर्च नहीं कर पाता है ! फिर अचानक मिली आज्ञा में उसे सारे इंतजाम करने में औने पौने व्यय करना पड़ता है !
इसके अलावा प्रत्येक शहर में प्रत्येक जिलाधिकारी ने कुछ आंदोलन स्थल निर्धारित कर रखे हैं ! जो प्रायः शहर के बाहर कहीं एकांत में होते हैं ! जहां पर आम जनमानस को पता भी नहीं चलता कि उसके शहर में कौन सा आंदोलन चल रहा है और किस विषय पर चल रहा है ! उस आंदोलन में किस की सहभागिता है ! यह सब मीडिया के रहमों करम पर निर्धारित होता है ! जिसे वह अपने तरीके से प्रस्तुत करते हैं !
यदि मीडिया कर्मी प्रशासन के दबाव में आ जाते हैं तो देश में बड़े बड़े आंदोलन होकर खत्म भी हो जाते हैं और किसी को भनक भी नहीं लगती है ! जैसे भारत में गौ हत्या रोकने के लिये मणि जी महाराज ने 2016 में दिल्ली के रामलीला मैदान में लाखों गौ प्रेमियों के साथ आंदोलन किया था ! जिसे मीडिया का सहयोग न मिलने के कारण लोगों को पता ही नहीं चला कि इस तरह का कोई आंदोलन भी हुआ था !
अब वर्तमान परिस्थितियों में कोरोना के आ जाने के कारण भारत के लगभग हर क्षेत्र में एक नये शब्द को इजाद किया गया है ! जिसे कहते हैं “सोशल डिस्टेंसिंग” ! इस सोशल डिस्टेंसिंग के तहत अब अघोषित धारा 144 पूरे देश में अनंत काल के लिये लागू कर दिया गया है ! अर्थात अब आप कहीं भी, किसी भी रूप में सामूहिक रूप से इकट्ठा नहीं हो सकते हैं और यदि आंदोलन के लिये आप कोई आज्ञा जिला अधिकारी कार्यालय में मांगते भी हैं ! तो इसी कोरोना वायरस का आधार लेकर आपको आंदोलन करने की आज्ञा प्रदान नहीं की जाती है !
अब प्रश्न यह है कि क्या कोरोना वायरस के कारण व्यक्ति के मौलिक अधिकार को ही खत्म कर दिया जायेगा ! शासन प्रशासन की निष्क्रियता और उदासीनता पहले से ही प्रशासनिक अधिकारियों को जन भावनाओं के विपरीत निरंकुश बनाये हुये है ! ऐसी स्थिति में कोरोना वायरस का भय दिखाकर जन आंदोलन न करने देने की आज्ञा प्रदान करना क्या इन प्रशासनिक अधिकारियों को और निरंकुश नहीं करेगा !
उसी का परिणाम है कि पूरे देश में स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय ने कोई भी क्लास और सत्र नहीं चलाये हैं लेकिन खुले आम छात्रों के अभिभावकों को फीस की भारी रकम देने के लिये पूरे देश में बाध्य किया जा रहा है और इस विषय की जानकारी होने के बाद ही शासन-प्रशासन दोनों उदासीन हैं !
जिस तरह कोरोना वायरस पर लॉक डाउन की घोषणा की गई थी ! उसी ताकत के साथ क्या हमारे जनप्रतिनिधियों को इस तरह के अनुचित फ़ीस का विरोध नहीं करना चाहिये और यदि जनप्रतिनिधि अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहे हैं ! तो क्या आम जनमानस को कोरोना वायरस का भय दिखाकर उसके आंदोलन के मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया जायेगा ! यह आज का सबसे बड़ा ज्वलंत प्रश्न है !!