वैष्णव दो तरह के होते हैं ! एक अर्ध वैष्णव, दूसरे पूर्ण वैष्णव !
अर्ध वैष्णव से तात्पर्य ऐसे वैष्णव लोगों से है, जो मठ मंदिरों के मुखिया हैं ! कथावाचक हैं या महंगे कर्मकांडी ब्राह्मण हैं !
प्राय: यह लो पूरी दुनिया को ईश्वर के महत्व को बताते हुए उसके प्रति त्याग और समर्पण का प्रवचन देते हैं, किंतु स्वयं प्रति क्षण अपने निजी लाभ की गणित में लगे रहते हैं !
इनका संपूर्ण व्यक्तित्व धूर्तता, पाखंड और दोगलेपन से भरा हुआ होता है ! यह लोग प्रायः मंचों पर बैठने के लिए बहुत उत्सुक होते हैं और समाज को धोखा देने के लिए भगवा कपड़ा पहने दूसरों के पैसे और सुविधाओं पर घूमते रहते हैं !
अगर इन्हें माइक मिल जाये तो यह लोग घंटों उस विषय पर उपदेश देने की क्षमता रखते हैं, जिसका अनुपालन इन्होंने स्वयं अपने जीवन में कभी नहीं किया है !
इनका न तो कोई साधना का स्तर होता है और न ही यह लोग अनुभूति के स्तर पर आध्यात्मिक होते हैं !
प्रायः यह लोग शास्त्रों के कुछ श्लोकों और उदाहरणों को रट कर भगवान की दुहाई देते हुये दुनिया को ठगने का अपना धंधा करते रहते हैं !
यह लोग दूसरों को त्याग और तपस्या का महत्व बतलाते हुए स्वयं पूर्ण भोग विलास का जीवन जीते हैं !
ऐसे लोग सत्य सनातन हिंदू धर्म के लिए भगवाधारी पाखंडी के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते हैं ! इनसे समाज का कोई भला तो नहीं होता है किंतु धर्म के प्रति लोगों की आस्था जरूर कमजोर हो जाती है !
इसके विपरीत वैष्णव में एक दूसरी नस्ल है पूर्ण वैष्णव !
यह लोग पूर्व के अर्ध वैष्णव प्रवचन कर्ताओं के कथन को सत्य मानते हुये उसका अक्षरश: अनुपालन करते हैं !
यह लोग कथावाचकों और धर्म शास्त्रों की कथाओं का विवेकपूर्ण विश्लेषण नहीं करते हैं बल्कि उन कपोल कल्पित कथाओं को वैसा ही सत्य मान लेते हैं, जैसा इन्हें बतलाया जा रहा है ! दूसरे शब्दों में इन्हें वैष्णव अंधभक्त भी कहा जा सकता है !
यह लोग नियमित रूप से मंदिर जाते हैं ! जप, अनुष्ठान, पूजा पाठ आदि भी करते हैं ! भले ही वह किसी दूसरे के घर से चुराए गए फूलों से करते हों ! यह लोग सेवा, दान का कार्य भी करते हैं और अपना संपूर्ण भविष्य ईश्वर के प्रति समर्पित कर देते हैं और बिना किसी योजना और युक्ति के इस संसार में ईश्वर भरोसे जीते रहते हैं !
और अपने जीवन के सभी दुखों को अपने प्रारब्ध का हिस्सा मानकर बिना किसी शिकवा शिकायत के अपना संपूर्ण जीवन इस आशा में जी लेते हैं कि वर्तमान में भगवान उनकी परीक्षा ले रहा है किंतु भविष्य में कभी भगवान हमें भी सुख देगा ! जो वास्तव में उन्हें पूरे जीवन कभी नहीं मिलता है !
क्योंकि संसार में सुख प्राप्त करना युक्ति का विषय है, यह किसी आस्था, श्रद्धा, विश्वास या कर्मकांड का विषय नहीं है !
सांसारिक सुख को किसी भी पूजा, व्रत, जप, तप, अनुष्ठान, कर्मकांड आदि से प्राप्त नहीं किया जा सकता है ! यह सारी चीजें आपके मानसिक शक्तियों को विकसित करने में सहायक मात्र हैं !