धर्म ग्रंथों में सम्भोग का अर्थ सैक्स नहीं है ! : Yogesh Mishra

गीता प्रेस के संक्षिप्त देवी भाष्य के आधार पर आधारित एक पुस्तक जिसका कि नाम गीता आगे स्पष्ट है उसमें यह लिखा गया की ब्रह्मा जी ने अपनी बेटी सरस्वती के साथ संभोग अर्थात सेक्स करने की इच्छा रखी थी जिस पर वहां के कुछ सनातन धर्म को आपत्ति हुई और उन्होंने तत्काल पुलिस को बुलाकर थाना नारायणगढ़ जिला मंदसौर मध्य प्रदेश में इस पुस्तक के लेखक और प्रकाशक के विरुद्ध कार्यवाही करने का निर्णय लिया जिस पर पुलिस ने उक्त किताब को जप्त कर दिया है जिसका एक वीडियो मैंने अपने फेसबुक के वॉल पर डाला है किंतु इस संदर्भ में मैं भी अपने कुछ विचार व्यक्त करना चाहता हूं !

सर्व प्रथम मेरे कहना यह है कि इन तथ्यों पर बहस किसी एक लाईन या पैरे से नहीं की जा सकती है ! पुराणों की व्याख्या के लिये व्यक्ति में सनातन ज्ञान को समझने की पात्रता होनी चाहिये ! संस्कृत भाषा का ज्ञान होना चाहिये ! जरुरी नहीं है कि उसका जो अनुवाद किया गया है ! वह मूल ग्रन्थ से मेल खाता हो !

दूसरा संभोग का तात्पर्य मात्र सेक्स नहीं होता है बल्कि जिस सुख या दुख को समान रूप से दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा भोगा जाता है उसे संभोग करते हैं ! सेक्स को ग्रंथों में मैथुन काम-क्रीड़ा, रति-क्रीड़ा आदि कहा गया है ! क्योंकि मैथुन को दो व्यक्तियों द्वारा समान रूप से भोगा जाता है इसलिये उसके उपनाम के तौर पर संभोग शब्द का उपयोग किया गया है ! लेकिन यह जरूरी नहीं कि जहां पर संभोग शब्द का उपयोग हो उसका अर्थ बस सिर्फ सेक्सी ही हो !

अंग्रेजों के समय में सनातन धर्म ग्रंथों को बदनाम करने के लिये सम्भोग का अर्थ अंग्रेजी भाषा में सेक्सुअल इन्टरकोर्स किया गया ! बाद में सम्भोग के कई प्रकार बना कर उन्हें भी अलग-अलग नामों से सम्भोग के स्वरूप में प्रस्तुत किया जाने लगा जैसे मुख मैथुन, हस्तमैथुन अथवा गुदा मैथुन आदि किसी भी प्रकार की लैंगिक क्रिया को सम्भोग कहा जाने लगा जबकि यह मात्र मैथुन ही है पर सम्भोग कदापि नहीं !

दुनिया में सबसे पुराने वाचिक साहित्य आदिवासीयों की भाषाओं में आनंद के लिये सामूहिक नृत्य गान को सम्भोग कह कर उल्खित किया गया है ! इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य में अनादि काल से सम्भोग और मैथुन में फर्क किया गया है ! ध्यान रहे कि सभी सनातन साहित्यों का मूल स्रोत आदिवासी साहित्य ही हैं !

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सनातन धर्म शास्त्रों में भी सम्भोग और मैथुन की अलग अलग व्याख्या की गयी है ! वहां भी काम का तात्पर्य मैथुन नहीं है ! जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक है ! प्रत्येक प्राणी के भीतर रागात्मक प्रवृत्ति की संज्ञा ही काम है ! जो सृष्ठी संचालन का आधार है !

वैदिक दर्शन के अनुसार काम सृष्टि के पूर्व में जो एक अविभक्त तत्व था ! वह विश्व रचना के लिये दो विरोधी भावों में आया है ! इसी को सनातन धर्म शास्त्रों में इस प्रकार कहा जाता है कि आरंभ में प्रजापति अर्थात ब्रह्मा अकेले थे ! उसका मन नहीं लगा ! उन्होंने अपने ही शरीर के दो भाग किये ! वह आधे भाग से स्त्री और आधे भाग से पुरुष बन गये ! तब उन्होंने आनंद का अनुभव किया ! स्त्री और पुरुष का युग्म संतति के लिये इस की प्राप्ति को आवश्यक बनाया और उनका पारस्परिक आकर्षण ही कामभाव का वास्तविक स्वरूप है !

प्रकृति की रचना में प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की सत्ता होती ही है ! ऋग्वेद में इस तथ्य की स्पष्ट स्वीकृति पाई गयी है कि जैसे अस्यवामीय सूक्त में कहा गया है कि जिन्हें पुरुष कहते हैं वह भी वस्तुत: स्त्री ही हैं ! जिसके पास ज्ञान की आँखें हैं ! वह इस रहस्य को देख सकता है और ज्ञान के अंधे इसे नहीं समझ पाते हैं !

स्त्रिय: सतीस्तां उ मे पुंस आहु: पश्यदक्षण्वान्न बिचेतदन्ध: ! – ऋग्वेद, 3.164.16 ! के इस सत्य को अर्वाचीन मनोविज्ञान शास्त्री भी पूरी तरह स्वीकार करते हैं ! वह मानते हैं कि प्रत्येक पुरुष के मन में एक आदर्श सुंदरी स्त्री बसती है जिसे “अनिमा’ कहते हैं और प्रत्येक स्त्री के मन में एक आदर्श तरुण का निवास होता है जिसे “अनिमस’ कहते हैं ! वस्तुत: न केवल भावात्मक जगत्‌ में किंतु प्राणात्मक और भौतिक संस्थान में भी स्त्री और पुरुष की यह अन्योन्य प्रतिमा विद्यमान रहती है, ऐसा प्रकृति की रचना का विधान है !

