मात्र भौतिकवादी सोच ही अनेकों मनोरोग का कारण है : Yogesh Mishra

आज विश्व के कई विकसित देशों में मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है ! ऐसा संभवत: इन देशों द्वारा आर्थिक प्रगति हेतु अपनाये गये पूँजीवादी मॉडल के कारण हो रहा है ! हर व्यक्ति को केवल अपनी चिंता है और केवल “कमाने वाला खायेगा” के सिद्धांत पर ही इन देशों की जनता आगे बढ़ रही है !

उक्त सिद्धांत के अंतर्गत हर व्यक्ति को अपनी कमाई पर निर्भर रहना होता है ! पुत्र, माता-पिता को कमाकर नहीं खिलाता बल्कि माता-पिता को अपने गुज़र बसर के लिये या तो स्वयं की आय अर्जित करनी होती है अथवा सरकारी सहायता पर आश्रित रहना होता है ! हर व्यक्ति केवल अपनी आय बढ़ाने हेतु कार्यशील है, उसे अपने परिवार के सदस्यों अथवा समाज की अधिक चिंता नहीं है ! जैसे हर व्यक्ति अपने आप के लिये जी रहा हो ! इसलिये, इन देशों में मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है ! युवा पीढ़ी के बच्चे भी इस बीमारी से ग्रस्त नज़र आने लगे हैं !

जबकि, भारतीय जीवन पद्धति उक्त सिद्धांत के सर्वथा विपरीत है ! हम लोगों की सोच है कि “कमाने वाला खिलायेगा” ! इस सिद्धांत के अंतर्गत परिवार का मुखिया आय का अर्जन करता है एवं परिवार के बाक़ी सभी सदस्य उस कमाई गई राशि से मिलकर गुज़र बसर करते है ! परिवार में आपस में एका एवं भाईचारा रहता है ! परिवार के सभी सदस्य इस कारण से आपस में जुड़े रहते हैं एवं सामाजिकता बनी रहती है, इसलिये भारतवर्ष में मनोरोग नामक रोग तुलनात्मक रूप से बहुत कम पाया जाता है !

आज के कई विकसित देशों ने अपने आर्थिक विकास हेतु पूँजीवादी मॉडल को चुना था ! इस मॉडल के अंतर्गत सकल घरेलू उत्पाद एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को ही विकास को नापने का मुख्य पैमाना बनाया गया ! इससे कम्पनियाँ जहाँ येन-केन-प्रकारेण अपने उत्पाद में वृद्धि करने हेतु प्रेरित हुईं वहीं प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय बढ़ाने की ओर लालायित रहने लगा ! इसके लिये चाहे उन्हें किसी भी प्रकार का ग़लत कार्य क्यों न करना पड़ा !

समाज में कई प्रकार की बुराइयों ने अपने पैर पसारना प्रारंभ कर दिया ! जैसे- कम्पनियों ने अपने लाभ में वृद्धि करने के उद्देश्य से कर्मचारियों का उत्पीड़न करना प्रारम्भ किया, अपने उत्पादों को बाज़ार में सफल बनाने के लिये और अपनी बिक्री बढ़ाने के उद्देश्य से तथा इनके द्वारा उत्पादित की जा रही वस्तुओं की माँग उत्पन्न करने हेतु विज्ञापनों का सहारा लिया, चाहे इन विज्ञापनों में कही गई सभी बातें तथ्यात्मक नहीं रहीं हों ! आकर्षक विज्ञापनों के सहारे लोगों को भौतिकवादी बना दिया गया !

लोगों में आज जीने की प्रवृत्ति पसरती चली गयी अर्थात् आज जियो कल किसने देखा ! विज्ञापनों ने फ़िज़ूल खर्ची को भी बढ़ावा दिया ! नये नये उत्पादों का विज्ञापन कुछ इस प्रकार से किया जाने लगा कि लोगों को महसूस हो कि इस उत्पाद का उपयोग यदि मैंने नहीं किया तो मेरा जीवन तो जैसे अधूरा ही रह जाएगा ! वास्तव में चाहे उस उत्पाद की आवश्यकता हो या नहीं, परंतु विज्ञापन देख कर उस उत्पाद को ख़रीदने हेतु मन में प्रबल विचार उत्पन्न किए गए, ताकि लोग इन उत्पादों को ख़रीदें और कम्पनी की बिक्री बढ़े ! कुल मिलाकर लोगों को एकदम भौतिकवादी बना दिया गया !

अधिक से अधिक लाभ कमाने की होड़ ने भी समाज में कई बुराइयों को जन्म दिया ! वस्तुतः आर्थिक प्रश्नों का विचार करते समय नैतिक मूल्यों पर विचार करना भी आवश्यक है ! परंतु, विकसित देशों की परम्परायें भिन्न होने के कारण ऐसा कुछ नहीं हुआ ! बल्कि नैतिक मूल्यों की तिलांजलि दे दी गयी ! अधिक से अधिक बुराइयाँ समाज में पैर पसारने लगीं, जिसका परिणाम नागरिकों में कई तरह की मानसिक बीमारियाँ होने की परिणिती के तौर पर हुआ ! लोगों में तनाव बढ़ने लगा, बैचेनी बढ़ने लगी तथा अंततः मनोरोग ने घर कर लिया है ! यदि इससे बचना है तो हमें पुन: सनातन सामाजिक अवधारण की ओर वापस आना होगा ! यही सत्य है !!

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