जहां-जहां गणना किया जाना संभव है, वहां-वहां परिणामों में निश्चित रूप से परिवर्तन किया जा सकता है और जहां-जहां परिणामों में निश्चित रूप से परिवर्तन किया जा सकता है वहां-वहां निश्चित रूप से रसायन उपलब्ध है ! अर्थात दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जहां कहीं भी रसायन की उपलब्धता है और उस रसायन की गणना की जा सकती है तो वहां-वहां प्रकृति की व्यवस्था के अनुकूल या विपरीत परिवर्तन किया जाना संभव है !
जब मनुष्य अपने निजी हित में प्रकृति की व्यवस्था के विपरीत कोई परिवर्तन करता है तो उस मनुष्य को असुर की श्रेणी में रखा जाता है और जब कोई मनुष्य निजी हित का परित्याग कर के प्रकृति की व्यवस्था को व्यवस्थित तरीके से चलाये रखने के लिए प्रकृति और समाज के हित में अपने अंदर कोई परिवर्तन करता है तो उस मनुष्य को सुर की श्रेणी में रखा जाता है !
अर्थात कहने का तात्पर्य है कि जब हम प्रकृति और समाज के अनुरूप अपने आप को बदलते हैं तो हम प्रकृति और समाज की व्यवस्था के “सुर” में अपना “सुर” मिला देते हैं और हमें “सुर” अर्थ “देवता” देने वाला व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है !
इसके विपरीत जब हम अपने निजी पोषण लाभ या अहंकार के लिए प्रकृति और समाज का दोहन करना शुरू कर देते हैं तो समाज के द्वारा हमें प्रकृति और समाज की व्यवस्था के विपरीत कार्य करने के कारण असुर अर्थात प्रकृति और समाज के सुर में सुर मिला कर कार्य न करने वाला व्यक्ति “असुर” घोषित कर दिया जाता है ! जिन्हें दैत्य, दानव, राक्षस आदि अन्य नकारात्मक सम्बोधनों से भी संबोधित किया जाता है !
आप देखिये शास्त्रों में “हिरण्यकशिपु” को असुर कहा गया जबकि उसके पुत्र “प्रहलाद” को सुर कहा गया और फिर उसके पौत्र और विरोचन के पुत्र “राजा बलि” को पुनः असुर कहा गया अर्थात सुर और असुर किसी वंश, परम्परा या जाति, प्रजाति का विषय नहीं है बल्कि इसका सम्बन्ध व्यक्ति के कृत, चरित्र और व्यक्तित्व से है ! आपको शायद पता हो भगवान राम के वंशजों में भी राक्षस हुये हैं !
ऐसे व्यक्ति प्रकृति और समाज दोनों के लिए सदैव घातक होते हैं क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में रहने के लिए सदैव अपने हित से अधिक सामाजिक हित का चिंतन करना चाहिए क्योंकि यदि हम सामाजिक व्यवस्था का निरंतर निजी हितो के लिये दोहन करते रहेंगे तो एक दिन हमारी सामाजिक संरचना टूट जाएगी और परिणामत: सामाजिक सुरक्षा का जो कवच है उसके टूट जाने के कारण हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम असहाय और अव्यवस्थित होकर नष्ट हो जाएंगे !
इसी सामाजिक संरचना को सुरक्षित बनाये रखने के लिए धर्म की उत्पत्ति हुई और उसके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित हमारे मनीषियों द्वारा किया गया ! लोग अनुशासन से धर्म का पालन करें ! इसके लिए पाप और पुण्य स्वर्ग और नर्क जैसी अवधारणाओं को विकसित किया गया ! क्योंकि सामान्य मनुष्य अधिक विवेकशील नहीं है अत: उसके निरंकुशता को नियंत्रित करने के लिए धर्म और अधर्म का सहारा लेना तत्कालीन सामाजिक संरचना कारों ने उचित समझा होगा !
इसीलिए हमारे शास्त्र कहते हैं “धर्मो रक्षति रक्षितः” अर्थात यदि हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म निश्चित तौर से हमारी रक्षा करेगा और यदि हम धर्म के अंतर्गत प्रतिपादित सिद्धांतों का पालन नहीं करेंगे तो निश्चित रूप से हमारा समाज कमजोर होगा और समाज के कमजोर होने के कारण हमारा भी विनाश सुनिश्चित है ! इसलिए हमें धर्म का अनुरूप करना चाहिये जिससे हम और हमारी आने वाली पीढ़ीयां सुरक्षित और विकसित हो सकें !