कायिक, प्राणिक और मानसिक, तीन ही व्यक्तित्व के परस्पर संयुक्त धरातल हैं और इन तीनों में काम का आकर्षण समस्त रागों और वासनाओं के प्रबल रूप में अपना अस्तित्व रखता हे ! अर्वाचीन शरीरशास्त्री इसकी व्याख्या करते हैं कि पुरुष में स्त्रीलिंगी हार्मोन और स्त्री में पुरुषलिंगी हार्मोंन होते हैं ! जिसे अब वर्तमान शरीर विज्ञान भी मानने लगा है !

सनातन धर्म शास्त्र के अनुसार यही अर्धनारीश्वर स्वरूप है अर्थात प्रत्येक प्राणी में पुरुष और स्त्री के दोनों अर्ध-अर्ध भाव में सम्मिलित रूप से विद्यमान हैं और शरीर का एक भी कोष ऐसा नहीं जो इस योषा-वृषा-भाव से शून्य हो ! यह कहना उपयुक्त होगा कि प्राणिजगत्‌ की मूल रचना अर्धनारीश्वर सूत्र से प्रवृत्त हुई और जितने भी प्राण के मूर्त रूप हैं सबमें उभयलिंगी देवता ओत प्रोत है ! एक मूल पक्ष के दो भागों की कल्पना को ही “माता-पिता’ कहते हैं !

इन्हीं के नाम द्यावा-पृथिवी और अग्नि-सोम हैं ! द्यौ: पिता, पृथिवी मता, यही विश्व में माता-पिता हैं ! प्रत्येक प्राणी के विकास का जो आकाश या अंतराल है, उसी की सहयुक्त इकाई द्यावा पृथिवी इस प्रतीक के द्वारा प्रकट की जाती है !

इसी को जायसी ने इस प्रकार कहा है: द्यावा पृथिवी, माता पिता, योषा वृषा, पुरुष का जो दुर्धर्ष पारस्परिक राग है, वही काम है ! कहा जाता है, सृष्टि का मूल प्रजापति का ईक्षण अर्थात्‌ मन है ! विराट् में केंद्र के उत्पत्ति को ही मन कहते हैं ! इस मन का प्रधान लक्षण काम है ! प्रत्येक केंद्र में मन और काम की सत्ता है, इसलिये भारतीय परिभाषा में काम को मनसिज या संकल्प योनि कहा गया है !

मन का जो प्रबुद्ध रूप है उसे ही मन्यु कहते हैं ! मन्यु भाव की पूर्ति के लिये जाया भाव आवश्यक है ! बिना जाया के मन्यु भाव रौद्र या भयंकर हो जाता है ! इसी को भारतीय आख्यान में सत्ती में सती से वियुक्त होने पर शिव के भैरव रूप द्वारा प्रकट किया गया है ! वस्तुत: जाया भाव से असंपृक्त प्राण विनाशकारी है ! अतृप्त प्राण जिस केंद्र में रहता है उसका विघटन कर डालता है ! प्रकृति के विधान में स्त्री पुरुष का सम्मिलन सृष्टि के लिये आवश्यक है और उस सम्मिलन के जिस फल की निष्पति होती है उसे ही कुमार कहते हैं ! प्राण का बालक रूप ही नई-नई रचना के लिये आवश्यक है और उसी में अमृतत्व की श्रृंखला की बार-बार लौटनेवाली कड़ियाँ दिखाई पड़ती हैं ! आनंद काम का स्वरूप है !

यदि मानव के भीतर का आकाश आनंद से व्याप्त न हो तो उसका आयुष्यसूत्र अविच्छन्न हो जाए ! पत्नी के रूप में पति अपने आकाश को उससे परिपूर्ण पाता है ! अर्वाचीन मनोविज्ञान का मौलिक अन्वेषण यह है कि काम सब वासनाओं की मूलभूत वासना है ! यहाँ तक तो यह मान्यता समुचित है, किंतु भारतीय विचार के अनुसार काम रूप की वासना स्वयं ईश्वर का रूप है ! वह कोई ऐसी विकृति नहीं है जिसे हेय माना जाए ! इस नियम के अनुसार काम प्रजनन के लिये अनिवार्य है और उसका वह छंदोमय मर्यादित रूप अत्यंत पवित्र है ! काम वृत्ति की वीभत्स व्याख्या न इष्ट है, न कल्याणकारी है !

मानवीय शरीर में जिस श्रद्धा, मेधा, क्षुधा, निद्रा, स्मृति आदि अनेक वृत्तियों का समावेश है ! उसी प्रकार काम वृत्ति भी देवी की एक कला रूप में यहाँ निवास करती है और वह चेतना का अभिन्न अंग है ! .

इसलिये धर्म ग्रंथों की गलत व्याख्या करके समाज को दिग्भ्रमित करने वाले लोगों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई होनी चाहिये और साथ ही इस बात की भी जांच होनी चाहिये कि आखिरकार समाज को दिग्भ्रमित करने वाले इन लोगों के पास इतना पैसा कहां से आता है कि यह लोग इतनी मोटी मोटी सनातन धर्म विरोधी किताबें छपावाकर बाँटा करते हैं ! इससे देश को तोड़ने वाले के बहुत से रहस्य खुलेंगे !

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योगेश कुमार मिश्र 

ज्योतिषरत्न,इतिहासकार,संवैधानिक शोधकर्ता

एंव अधिवक्ता ( हाईकोर्ट)

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