सनातन जीवन पद्धति में भिक्षा का महत्व
भिक्षा सनातन शिक्षा पद्धति का आवश्यक अंग था क्योंकि भिक्षाटन से समाज का वास्तविक ज्ञान होता है, दुर्गुण दूर होकर अहंकार पूरी तरह नष्ट हो जाता है, मन शांति होता है और भविष्य का अज्ञात भय समाप्त हो जाता है, इससे जिज्ञासु को ईश्वरीय व्यवस्था की अनुभूति होने लगती है ।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव ने सिद्ध धार्मिक नगरी काशी में अन्न की कमी के कारण बनी भयावह स्थिति से विचलित होकर माता अन्नपूर्णा देवी से भिक्षा ग्रहण कर यह वरदान प्राप्त किया था कि उनकी शरण में आने वाले को कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं होगी ।
गौतम बुद्ध के दर्शन का आधार ही भिक्षा था, साईं बाबा के एक हाथ में चमीटा दूसरे में भिक्षा पात्र सदैव रहता था वास्तव में भिक्षा प्राप्ति का सुपात्र कौन है, जो व्यक्ति समाज के हितार्थ अपना सब कुछ त्याग कर सामाजिक उत्थान के लिये कार्य करते हैं वह भिक्षा प्राप्ति हेतु सुपात्र हैं ।
कुछ लोग भीख या दान को भ्रमवश भिक्षा मान लेते हैं यह गलत है भीख भिखारी को सहायतार्थ दया रूप से दी जाती है तथा दान दान देने वाला स्वयं जाकर इच्छित स्थान व समय पर धार्मिक कारणों से स्वेच्छा से देता है ।
जबकि भिक्षा एक सामाजिक अनिवार्यता है जब से भिक्षाटन व्यवस्था समाप्त हुई समाज टूटी माला की तरह बिखर गया सामाजिक कार्य करने वाले व्यवसायी हो गये और समाज भावना विहीन ठगों की भीड़ में बदल गया ।
सामाजिक अस्वीकार से यह जीवन शैली विलुप्त हो गई किन्तु यदि समाज को पुनः जीवित करना है तो पुनः भिक्षु पैदा करने होंगें भिखारी नहीं ।