हंस योग शरीर के व्यक्ति के अपने अलग ही लक्षण होते हैं ! वह व्यक्ति सुंदर व्यक्तित्व का धनी होगा और उसका रंग साफ एवं चेहरे पर तेज होगा ! उसका माथा चौड़ा और लंबी नाक होगी ! छाती भी चौड़ी और अच्छी होगी ! आंखें चमकदार होगी ! त्वचा चमकदार स्वर्ण की तरह होगी ! दूसरों के लिए अच्छी बातें करने और बोलने वाला व्यक्ति होगा एवं उसके मित्रों संख्या अधिक होगी ! वह हमेशा सकारात्मक भाव और विचारों से भरा होगा !
हंस योग के कुछ जातक किसी धार्मिक अथवा आध्यात्मिक संस्था में उच्च पद पर आसीन होते हैं, जबकि कुछ अन्य जातक व्यवसाय, उत्तराधिकार, वसीयत, सराहकार अथवा किसी अन्य माध्यम से बहुत धन संपत्ति प्राप्त कर सकते हैं ! वह ज्योतिष, पंडित या दार्शनिक भी हो सकता हैं ! उच्चशिक्षित न भी हो तो भी वह ज्ञानी होता हैं !
हंस प्रभाव के जातके सामान्यतया सुख तथा ऐश्वर्य से भरपूर जीवन जीते हैं तथा साथ ही साथ ऐसे जातक समाज की भलाई तथा जन कल्याण के लिए भी निरंतर कार्यरत रहते हैं तथा इन जातको में भी प्रबल धार्मिक अथवा आध्यात्मिक अथवा दोनों ही रुचियां देखीं जातीं हैं ! अपने उत्तम गुणों तथा विशेष चरित्र के चलते हंस योग के प्रबल प्रभाव में आने वाले जातक समाज में सम्मान तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं !
जब आत्मा परमात्मा के सानिध्य में योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अपने इस अहंकार भाव का त्याग करता हैं तो परमात्मा के साथ स्वामी सेवक का सम्बन्ध स्थापित होता हैं ! आत्मा की यह अवस्था हँस अवस्था होती हैं ! इस अवस्था को प्राप्त कर आत्मा परमानन्द के अनन्त सागर में गोते लगाता हैं !
कुण्डली हंस योग के निर्माण पर ध्यान दें तो यह पायेंगे कि कुंडली के पहले घर में गुरु तीन राशियों कर्क, धनु तथा मीन में स्थित होने पर हंस योग बनाते हैं ! इसी प्रकार स्व ग्राही उया उच्च के गुरु के किसी कुंडली के चौथे, सातवें अथवा दसवें घर में भी हंस योग का निर्माण करने की संभावना बनती है तथा इन सभी संभावनाओं का योग 12 होता है ! जो कुल 144 संभावनाओं का 12वां भाग है !
अब में अपने विषय पर आता हूँ ! क्या आप आत्मा हैं या आप जीव हैं या जीवात्म हैं ! आप चाहे किसी भी जाति के हों, कोई भी भाषा बोलते हों या किसी भी धर्म के हों, इससे कोई फर्क नही पड़ता हैं !
यह जो आपका शरीर है ! वह आप नही हैं ! इस स्थूल शरीर के अन्दर सुक्ष्म शरीर, कारण, महाकारण और कैवल्य शरीर भी आप नहीं हैं ! मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार भी आप नही हैं ! न ही आप दस इंन्द्रियां नेत्र, कान, त्वचा, नाक या जीभ ही हैं और न आप हाथ, पैर, पायु, उपस्थ एवं वाणी ही हैं ! न आप प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान हैं और न ही कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त आदि यह पांच उप प्राण ही हैं !
आप न मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, ब्रह्मरंध्राख्य, आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रार चक्र ही हैं ! आप अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोश भी नहीं हैं ! आप तो शुद्ध चेतन, नित्य- अनादि एकदेशीय सत्ता हैं ! आपका स्वरुप अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी छोटे हैं ! आप सर्वत्र, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ सर्व समर्थ नहीं हैं ! आप आनंदाभिलाषी, सत्, चित् स्वरुप आत्मा ही हैं ! जो ईश्वर का मूल स्वभाव है !
आपके अंदर अज्ञान का आविर्भाव होने से आप अपने आप को शरीर समझ रहे हैं ! आप अपने आप को ज्ञानी, ध्यानी, पंडित, मौलवी, गुरु आदि आदि इसी प्रकार का कुछ अन्य समझ रहे हैं ! आप अपने आप को परमात्मा तक मान बैठा हैं ! जिस परमात्मा ने इतनी विशाल, अनंत सृष्टि का निर्माण कर डाला है ! जिसकी अनंतता का माप करते-करते आप थके जा रहे हैं ! इसकी थाह का आपको पता नही चल रहा है ! आप अपने को वही परमात्मा घोषित कर रहे हैं ! क्या मूर्खता है !
वह अंनत परमात्मा क्या आप हो सकते हैं ? यह आपके अज्ञान और भ्रम का परिणाम है कि आप नन्ही-सी सत्ता में अपने आपको समग्र सृष्टि में व्यापक ब्रह्म समझ रहे हैं ! कैसी विडंबना है ? कितना बड़ा धोखा है ? जो आप अपने आप को दे रहे हैं ! आप मन के प्रभाव में आकर मन-मोदक से मात्र अपने मन की क्षुधा तृप्त करना चाहते हैं ! जो मात्र आपका भ्रम है !
अभी भी अवसर है ! आप सचेत हो जायें ! अपने आप को पहचान ले ! अज्ञान, कर्म तथा जड़- चेतन की ग्रंथि से आप अपने- आप को मुक्त कर लें ! पर यह होगा कैसे ? क्या अपने आप हो जायेगा ? क्या अपने जैसे ही बंधनग्रस्त जीवों को अपना गुरु बनाकर आप उनके द्वारा आप इन बंधनो से मुक्त हो पायेंगे ? जो स्वयं बंधन में है, वह किसी दूसरे बंधनग्रस्त को बंधन से मुक्त कैसे कर सकता है ? अतः आप खोज करो उस गुरु की जो तुम्हें इस बंधन से मुक्त करा सके अर्थात आपको स्वयं को जानने का ज्ञान बता सके ! जो सामान्य सांसारिक गुरु नहीं बल्कि ईश्वरीय ऊर्जा से ओत प्रोत हो !
और यह ईश्वरीय ज्ञान शुद्ध आत्मा का ज्ञानी हंस गुरु ही दे सकता है ! जो आपके निकट कहीं ईश्वर द्वारा हंस शरीर में भेजा गया है ! किन्तु उसकी पहचान और आपका उसके प्रति विश्वास, दोनों ही ईश्वर की कृपा से ही संभव है !