आत्मा को परमात्मा बनाने के सप्त चक्र भेदन सिधान्त
मनुष्य के शरीर में सात चक्राकार घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र होते हैं, जो मेरूदंड में अवस्थित होते है और मेरूदंड के आधार से ऊपर उठकर खोपड़ी तक फैले होते हैं । इन्हें चक्र कहते हैं, क्योंकि संस्कृत में चक्र का मतलब वृत्त, पहिया या गोल वस्तु होता है। इनका वर्णन हमारे उपनिषदों में मिलता है। प्रत्येक चक्र को एक विशेष रंग में प्रदर्शित किया जाता है एवं उसमे कमल की एक निश्चित संख्या में पंखुड़ियां होती हैं। हर पंखुड़ी में संस्कृत का एक अक्षर लिखा होता है। इन अक्षरों में से एक अक्षर उस चक्र की मुख्य ध्वनि का प्रतिनिधित्व करता है।
ये चक्र प्राण ऊर्जा के कैंद्र हैं। यह प्राण ऊर्जा कुछ वाहिकाओं में बहती है, जिनको नाड़ियां कहते हैं। सुषुम्ना एक मुख्य नाड़ी है जो मेरुदन्ड में अवस्थित रहती है, दो पतली इड़ा और पिंगला नाम की नाड़ियां हैं जो मेरुदन्ड के समानान्तर क्रमशः बाई और दाहिनी तरफ अपस्थित रहती हैं। इड़ा और पिंगला मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों से संबन्ध बनाये रखती हैं। पिंगला बहिर्मुखी सूर्य नाड़ी है जो बाएं गोलार्ध से संबन्ध रखती है। इड़ा अन्तर्मुखी चंद्र नाड़ी है जो बाहिने गोलार्ध से संबन्ध रखती है।
प्रत्येक चक्र भौतिक देह के विशिष्ट हिस्से और अंग से संबन्ध रखता है और उसे सुचारु रूप से कार्य करने हेतु आवश्यक ऊर्जा उपलब्ध करवाता है। साथ में हर चक्र एक निश्चित स्तर तक के ऊर्जा कंपन को वर्णित करता है एवं विभिन्न चक्रों में मानव के शारीरिक एवं भावनात्मक पहलू भी प्रतिबिम्बित होते हैं। नीचे के चक्र शरीर के बुनियादी व्यवहार और आवश्यकता से संबन्धित हैं, सघन होते हैं और कम आवृत्ति पर कम्पन करते हैं। जबकि ऊपर के चक्र उच्च मानसिक और आध्यात्मिक संकायों से संबन्धित हैं। चक्रों में ऊर्जा का उन्मुक्त प्रवाह हमारे स्वास्थ्य और शरीर, मन और आत्मा के संतुलन को सुनिश्चित करता है।
आपकी सूक्ष्म देह, आपका ऊर्जा क्षेत्र और संपूर्ण चक्र-तंत्र का आधार प्राण है, जो कि ब्रह्मांड में जीवन और ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। ये चक्र प्राण ऊर्जा का संचय, रूपान्तर और प्रवाह करते हैं और भौतिक देह के लिए प्राण ऊर्जा के प्रवेश-द्वार कहे जाते हैं। इस प्राण ऊर्जा के बिना भौतिक देह का अस्तित्व और जीवन संभव नहीं है।
सात सामान्य प्राथमिक चक्र इस प्रकार बताये गए हैं।
मूलाधार या आधार चक्र
स्वाधिष्ठान या त्रिक चक्र
मणिपुर या नाभि चक्र
अनाहत या हृदय चक्र
विशुद्ध या कंठ चक्र
अजन या ललाट या तृतीय नेत्र
सहस्रार या शीर्ष चक्र
मूलाधार या मूल चक्र
यह पहला चक्र है और यह जननेन्द्रिय और मलद्वार के बीच स्थित होता है। स्त्रियों में यह गर्भाशय-ग्रीवा के पीछे स्थित होता है, जहां योनि गर्भाशय से मिलती है। इस स्थान पर एक ब्रह्म ग्रंथि स्थित होती है जो ब्रह्मा की द्योतक है। इसका रंग लाल होता है, द्वितीयक रंग काला होता है। लाल रंग जीवन और भौतिक ऊर्जा का द्योतक है। मूलाधार चक्र चार पंखुड़ियों वाले कमल के फूल के समान दिखाई देता है। यह चतुर्भुज के आकार का है, जिसके अन्दर एक त्रिकोण (योनि का प्रतिरूप) होता है। त्रिकोण में एक शिवलिंग अवस्थित रहता है जिस पर सर्प के आकार की कुण्डलिनी लिपटी रहती है। मूलाधार चक्र में चार नाड़ियां मिलती हैं। इसमें चार ध्वनियां – वं, शं, षं, सं होती हैं और यह ध्वनि मस्तिष्क और हृदय के भागों को कंपित करती हैं। शरीर का स्वास्थ्य इन्हीं ध्वनियों पर निर्भर करता है। यह एडरीनल ग्रंथि को नियंत्रित रखता है।
मूलाधार चक्र पृथ्वी, मातृभूमि, संस्कृति, जीवन से सम्बंधित है। यह ऊर्जा और जीवन का केन्द्र है। मूलाधार चक्र रस, रूप, गंध, स्पर्श, भावों व शब्दों का मेल है. यह अपान वायु का स्थान है तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधिकार में हैं। इसको योग
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