आधुनिकता के नाम पर पिछले बीस सालों में अधनंगी तथाकथित अभिनेत्री जिन्हें आप “छाया वेश्या” भी कह सकते हैं ! उनके स्तन, नितम्ब कटिप्रदेश और नंगी टांगों को दिखा कर धन कमाने वाले दलाल जिन्हें आप फिल्मों के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर कहते हैं ! उन्हें स्वस्थ मानसिकता के लोगों ने गंभीरता से लेना बंद कर दिया है !
आज इस तरह की अश्लील और बेखुदी फिल्में वही लोग देखते हैं, जो अंदर से कामुकता और हिंसा से भरे हुये हैं या दूसरे शब्दों में कहा जाये कि यह लोग समाज के अंदर छिपे हुए छद्म मनोरोगी हैं ! जो कहीं भी, कभी भी, किसी भी तरह का अपराध कर सकते हैं !
अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि आज की फिल्में कला को बढ़ावा नहीं देती, बल्कि लोगों को मनोरोगी बनाकर उन्हें नये नये तरह से अपराध के लिये उकसाती हैं ! जिस वजह से कम उम्र के कोमल हृदय बच्चे भी निर्मम अपराधी बन जाते हैं !
जिससे पुलिस, प्रशासन, कोर्ट-कचहरी और समाज चारों ही सीधे सीधे तरह से प्रभावित होते हैं, लेकिन ताज्जुब इस बात का है कि इस संदर्भ में चारों में से कोई भी समस्या की जड़ पर विचार नहीं करना चाहता है !
शायद यह चारों वर्ग अपने को वर्तमान विधि व्यवस्था के आगे असहाय महसूस कर रहे हैं ! इसका मूल कारण भारत का संवैधानिक ढांचा है ! जहां पर विधि की ओट में सारे अपराध घटित किये जाते हैं !
हर व्यक्ति यह जानता है कि विधि में सैकड़ों ऐसी कमियां हैं ! जहां से अपराध घटित होते हैं और अपराधियों को संरक्षण प्राप्त होता है, किंतु इसके बाद भी विधि के नियनता इन विषयों पर कोई विचार नहीं करते हैं !
इसका मूल कारण लगता है यह है कि अधिकांश विधि नियंता स्वयं ही अपराधिक प्रवृत्ति के मानसिक रोगी हैं ! जो अपने बहुबल से सदन तक पहुंचाते हैं ! इसलिए इन्हें अपराध के मूल कारणों में संशोधन करने की जगह अपराध को बढ़ावा देने में अधिक रुचि होती है !
रोज नये नये ऐसे कानून बनाये जाते हैं कि जो अपराध को खत्म नहीं करते बल्कि सामाजिक भावनाओं का दमन कर व्यक्ति को नये नये तरीके से अपराध करने के लिये उकसा हैं !
यह एक गंभीर और विस्तृत विषय है ! इस विषय पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए अन्यथा यह समाज इसी तरह के बॉलीवुड फिल्मों को देख कर मनोअपराध में उलझ कर नष्ट हो जायेगा और हम लोग कानून की दुहाई देते रह जाएंगे !!