पश्चिम के विकृत जगत ने पूरी शिद्दत से हमें यह बताने की चेष्टा की है कि बूढ़ा व्यक्ति किसी योग्य नहीं होता है, लेकिन सनातन जीवन शैली में बूढ़े व्यक्ति को परिवार ही नहीं समाज और राष्ट्र का आधार माना गया है !
हमारे सभी ऋषि, मुनि, मनीषी, धर्मगुरु, विचारक, चिंतक, दंडी स्वामी आदि बूढ़े ही हुआ करते थे बल्कि दूसरे शब्दों में कहा जाए कि जब तक व्यक्ति के जीवन में बुढ़ापे की शुरुआत नहीं होती, तब तक अनुभव के अभाव में वह युवा ढ़नकते हुए पत्थर से अधिक और कुछ नहीं है !
अर्थात कहने का तात्पर्य है कि जब तक मनुष्य अपने जीवन में ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद जगह जगह समाज की ठोकरें खाकर अनुभव प्राप्त करता है, तब तक उसके विचारों में स्थिरता और तारतम्यता नहीं पैदा होती है ! जिसे सनातन जीवन शैली की भाषा में परिपक्वता कहा जाता है !
क्योंकि परिपक्व व्यक्ति का कोई शोषण नहीं कर सकता है और पश्चिम का पूरा का पूरा विकास दूसरों के शोषण पर ही टिका हुआ है, इसीलिए पश्चिम के जगत में जिस अनुभवी व्यक्ति का शोषण नहीं किया जा सकता है, उसे अनुपयोगी और व्यर्थ कहा जाता है !
यही वजह है कि पश्चिम के जगत में अपने शोषण करवाने के लिए तत्पर युवा को बड़े सम्मान से देखा जाता है किंतु जीवन के संघर्ष से निकल कर जो व्यक्ति अनुभव प्राप्त कर लेता है अर्थात जिस का शोषण किया जाना अब संभव नहीं होता है, उससे व्यर्थ और अनुपयोगी घोषित कर दिया जाता है !
मेरी निगाह में किताबी ज्ञान के उपरांत, अनुभव की अग्नि में तप कर निकला हुआ व्यक्ति ही अपने परिवार और राष्ट्र को दिशा दे सकता है इसलिए वृद्धावस्था तक का अनुभव सामान्य अनुभव नहीं है, यह जीवन के 50 साल की तपस्या से प्राप्त निधि है ! इसे अनुपयोगी नहीं कहा जा सकता है !
इसलिए हमें बुजुर्गों के ज्ञान और अनुभव का लाभ उठाकर अपना अपने परिवार और अपने राष्ट्र का कल्याण करना चाहिये ! इसीलिये भारत में सदैव से बुढ़ापे का सम्मान होता रहा है क्योंकि बुढ़ापे के अनुभव से मूल्यवान कुछ भी नहीं है !!