व्यक्तित्व निर्माण के गुण पैतृक या आनुवांशिक होते हैं : Yogesh Mishra

व्यक्तित्व में कुछ गुण पैतृक या आनुवांशिक होते हैं ! शरीर का रंग, रूप, शरीर की बनावट गुणों से युक्त हो सकते हैं ! इसका कारण बालक को प्राप्त हुए अपने माता-पिता के गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) हैं ! बालक की आनुवांशिकता में केवल उसके माता-पिता की देन ही नहीं होती ! बालक की आनुवांशिकता का आधा भाग माता-पिता से, एक चौथाई भाग दादा-दादी से, नाना-नानी से व आठवां भाग परदादा-दादी और अन्य पुरखों से प्राप्त होता है !

अतः बालक के व्यक्तित्व पर पैतृक गुणों का प्रभाव पड़ता है ! उसका रंग-रूप या शारीरिक गठन के गुण उसके माता या पिता से या उसके दादा या दादी के गुणों के अनुरूप हो सकते हैं ! इसी तरह उसमें बुद्धि एवं मानसिक क्षमताओं के गुण अपने पूर्वजों के अनुरूप हो सकते हैं ! कई अध्ययनों में यह देखा गया है कि पूर्वजों की मानसिक व्याधियों के गुण उनकी पीढ़ी के किसी भी व्यक्ति में प्रकट हो सकते हैं ! इस तरह हम देखते हो कि पैतृक गुणों का व्यक्ति के व्यक्तित्व गठन पर कम या ज्यादा प्रभाव पड़ता है !

शारीरिक गठन के अन्तर्गत व्यक्ति की लम्बाई, बनावट, वर्ण, बाल, आंखें व नाक नक्शा आदि अंगों की गणना होती है ! ये शारीरिक विशेषताएं इतनी स्पष्ट होती हो कि बहुत से लोग इन्हीं से व्यक्ति का बोध करते हैं ! हालांकि यह दृष्टिकोण ठीक नहीं है फिर भी ये विशेषताएं व्यक्तित्व की द्योतक अवश्य हैं ! शरीर से हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर व्यक्ति को देखकर लोग प्रभावित होते हैं ! वे उसके शरीर के गठन की प्रशंसा करते हैं ! इससे उस व्यक्ति के मानसिक पहलू पर प्रशंसा का प्रभाव ऐसा पड़ता है कि दूसरों की अपेक्षा वह अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है और उसमें आत्मविश्वास और स्वावलम्बन के भाव पैदा हो जाते हैं !

शारीरिक गठन ठीक न होने और शारीरिक अंगहीनता रहने पर व्यक्ति में हीन भावना पैदा हो जाती है ! वह अपने आपको गया-बीता व हीन समझता है और उसमें आत्मविश्वास की कमी हो सकती है, वह अपने कार्य की सफलता में सदा आशंकित रहता है और अभाव की पूर्ति के लिए वह असामाजिक व्यवहार को अपना सकता है !

व्यक्तित्व विकास पर स्वास्थ्य का भी असर पड़ता है ! जो व्यक्ति शारीरिक रूप से स्वस्थ रहता है वह अच्छा सामाजिक जीवन व्यतीत करता है और उसमें सामाजिकता विकसित होती है ! स्वस्थ व्यक्ति अपने कार्य को सफलता से समय पर पूरा करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर लेता है ! इसके ठीक विपरीत अस्वस्थ व्यक्ति का व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है ! अस्वस्थता के कारण अपने कार्यों को समय पर पूरा नहीं कर पाता जिससे वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति समय पर नहीं कर पाता ! उसमें कार्य करने की रुचि भी कम रहती है ! अस्वस्थ व्यक्ति दूसरों को प्रभावित भी नहीं कर सकता ! इस तरह, व्यक्तित्व पर शारीरिक गठन और स्वास्थ्य का काफी प्रभाव पड़ता है !

व्यक्तितव के विकास में अन्तःस्रावी ग्रंथियों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है ! ये प्रत्येक मनुष्य के शरीर में पायी जाती हैं ! इन ग्रंथियों को ‘नलिकाविहीन ग्रंथियां’ भी कहते हैं ! ये बिना नलिकाओं के शरीर में स्राव भेजती हैं ! इनके स्राव न्यासर या हार्मोन्स कहलाते हैं ! विभिन्न ग्रंथियां एक या एक से अधिक हार्मोन्स का स्राव करती हैं !

अन्तःस्रावी ग्रंथियों एवं शरीर रचना के अतिरिक्त व्यक्तित्व के जैविक कारकों में शारीरिक रसायन का उल्लेख भी आवश्यक है ! प्राचीन काल से मनुष्य के स्वभाव का कारण उसके शरीर के रसायन के तत्वों को भी माना गया है ! ईसा से लगभग 4,000 वर्ष पूर्व यूनान के प्रसिद्ध चिकित्सक व विचारक हिपोक्रेटीज ने शरीर में पाये जाने वाले रसायनों के आधार पर व्यक्ति के स्वभाव का निरूपण किया है !

बचपन से ही अपने सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनी माता पर निर्भर रहना पड़ता है ! अतः माता के विवेकशील और व्यवहार कुशल रहने पर तथा बालक को सही ढंग से देखभाल करने से सन्तान या बालक का व्यक्तित्व विकास उचित ढंग से होता है ! शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसे महापुरुषों के व्यक्तित्व विकास का श्रेय उनकी माताओं को है ! माता-पिता द्वारा आवश्यकताओं की उचित पूर्ति होने से बालक आगे चलकर आशावादी, कर्मवीर व परोपकारी बनता है !

किन्तु माता-पिता द्वारा आवश्यकताओं की उचित पूर्ति न करने से तथा पर्याप्त स्नेह न देने से बालक कर्महीन व निराशावादी बन जाता है ! बाल्यकाल में तिरस्कृत रहने पर वह हीन भाव एवं असुरक्षित भाव से पीड़ित रहता है तथा उसमें आत्मविश्वास की कमी रहती है ! आगे चलकर वह परावलम्बी स्वभाव का हो जाता है ! वह अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं को पूर्ति के लिए भी दूसरों का मुंह देखता रहता है ! फलस्वरूप उसके व्यक्तित्व का विकास उचित दिशा में नहीं हो पाता है !

अतः इस तरह स्पष्ट है कि बच्चे के संपूर्ण व्यक्तित्व के निर्माण में सर्वप्रथम भूमिका मां की होती है ! इसके उपरांत पारिवारिक परिवेश में पिता व परिवार के अन्य सदस्यों की होती है ! समाज का स्थान व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे अंत में आता है !

अतः जिन बच्चों को परिवार में सही संस्कार दिये जाते हैं ! वही व्यक्ति समाज में महापुरुष की भूमिका में होते हैं और जिनके परिवारों में गलत संस्कार बच्चों में विकसित हो जाते हैं ! वह बच्चे समाज के लिये समस्या बन जाते हैं ! इसके अनेकों उदाहरण इतिहास में देखे जा सकते हैं !!

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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