आज से हजारों साल पहले जब मनुष्य प्रकृति के विषय में अज्ञानी था और मनुष्य को अपने को सुरक्षित और संरक्षित करने के संसाधन उसके पास नहीं थे ! तब वह प्राय: प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हो जाया करता था !
कभी भयंकर तपती गर्मी में उसके प्राण पखेरू उड़ जाते थे, तो कभी भयंकर जाड़े में उसके शरीर के अंदर बहने वाला रक्त जम जाता था ! कभी बरसात के पानी के बाहाव में उसका घर-परिवार नदी नालों में बह जाता था, तो कभी भूकंप के आने से पूरा का पूरा गांव तहस-नहस हो जाता था !
मनुष्य हजारों साल तक यह नहीं समझ पाया कि यह सब होता क्यों है ! कालांतर में जब मनुष्य ने चंद्रमा के बढ़ते-घटते क्रम की गणना की तब उसे यह समझ में आया कि एक निश्चित पूर्ण चंद्रमा होने के बाद ही गर्मी पड़ती है, बरसात होती है या जाड़ा पड़ता है ! क्योंकि पूर्ण चंद्रमा माह गणना का प्रतीक था !
कालांतर में मनुष्य का ज्ञान और विकसित हुआ और उसने सोचा कि जिस तरह हम पृथ्वी पर रहते हैं ! निश्चित रूप से उसी तरह से कुछ लोग आकाश में भी रहते होंगे ! तभी तो वह एक निश्चित समय पर (जिसे अब हम ऋतु परिवर्तन कहते हैं) पूरी की पूरी पृथ्वी को गर्म कर देते हैं या ठंडा कर देते हैं और उन्हीं आकाशीय शक्तियों के कारण यह पृथ्वी कांपने लगती है या इतना पानी बरसता है कि पूरे के पूरे गांव के गांव उस पानी के प्रवाह में बह जाते हैं !
अतः मनुष्य ने आकाश में रहने वाली उन काल्पनिक दिव्य शक्तियों से मित्रता करने का निर्णय लिया ! परंतु मनुष्य के पास ऐसा कोई सन-साधन नहीं था, जिससे वह आकाश में रहने वाली उन दिव्य शक्तियों से संपर्क कर सकें !
अतः मनुष्य ने सोचा कि अग्नि का धुआं सदैव आकाश की तरफ जाता है ! अतः आकाश में रहने वाली दिव्य शक्तियों से यदि मित्रता करनी है तो हमें अग्नि के माध्यम से अपनी भेंट दिव्य शक्तियों के पास पहुंचाना चाहिए !
परिणाम था कि मनुष्य ने अपनी समझ के अनुसार जो उसे उचित लगा उस सुगंधित पुष्प और वनस्पतियों का उसने संग्रह शुरू किया और अग्नि कुंड को जलाकर उसमें संग्रहित सुगंधित पुष्प और वनस्पतियों को जलाया !
पुष्प और वनस्पतियों के जलने से जो धुआं ऊपर वायुमंडल में गया, उसने वहां के वातावरण के साथ रासायनिक क्रिया की और वह पुना वर्षा के माध्यम से पृथ्वी पर आया ! परिणामत: मनुष्य की फसल और उपजाऊ होने लगी जिसको मनुष्य ने ईश्वरीय दिव्य शक्तियों का आशीर्वाद माना !
कालांतर में मनुष्य ने यह देखा के विशेष तरह की वनस्पतियों से हवन करने पर मनुष्य और वातावरण पर विशेष तरह का प्रभाव पड़ता है ! अतः मनुष्य ने यज्ञ के विज्ञान को विकसित किया ! धीरे-धीरे यज्ञ विज्ञान के द्वारा बड़े-बड़े रोगों का निदान किया जाने लगा और कालांतर में वनस्पति, कृषि, पर्यावरण और वातावरण को यज्ञों के माध्यम से नियंत्रित किया जाने लगा !
धीरे धीरे यज्ञ के महत्व को विकसित करने के लिये इसमें कबीले के राजाओं ने अपना योगदान दिया और कबीले के राजाओं के नाम से विभिन्न यज्ञ मंत्रों की उत्पत्ति तत्कालीन ऋषि, मुनि, महात्मा, विचारक, चिंतक, लोगों ने अपने-अपने तरीके से किया ! जिससे विभिन्न देवी देवताओं के मन्त्रों की उत्पत्ति हुई और धीरे धीरे पूरा का पूरा यज्ञ विज्ञान विकसित हो गया ! उसका प्रयोग हजारों साल तक राजसत्ता के खेल के लिये भी किया गया !
निश्चित तौर से यज्ञ विज्ञान प्रभावशाली है और इसका लाभ मनुष्य ने अनेकानेक वर्षों तक उठाया है किंतु “यज्ञ का संपूर्ण विज्ञान” जिसे आर्य या आर्य समाजी आज जन-जन तक पहुंचाना चाहते हैं ! वह मनुष्य से के भय से विकसित हुआ था !