जल पर कर लगा कर सरकार ने जनता को यह बतला दिया है कि जल स्रोतों की सुरक्षा और समृद्धि का दायित्व जल का उपयोग और उपभोग करने वालों का न होकर शासन-प्रशासन का है ? जबकि हकीकत यह है कि कोई भी शासन-प्रशासन कितने ही बड़े बजट और कितने ही बड़े लाव-लश्कर के साथ जल सुरक्षा सुनिश्चित करने में लगे जन दायित्व के आभाव में जल सुरक्षा संभव नहीं है !
यह गंभीर चूक व्यैक्तिक और सामुदायिक दोनों स्तर पर हुई है ! हालांकि लोगों के जनदायित्व पूर्ति से हट जाने की वजह निजी जीवन में राजनैतिक, प्रशासनिक, संवैधानिक, हस्तक्षेप माना है जबकि यह सामाजिक, सांस्कृतिेक, नैतिक, विषय है ! मसलन विभिन्न प्रदेश का मछली कानून कहता है कि नदी की सभी मछलियों पर मछली विभाग का अधिकार है !
नदियां सरकार की हैं ! कानूनन, नदियां राज्य का विषय हैं ! संविधान की एंट्री संख्या 56 के मुताबिक, अंतरराज्यीय नदियों के मामले में दखल का पूरा अधिकार केन्द्र के पास है ! लोगों को दखल का कोई कानूनी अधिकार प्राप्त नहीं है ! अतः लोगों इनके रखरखाव को अपनी जिम्मेदारी नहीं मानते ! यह ठीक नहीं है !
प्राकृतिक संसाधनों के मामले में संविधान, सरकार को महज ट्रस्टी मानता है ! ट्रस्टी सौंपी गई संपत्ति की ठीक से देखभाल न करे, तो उसे हटाने और हटाकर संपत्ति को किसे सौंपा जाए, इस बारे में संवैधानिक स्तर पर स्पष्टता का न होना भी नदियों के समक्ष पेश चुनौंतियों के समाधान में बाधक है ! जनजुड़ाव के रास्ते में मालिकी की अस्पष्टता, अपने आप में एक बड़ी बाधा है ! इसके दुष्परिणाम हमें चौतरफा दिखाई दे रहे हैं !
मनरेगा के तहत बने तालाब को ही लीजिए ! वे सिर्फ इसलिए फेल हुए, चूंकि जगह के चयन और डिजायन ठीक नहीं थे ! भारत जैसे भू सांस्कृतिक विविधता वाले देश में जलसंचयन ढांचों के डिजाजन में एकरूपता की कल्पना करना ही तकनीकी तौर पर गलत है; बावजूद इसके मनरेगा के तहत् पानी के ढांचे कमोबेश हर जगह एक से ही बने !
लोगों से न राय ली गई और न ही ग्रामसभाओं ने इसे अपना दायित्व समझकर राय दी ! राजनेता मतदाताओं से कहते हैं – “तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे पानी दूंगा !’’
ऐसे कई उद्धहरणों का जिक्र किया जा सकता है ! किंतु सिर्फ नेता, कानून अथवा नीति नियंताओं को दोष देकर मसले का हल ढूंढा नहीं जा सकता ! हकीकत यह है कि अपने पारंपरिक ज्ञान और लोक संसाधनों के प्रति हम भारतीय के संस्कृति, संस्कार में कमी आई है !
पानी के संकट के रूप में दिखता संकट, वास्तव में हम भारतीयों की नैतिकता में गिरावट का संकट है ! अपने बाप-दादाओं द्वारा संजोकर रखे गए संसाधनों को बेचकर ऐश करने की नीयत का संकट है !
भारतीय जल संस्कृति में पानी को वरूण, इन्द्र और मां कहा जाता है ! भारत सरकार की जल नीति ने पानी को वस्तु कहा ! हमने भी पानी को इसी रूप में स्वीकार लिया है !
पानी-नदी के साथ रिश्ते की बात झूठी है ! हर हर गंगे की तान में अब कोई दम नहीं है ! जहां समाज आज भी पानी-नदी के साथ रिश्ता रखता है. वहां आज भी कोई जल संकट नहीं है ! राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड समेत आज भी देश में कई इलाके इसकी मिसाल के रूप में विद्यमान है ! स्पष्ट है कि जलसुरक्षा के लिए कानून से ज्यादा समग्र नीति और नीयत की जरूरत है !