मात्र मंत्र, संविधा और हवन सामग्री से किये गये यज्ञ से “ज्ञान यज्ञ” अधिक श्रेष्ठ है ! Yogesh Mishra

यज्ञ का तात्पर्य मात्र किसी विशेष लकड़ी की संविधा में अग्नि को जलाकर उसमें कुछ विशेष मंत्रों के साथ हवन सामग्री की आहुति करना नहीं है !यज्ञ अनेकों प्रकार के होते हैं कुछ यज्ञ प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं कुछ यज्ञ से हैं जो बाहर तो प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देते लेकिन मन और शरीर के अंदर निरंतर चलते रहते हैं जो यज्ञ मन और शरीर के अंदर निरंतर चलते रहते हैं ! उन्हीं यज्ञो का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में वेदव्यास ने विस्तार से किया है आज हम लोग उसी संदर्भ में चर्चा करेंगे !

यज्ञ’ भगवद्गीता के अनुसार परमात्मा के निमित्त किया कोई भी कार्य यज्ञ कहा जाता है ! परमात्मा के निमित्त किये कार्य से संस्कार पैदा नहीं होते न कर्म बंधन होता है ! भगवदगीता के चौथे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश देते हुए विस्तार पूर्वक विभिन्न प्रकार के यज्ञों को बताया गया है !

श्री भगवन कहते हैं, अर्पण ही ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, अग्नि ब्रह्म है, आहुति ब्रह्म है, कर्म रूपी समाधि भी ब्रह्म है और जिसे प्राप्त किया जाना है वह भी ब्रह्म ही है ! यज्ञ परब्रह्म स्वरूप माना गया है ! इस सृष्टि से हमें जो भी प्राप्त है, जिसे अर्पण किया जा रहा है, जिसके द्वारा हो रहा है, वह सब ब्रह्म स्वरूप है अर्थात सृष्टि का कण कण, प्रत्येक क्रिया में जो ब्रह्म भाव रखता है वह ब्रह्म को ही पाता है अर्थात ब्रह्म स्वरूप हो जाता है !

कर्म योगी “देव यज्ञ” का अनुष्ठान करते हैं तथा अन्य ज्ञान योगी ब्रह्म अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ का हवन करते हैं ! देव पूजन उसे कहते हैं जिसमें योग द्वारा अधिदैव अर्थात जीवात्मा को जानने का प्रयास किया जाता है ! कई योगी ब्रह्म अग्नि में आत्मा को आत्मा में हवन करते हैं अर्थात अधियज्ञ (परमात्मा) का पूजन करते हैं ! कई योगी इन्द्रियों के विषयों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को संयमित कर हवन करते हैं, अन्य योगी शब्दादि विषयों को इन्द्रिय रूप अग्नि में हवन करते है अर्थात मन से इन्द्रिय विषयों को रोकते हैं अन्य कई योगी सभी इन्द्रियों की क्रियाओं एवं प्राण क्रियाओं को एक करते हैं अर्थात इन्द्रियों और प्राण को वश में करते हैं, उन्हें निष्क्रिय करते हैं !

इन सभी वृत्तियों को करने से ज्ञान प्रकट होता है ज्ञान के द्वारा आत्म संयम योगाग्नि प्रज्वलित कर सम्पूर्ण विषयों की आहुति देते हुए “आत्म यज्ञ” करते हैं ! इस प्रकार भिन्न भिन्न योगी द्रव्य यज्ञ तप यज्ञ तथा दूसरे योग यज्ञ करने वाले है और कई तीक्ष्णव्रती होकर योग करते हैं यह स्वाध्याय यज्ञ करने वाले पुरुष शब्द में शब्द का हवन करते है !

इस प्रकार यह सभी कुशल और यत्नशील योगाभ्यासी पुरुष जीव बुद्धि का आत्म स्वरूप में हवन करते हैं ! द्रव्य यज्ञ- इस सृष्टि से जो कुछ भी हमें प्राप्त है उसे ईश्वर को अर्पित कर ग्रहण करना ! तप यज्ञ- जप कहाँ से हो रहा है इसे देखना “तप यज्ञ” है ! स्वर एवं हठ योग क्रियाओं को भी तप यज्ञ जाना जाता है !

प्रत्येक कर्म को ईश्वर के लिया कर्म समझ निपुणता से करना “योग यज्ञ” है ! तीक्ष्ण वृती- यम नियम संयम आदि कठोर शारीरिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा मन को निग्रह करने का प्रयास. शम, दम, उपरति, तितीक्षा, समाधान, श्रद्धा !

मन को संसार से रोकना “शम” है ! बाह्य इन्द्रियों को रोकना “दम” है ! निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना “उपरति” है ! सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकरसरलता से सह लेना “तितीक्षा” है ! रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना “समाधान” है !

कई योगी “अपान वायु” में “प्राण वायु” का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा कई “प्राण वायु” में “अपान वायु” का हवन करते हैं जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन आदि ! कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम ! कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते हैं !

इस प्रकार ज्ञानी जन यज्ञों द्वारा काम, क्रोध एवं अज्ञान रूपी पाप का नाश करने वाले सभी यज्ञ को जानने वाले हैं अर्थात ज्ञान से परमात्मा को जान लेते हैं ! यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है वह ज्ञान “ब्रह्म स्वरूप” है ! इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर वह योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते, उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में !

इस प्रकार बहुत प्रकार जो यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं ! वह यज्ञ विधियां कर्म से ही उत्पन्न होती हैं ! इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव मुक्त हो जाता है ! “द्रव्यमय यज्ञ” की अपेक्षा “ज्ञान यज्ञ” अत्यन्त श्रेष्ठ है ! द्रव्यमय यज्ञ सकाम यज्ञ हैं और अधिक से अधिक स्वर्ग को देने वाले हैं परन्तु ज्ञान यज्ञ द्वारा योगी कर्म बन्धन से छुटकारा पा जाता है और परम गति को प्राप्त होता है ! सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ! ज्ञान से ही आत्म तृप्ति होती है और कोई कर्म अवशेष नहीं रहता !

जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि सभी काष्ठ को भस्म कर देती है ! उसी प्रकार ज्ञानाग्नि सभी कर्म फलों को और उनकी आसक्ति को जला कर भस्म कर देती है ! इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला वास्तव में कुछ भी नहीं है क्योंकि जल, अग्नि आदि से यदि किसी मनुष्य अथवा वस्तु को पवित्र किया जाय तो वह शुद्धता और पवित्रता थोड़े समय के लिए ही होती है, जबकि ज्ञान से जो मनुष्य पवित्र हो जाय वह पवित्रता सदैव के लिए हो जाती है !

ज्ञान ही अमृत है और इस ज्ञान को लम्बे समय तक योगाभ्यासी पुरुष अपने आप अपनी आत्मा में प्राप्त करता है क्योंकि “आत्मा ही अक्षय ज्ञान का श्रोत है” ! जिसने अपनी इन्द्रियों का वश में कर लिया है तथा निरन्तर उन्हें वश में रखता है, जो निरन्तर आत्म ज्ञान में तथा उसके उपायों में श्रद्धा रखता है जैसे गुरू, शास्त्र, संत आदि में ! ऐसा मनुष्य उस अक्षय ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होते ही परम शान्ति को प्राप्त होता है ! ज्ञान प्राप्त होने के बाद उसका मन नहीं भटकता, इन्द्रियों के विषय उसे आकर्षित नहीं करते, लोभ मोह से वह दूर हो जाता है तथा निरन्तर ज्ञान की पूर्णता में रमता हुआ आनन्द को प्राप्त होता है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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