ऊर्ध्वगमन का अभ्यास शक्तिचालनी मुद्रा
द्वारा शक्ति प्रवाह कैसे जाग्रत करें ??
कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार से प्रसुप्त कुण्डलिनी को जागृत करके ऊर्ध्वगामी बनाया जाता है। उस महाशक्ति की सामान्य प्रवृत्ति अधोगामी रहती है। रति क्रिया में उसका स्खलन होता रहता है। शरीर यात्रा की मल मूत्र विसर्जन प्रक्रिया भी स्वभावतः अधोगामी है। शुक्र का क्षरण भी इसी दिशा में होता है। इस प्रकार यह सारा जीवन अधोगामी प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है।
लेकिन कुण्डलिनी शक्ति के जागरण और उत्थान के लिए इस क्षेत्र को ऊर्ध्वगामी बनने का अभ्यास कराया जाता है। ताकि अभीष्ट उद्देश्य की सफलता में सहायता मिल सके। गुदा मार्ग को ऊर्ध्वगामी अभ्यास कराने के लिए हठयोग में ‘वस्ति क्रिया’ है। उसमें गुदा द्वारा से जल को ऊपर खींचा जाता है फिर संचित मल को बाहर निकाला जाता है।
इसी प्रकार मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींचने और फिर विसर्जित करने की क्रिया वज्रोली कहलाती है। वस्ति और वज्रोली दोनों का ही उद्देश्य इन विसर्जन छिद्रों को अधोमुखी अभ्यासों के साथ ही ऊर्ध्वगामी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। इन अभ्यासों से कुण्डलिनी को ऊर्ध्वगामी बनाने में सहायता मिलती है।वस्ति और वज्रोली काफी कठिन है।
इस प्रयोग का पूर्वार्ध मूलबन्ध कहलाता है। मूलबन्ध में मात्र संकोचन भर होता है। जितनी देर मल मूत्र छिद्रों को सिकोड़ा जाता रहेगा उतनी देर मूलबन्ध की स्थिति मानी जाएगी यह एक पक्ष है। आधा अभ्यास है। इसमें पूर्णता समग्रता तब आती है जब प्राणायाम की तरह खींचने छोड़ने के दोनों ही अंग पूरे होने लगें। जब संकोचन-विसर्जन संकोचन-विसर्जन का-खींचने ढीला करने, खींचने ढीला करने का-उभय पक्षीय अभ्यास चल पड़े तो समझना चाहिए शक्तिचालनी मुद्रा का अभ्यास हो रहा है।
कमर से नीचे के भाग में अपान वायु रहती है। उसे ऊपर खींचकर कमर से ऊपर रहने वाली प्राणवायु के साथ जोड़ा जाता है। यह पूर्वार्ध हुआ। उत्तरार्ध में ऊपर के प्राण को नीचे के अपान के साथ जोड़ा जाता है। यह प्राण अपान के संयोग की योग शास्त्रों में बहुत महिमा गाई है-यही मूलबन्ध है।
मूलबन्ध के अभ्यास से अधोगामी अपान को बलात् ऊर्ध्वगामी बनाया जाय, इससे वह प्रदीप्त होकर अग्नि के साथ साथ ही ऊपर चढ़ता है।मूलबन्ध के अभ्यास से मरुत् सिद्धि होती है अर्थात् शरीरस्थं वायु पर नियन्त्रण होता है। अतः आलस्य विहीन होकर मौन रहते हुए इसका अभ्यास करना चाहिए। प्राण और अपान का समागम नाद बिन्दु की साधना तथा मूलबन्ध का समन्वय, यह कर लेने पर निश्चित रूप से योग की सिद्धि होती है।निरन्तर मूलबन्ध का अभ्यास करने से प्राण और अपान के समन्वय से-अनावश्यक मल नष्ट होते हैं और बद्धता भी यौवन में बदलती है।
मूलबन्ध से कुण्डलिनी का प्रवेश ब्रह्म नाड़ी-सुषुम्ना-में होता है। इसलिये योगी जन नित्य ही मूलबन्ध का अभ्यास करें।
इससे आयु में वृद्धि होती है और रोगों का नाश होता है यह अतिशयोक्ति नहीं है । यह विज्ञान सम्मत है। शक्ति कहीं से आती नहीं, सुप्त से जागृत, जड़ से चलायमान हो जाना ही शक्ति का विकास कहा जाता है।
बिजली के जनरेटर में बिजली कही से आती नहीं है। चुम्बकीय क्षेत्र में सुक्वायल घुमाने से उसके अन्दर के इलेक्ट्रान विशेष दिशा में चल पड़ते हैं। यह चलने की प्रवृत्ति विद्युत सब्राहक शक्ति (ई॰ एम॰ एफ॰) के रूप में देखी जाती है। शरीरस्थं विद्युत को भी इसी प्रकार दिशा विशेष में प्रवाहित किया जा सके तो शरीर संस्थान एक सशक्त जनरेटर की तरह सक्षम एवं समर्थ बन सकता है। योग साधनाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है।