शंकराचार्य जन्म आज से लगभग ढाई हजार साल पहले 788 ई. में केरल के कालडी़ नामक ग्राम मे हुआ था ! वह अपने ब्राह्मण माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे ! बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया ! यह जन्म से ही महान बुद्धि जीवी और जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे ! उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सनातन धर्म के नाम कर दिया और अथाय ज्ञान की प्राप्ति कर इस संसार में प्रसारित किया था ! इन्होंने हिन्दू धर्म के उथान के लिए प्रसिद्ध मंदिरों और देवालयों की स्थापना की और आज पूरा विश्व उन्हें आदि गुरु शंकराचार्य के नाम से जानता है !
आदि गुरु शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे ! उनके विचारोपदेश “ब्रह्मसूत्र भाष्य” में वर्णित आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं ! जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रह सकता है ! आठ वर्ष की उम्र में गृहस्थ जीवन को त्यागकर संन्यास जैसे जीवन का कठिन रास्ता अपनाने वाले इस बालक ने कई सालों तक पहाड़ों, जंगलों और कंदराओं में अपने गुरु की तलाश की और अंत में मध्य प्रदेश स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग में उन्हें गुरु गोविंद योगी मिले और सन्यास की दीक्षा ले ली !
जब वह मात्र सात वर्ष के हुये तो वेदों के विद्वान, बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र पारंगत और सोलहवें वर्ष में उन्होंने “ब्रह्मसूत्र भाष्य” की रचना की ! उन्होंने अपने जीवन में शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुये कर ली थी और भारतीय इतिहास में शंकराचार्य को ही सबसे श्रेष्ठतम दार्शनिक कहलाये ! उन्होंने अद्वैतवाद को प्रचलित किया ! जो “ब्रह्मसूत्र भाष्य” पर आधारित था !
“ब्रह्मसूत्र भाष्य” की रचना के उपरांत उसकी प्रमाणिकता के लिये वह उत्तर भारत के महान विद्वान कुमारिल भट्ट के पास प्रयागराज आये ! उन्होंने कुमारिल भट्ट जी से “ब्रह्मसूत्र भाष्य” दिखला कर शास्त्रार्थ करना चाहा ! तब उनके भाष्य को देख कुमारिल भट्ट जी बहुत प्रसन्न हुये ! किन्तु उन्होंने कहा “मै तो शास्त्रार्थ करने में असमर्थ हूँ क्योंकि मैं अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार निश्चित नक्षत्र में अग्नि समाधि लेने जा रहा हूँ ! अत: आप मेरे प्रधान शिष्य मंडन मिश्र से मिलिये ! यह कह कर कुछ ही समय बाद कुमारिल भट्ट शान्त चित्त से अग्नि में प्रवेश कर गये !
अत: कुछ दिन काशी में रहने के दौरान वह माहिष्मति नगरी में आचार्य मंडन मिश्र से मिलने गये ! आचार्य मंडन मिश्र के घर में जो पालतू मैना थी ! वह भी संस्कृत के वृह्द मंत्रों का उच्चारण करती थी ! शंकराचार्य ने मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में हरा दिया तब आचार्य मंडन मिश्र को हारता देख पत्नी शंकराचार्य से बोलीं- ‘महात्मन ! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है ! अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप पूर्ण विजयी कहला सकेंगे !’
तब मंडन मिश्र जी की पत्नी भारती ने कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारम्भ किये ! किंतु शंकराचार्य तो बाल-ब्रह्मचारी थे ! अत: “काम” से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते ? इस पर उन्होंने माँ भारती देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा परकाया में प्रवेश कर मृत राजा अमरुक के शरीर में निवास किया और मात्र 17 वर्ष की आयु में राजा की पत्नी से एक माह तक समस्त “काम शास्त्र” का ज्ञान प्राप्त किया ! इसके बाद शंकराचार्य ने मंडन मिश्र की पत्नी भारती को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया !
क्योंकि परकाया प्रवेश द्वारा शंकराचार्य राजा अमरूक के शरीर में प्रवेश कर एक माह तक उनकी विवाहिता पत्नी से संपूर्ण काम शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था ! इसीलिये आदि गुरु शंकराचार्य के बाल ब्रह्मचारी होने के बाद भी उनके नाम के आगे “बाल ब्रह्मचारी” संबोधन का प्रयोग नहीं किया जाता है !
फिर काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुये ! अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की ! इसके बाद वह धर्म का प्रचार करने लगे ! वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की ! अद्वैत ब्रह्मवादी शंकराचार्य केवल निर्विशेष ब्रह्म को ही सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे !
आज भी मण्डन मिश्र व शंकराचार्य का शास्त्रार्थ स्थल, मण्डलेश्वर (तहसील महेश्वर, जिला खरगोन, मध्यप्रदेश) नर्मदा नदी पर स्थित पवित्र नगरी है ॥ छप्पन देव मन्दिर, शास्त्रार्थ प्राचीन स्थल भी मौजूद है एवं जगद्गुरू आदि शंकराचार्य का परकाया प्रवेश स्थल गुप्तेश्वर महादेव मन्दिर भी एक बड़ा ही रमणीय स्थान है ॥ जिसके कारण मण्डलेश्वर अत्यंत प्रसिद्ध हुआ ll