न्यायालयी सक्रियता और भारत का लोकतंत्र : Yogesh Mishra

न्यायपालिका द्वारा अपनी परम्परागत शक्तियों के क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्यक्षेत्र में जनहित की दृष्टि से हस्तक्षेप किया जाना न्यायिक सक्रियता कहलाता है ! वस्तुत: यह एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसके अंतर्गत देश की न्यायपालिका, सामाजिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों को नियमित करने में शासन के अन्य अंगों, विधानमण्डल तथा कार्यपालिका से बढ़-चढ़कर भूमिका निभाने लगती है ! यह लोकहित, विधि के शासन एवं संविधान को मूल भावना के संरक्षण का एक असामान्य, अपरम्परागत किंतु प्रभावी यंत्र है ! न्यायिक सक्रियता एक ओर जहाँ कार्यपालिका की त्रुटियों की द्योतक है वहीं इससे विधायिका के अनुत्तरदायित्व का भी बोध होता है !

संवैधानिक दृष्टिकोण से भारत एक लोकतांत्रिक समाजवादी कल्याणकारी देश है, जिसमें न्यायपालिका की भूमिका एक सजग प्रहरी की है ! भारत के संविधान द्वारा यद्यपि व्यवस्थापिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के कार्यों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है तथापि भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के परिपेक्ष्य में न्यायपालिका की सक्रिय, सजग एवं कर्तव्यपरायण स्थिति व्यावहारिक दृष्टिकोण से पूर्णतः उचित ही है ! भारत में न्यायिक सक्रियता के उदय के रूप में गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के विवाद को देखा जा सकता है !

इस विवाद में यह निर्णय दिया गया कि संसद को मूलाधिकारों में संशोधन करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है ! 24वें संशोधन द्वारा इस निर्णय को बदल दिया गया, किन्तु बाद में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के विवाद में मूल-भूत ढांचे की अवधारणा से इसे नया बल प्राप्त हुआ ! न्यायिक सक्रियता के विकास में जनहित से सम्बन्धित आश्वासनों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है ! 1979 में न्यायमूर्ति वाई. वी. चन्द्रचूढ़ द्वारा A-32 के अंतर्गत जनहित याचिका से सम्बन्धित व्यवस्था की गई ! बाद में न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने मुख्य न्यायाधीश को भेजे गए पत्रो को ही जनहित याचिका के रूप में स्वीकार करके न्यायिक सक्रियता को एक नई दिशा प्रदान की !

विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका द्वारा देश की राजनीति, प्रशासन एवं सामाजिक-आर्थिक जीवन में व्याप्त सुस्ती, भ्रष्टाचार एवं अन्याय के निवारण ऐसे अनेक निर्णय प्रेषित किए, जो कि न्यायिक सक्रियता का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ! न्यायिक सक्रियता के दृष्टिकोण से न्यायपालिका द्वारा प्रेषित प्रमुख निर्णय हैं- ताज संरक्षण हेतु आगरा एवं मथुरा की औद्योगिक इकाइयों को नोटिस, शहर की स्वच्छता हेतु दिल्ली महानगरपालिका को सफाई हेतु निर्देश, दिल्ली में प्रदूषण की व्याप्त मात्रा को न्यूनतम करने हेतु वाहनों को संपीडित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) से चलाने हेतु निर्देश, दिल्ली में यमुना किनारे अवस्थित आवासीय क्षेत्रों में चल रही फैक्टरियों एवं औद्योगिक इकाइयों को स्थानांतरित करने सम्बन्धी निर्देश, चुनाव सुधारों पर सरकार को कारण बताओ नोटिस, राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की दिशा में निर्वाचन आयोग को आवश्यक दिशा-निर्देश आदि !

गठबंधन सरकारों के वर्तमान दौर ने विधायिका को जहाँ कमजोर किया है यहीं इसने न्यायपालिका और कार्यपालिका को शक्तिशाली बनाया है ! न्यायिक्र सक्रियता इस तथ्य का पपक्का सबूत है कि किन परिस्थितियों में संवैधानिक संस्थाएं निरंकुश बन जाती हैं तथा अपने अधिकार क्षेत्र की नए सिरे से परिभाषा करके अपने कर्तव्य निर्वहन से अधिक अपनी गरिमा और पवित्रता को कायम रखने पर ध्यान केन्द्रित करने लगती है ! वस्तुत: “न्याय’ से आशय मात्र ‘कानून न्याय’ से न होकर संविधान की प्रस्तावना में वर्णित असामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय से है ! भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूतिं पी.एन. भगवती के विचार में, न्यायाधीश एक ऐसा सृजनात्मक कलाकार है, जिसके भीतर अरस्तू एवं प्लेटो दोनों के गुणों का समावेश पाया जाता है ! एक ओर जहाँ वह “विधि के शासन’ का संस्थापक है वहीं दूसरी ओर वह प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार न्याय प्रदान करने वाला ‘दार्शनिक राजा’ भी है !

न्यायपालिका एक गरिमामय एवं सम्माननीय संस्था है ! लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भों (कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका) में से एक होने के कारण यदि न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका को उनकें उत्तरदायित्वों का भान कराती है तो इससे लोकतंत्र लड़खड़ाने के स्थान पर और अधिक दृढ़ होता है ! न्यायिक सक्रियता के विरुद्ध प्राय: यह आक्षेप लगाया जाता है कि न्यायपालिका इससे अनावश्यक रुप से कार्यपालिका एवं विधायिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करती है, जिससे न केवल संवैधानिक संकट ही उत्पन्न हो सकता है अपितु इससे कार्यपालिका के मनोबल में भी गिरावट जाती है !

इसके परिणामस्वरूप निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों की महत्ता तो कम होती ही है साथ ही इससे न्यायालय के मन-सम्मान एवं उसकी निष्पक्ष छवि पर भी नकारात्मक प्रभाव पड सकता है ! यदि इस विषय पर गहराई से ध्यानपूर्वक विचार किया जाए तो न्यायिक सक्रियता के विरुद्ध लगाए जाने वाले उल्लिखित सभी आरोप निराधार ही सिद्ध होते हैं ! वस्तुत: न्यायिक सक्रियता से ही विधि के शासन की स्थापना होती है ! विवादास्पद विषयों पर दिए गए न्यायपालिका के निर्णयों से न तो शोर मचता है और न ही शांति भंग होती है; इसके विपरीत यहीं कार्य कार्यपालिका द्वारा किए जाने पर अशांति की आशंका रहती है ! न्यायपालिका द्वारा वे निर्णय सरलतापूर्वक लिए जा सकते हैं, जिन्हें अपने बोट बैक को ध्यान में रखकर राजनेता लेने से कतराते हैं !

संक्षेप में, न्यायिक सक्रियता को लोकतंत्र पर आघात मानना अथवा उसके प्रतिकूल बताना बिल्कुल भी सही नहीं होगा ! भारत के संविधान द्वारा कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका दोनों के कार्यों एवं क्षेत्राधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है ! किंतु, जब कार्यपालिका और विधायिका द्वारा अपने उत्तरदायित्वों का वहन ठीक प्रकार से नहीं किया जाता, जिसके परिणामतः: समाज में अन्याय, और अशांति को प्रोत्साहन प्राप्त होने लगे तब न्यायिक सक्रियता से सुधार सम्भव हो सकता है ! ऐसे में लोकतंत्र के प्रति जन-साधारण के विश्वास को न्यायिक सक्रियता ही बल प्रदान करती है !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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